विन्ध्याचल पर्वत
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विवरण | 'विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला' भारत के पश्चिम-मध्य में स्थित प्राचीन गोलाकार पर्वतों की श्रृंखला है, जो भारत उपखंड को उत्तरी भारत व दक्षिणी भारत में बांटती है। |
देश | भारत |
राज्य | उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार |
उच्चतम बिन्दु | अमरकंटक |
विस्तार | लगभग 1,086 कि.मी. तक विस्तृत। |
नदियाँ | चंबल, बेतवा, केन और टोन्स, तमसा, काली सिंध, सोन, पार्वती। |
अन्य जानकारी | विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला का पश्चिमी अंत गुजरात में पूर्व में वर्तमान राजस्थान व मध्य प्रदेश की सीमाओं के नजदीक है। यह श्रृंखला भारत के मध्य से होते हुए पूर्व व उत्तर से होते हुए मिर्ज़ापुर में गंगा नदी तक जाती है। |
विन्ध्याचल पर्वत या विन्ध्यन पर्वतश्रेणी पहाड़ियों की टूटी-फूटी श्रृंखला है, जो भारत की मध्यवर्ती उच्च भूमि का दक्षिणी कगार बनाती है। पश्चिम में गुजरात से लगभग 1,086 कि.मी. तक विस्तृत यह श्रेणी मध्य प्रदेश को पार कर वाराणसी (बनारस) की गंगा नदी घाटी से मिलती है। विन्ध्याचल पर्वत मालवा पठार का दक्षिणी छोर बनाते हैं और इसके बाद दो शाखाओं में बंट जाते हैं- कैमूर श्रेणी, जो सोन नदी के उत्तर से पश्चिमी बिहार राज्य तक फैली है तथा दक्षिणी शाखा, जो सोन और नर्मदा नदी के ऊपरी क्षेत्र के बीच मैकल श्रेणी (या अमरकंटक पठार) में सतपुड़ा पर्वतश्रेणी से मिलती है। मालवा पठार के दक्षिण से आरम्भ होकर यह श्रेणी पूर्व की ओर मध्य प्रदेश तक विस्तृत हैं। यह भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है।
विंध्य शब्द की व्युत्पत्ति
'विंध्य' शब्द की व्युत्पत्ति 'विध्' धातु[1] से कही जाती है। भूमि को बेध कर यह पर्वतमाला भारत के मध्य में स्थित है। यही मूल कल्पना इस नाम में निहित जान पड़ती है। विंध्य की गणना सप्तकुल पर्वतों में है। विंध्य का नाम पूर्व वैदिक साहित्य में नहीं है।
पौराणिक उल्लेख
- वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा काण्ड[2] में विंध्य का उल्लेख 'संपाती' नामक गृध्रराज ने इस प्रकार किया है-
‘अस्य विंधस्य शिखरे पतितोऽस्मि पुरानद्य सूर्यतापपरीतांगो निदग्धः सूर्यरश्मिभिः, ततस्तु सागराशैलान्नदीः सर्वाः सरांसि च, वनानि च प्रदेशांश्च निरीक्ष्य मतिरागता हृष्टपक्षिगणाकीर्णः कंदरादरकूटवान् दक्षिणस्योदधेस्तीरे विंध्योऽयमिति निश्चितः।'
- महाभारत, भीष्मपर्व[3]में विंध्य को कुलपर्वतों की श्रेणी में परिगणित किया गया है।[4]
- 'श्रीमद्भागवत'[5] मेंं भी विंध्य का नामोल्लेख है-
‘वारिधारो विंध्याः शुक्तिमानृक्षगिरि पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतकः।'
- कालिदास ने कुश की राजधानी कुशावती को विंध्य के दक्षिण में बताया है। कुशावती को छोड़कर अयोध्या वापिस आते समय कुश ने विंध्य को पार किया था-
‘व्यलंङ्घयद्विन्ध्यमुपायनानि पश्यन्मुलिन्दैरुपपादितानि।'[6]
- विष्णुपुराण[7] में नर्मदा और सुरसा आदि नदियों को विंध्य पर्वत से उद्भूत बताया गया है-
‘नर्मदा सुरसाद्याश्च नद्यो विंध्याद्विनिर्गताः।'
- पुराणों के प्रसिद्ध अध्येता पार्जिटर के अनुसार[8] मार्कण्डेय पुराण[9] में जिन नदियों और पर्वतों के नाम हैं, उनके परीक्षण से सूचित होता है कि प्राचीन काल में विंध्य, वर्तमान विंध्याचल के पूर्वी भाग का ही नाम था, जिसका विस्तार नर्मदा के उत्तर की ओर भूपाल से लेकर दक्षिण बिहार तक था। इसके पश्चिमी भाग और अरावली की पहाड़ियों का संयुक्त नाम पारिपात्र[10] था।
- पौराणिक कथाओं से सूचित होता है कि विंध्याचल को पार करके अगत्स्य ऋषि सर्वप्रथम दक्षिण दिशा गए थे और वहां जाकर उन्होंने आर्य संस्कृति का प्रचार किया था।[11]
नदियाँ
450 मीटर से 1100 मीटर ऊँचाई पर विंध्य श्रेणी से गंगा-यमुना प्रणाली की मुख्य दक्षिणी सहायक नदियाँ निकलती हैं, जिनमें चंबल, बेतवा, केन और टोन्स शामिल हैं। अपनी समतलीय बलुआ पत्थर संरचना के कारण ये पर्वत समतल शिखर युक्त और पठार जैसे लगते हैं। दूसरी शताब्दी के यूनानी भूगोलवेत्ता टॉल्मी ने इस श्रेणी को उत्तरी और प्राय:द्वीप भारत के बीच सीमा माना था। इसके अधिकांश पर्वत चूना पत्थर से निर्मित हैं। इन श्रेणियों में बहुमूल्य हीरे युक्त एक भ्रंशीय पर्वत भी हैं।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बेधन करना
- ↑ किष्किंधा काण्ड 60, 4-6
- ↑ भीष्मपर्व 9, 11
- ↑ 4.0 4.1 ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 848 |
- ↑ श्रीमद्भागवत 5, 19 16
- ↑ रघुवंश 16, 32
- ↑ विष्णुपुराण 3,11
- ↑ जर्नल ऑव दि रायल एशियाटिक सोसायटी 1894, पृ. 258
- ↑ मार्कण्डेय पुराण 57
- ↑ =पारियात्र
- ↑ ब्रह्मपुराण-‘अगस्तयो दक्षिणमाशामाश्रितय नभसि स्थितः, वरुणस्यात्मजो योगी विंध्यवातापिमर्दनः
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