विपुल पर्वत अथवा 'विपुलगिरि' अथवा 'विपुलाचल' राजगृह[1] के सात पर्वतों में परिगणित है। इस पर्वत का महाभारत, सभापर्व[2] दक्षिणात्य पाठ में उल्लेख है-
'पाडंरे विपुले चैव तथा वाराहकेसपि च चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातंगेच शिलाच्चये।'
- पाली भाषा के साहित्य में इसे 'वेपुल्ल' कहा गया है।
- विपुलगिरि या विपुलाचल जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम प्रवचन की स्थली होने के कारण भी प्रसिद्ध है। उन्होंने इस स्थान से बारह वर्ष की मौन तपस्या के उपरान्त श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा की पुण्य वेला में सूर्योदय के समय अपनी सर्वप्रथम ‘देशना’ की थी, जिसमें उन्होंने कहा था-
'सब्वे विजीवा इच्छन्ति, जीवउंण मरिज्जउं, तम्हा पाणिवधं समणा परिवज्जयंतिण।'
अर्थात "सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए प्राणिवाध घोर पाप है। जो श्रमण हैं, वे इसका परित्याग करते हैं।"
- विपुलाचल का महत्व जैन धर्म वहीं है, जो सारनाथ का बौद्ध धर्म में है।[3]
- विष्णुपुराण[4] के अनुसार विपुल इलावृत के चार पर्वतों[5] में से पश्चिम की ओर का पर्वत है-
'विपुलः पश्चिमे पाश्वे सुपार्श्वश्चोत्तरै स्मृत:।'
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