वैशेषिक सूत्र

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महर्षि कणाद और उनका वैशेषिकसूत्र

महर्षि कणाद वैशेषिकसूत्र के निर्माता, परम्परा से प्रचलित वैशेषिक सिद्धान्तों के क्रमबद्ध संग्रहकर्ता एवं वैशेषिक दर्शन के समुद्भावक माने जाते हैं। वह उलूक, काश्यप, पैलुक आदि नामों से भी प्रख्यात हैं महर्षि के ये सभी नाम साभिप्राय और सकारण हैं।

कणाद नाम का आधार

कणाद शब्द की व्युत्पत्ति और व्याख्या विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से की है। उनमें से कुछ के मन्तव्य इस प्रकार हैं—

  • व्योमशिव ने 'कणान् अत्तीति कणाद:'- आदि व्युत्पत्तियों की समीक्षा करने के अनन्तर यह कहा कि ये असद व्याख्यान हैं। उन्होंने 'केचन अन्ये' कहकर निम्नलिखित परिभाषा का भी उल्लेख किया- 'असच्चोद्यनिरासार्थं कणान् ददाति दयते इति वा कणाद:।'
  • श्रीधर— कणादमिति तस्य कापोतीं वृत्तिमनुतिष्ठत: रथ्यानिपतित-तण्डुनालादाय प्रत्यहं कृताहारनिमित्ता संज्ञा। निरवकाश: कणान् वा भक्षयतु इति यत्र तत्र उपालम्भस्तत्रभवताम्।[1] श्रीधर का यह विचार चिन्तनीय है कि कणाद की कपोती वृत्ति के आधार पर ही वैशेषिकों के प्रति यह उपालम्भ किया जाता है कि- 'अब कोई उपाय न रहने के कारण कणों को खाइये।'
  • उदयन आदि आचार्यों का यह मत है कि महेश्वर की कृपा को प्राप्त करके कणाद ने इस शास्त्र का प्रणयन किया- 'कणान् परमाणून् अत्ति सिद्धान्तत्वेनात्मसात् करोति इति कणाद:।' अत: उनको कणाद कहा गया।
  • उपर्युक्त सभी व्याख्याओं की समीक्षा के बाद यह कहा जा सकता है कि कणाद संज्ञा एक शास्त्रीय पद्धति के वैशिष्ट्रय के कारण है, न कि कपोती वृत्ति के कारण।

उलूक या औलूक्य नाम का आधार

वैशेषिक सूत्रकार को उलूक या औलूक्य भी कहा जाता है। इनके उलूक नाम के सम्बन्ध में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि यह दिन में ग्रन्थों की रचना करते थे और रात में उलूक पक्षी के समान जीविकोपार्जन करते थे।[2]

व्योमशिव भी इस संदर्भ में यह कहते हैं- 'अन्यैस्तु धर्मै: सह धर्मिण उपदेश: कृत:। केनेति-विना पक्षिणा उलूकेन'।

न्यायलीलावती की भूमिका में भी यह उल्लेख है- 'मुनये कणादाय स्वयमीश्वर उलूकरूपधारी प्रत्यक्षीभूय द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायलक्षणं पदार्थषट्कमुपदिदेश।'

जैनाचार्य अभयदेव सूरि ने भी सम्मतितर्क की व्याख्या में यह कहा कि 'एतदेवोक्तं भगवता परमार्षिणा औलूक्येन'। इनको औलूक्य भी कहा जाता है, और इस संदर्भ में कुछ विद्वानों द्वारा यह माना जाता है कि उलूक इनके पिता का नाम था अत: उलूक के पुत्र होने के कारण यह औलूक्य कहलाते हैं।

लिंगपुराण में यह संदर्भ मिलता है कि अक्षपाद मुनि और उलूक मुनि शिव के अवतार थे। महाभारत में उपलब्ध तथ्यों के अनुसार शरशय्या में पड़े हुए भीष्म पितामह की मृत्यु के समय अन्य ऋषियों के साथ उलूक भी थे। वही उलूक या औलूक्य मुनि वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक थे।[3]

नैषधीयचरित महाकाव्य की प्रकाश टीका के रचयिता नारायण भट्ट ने कणाद और उलूक शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची माना है।[4]

पैलुक नाम का आधार

पैलुक नाम से भी कणाद का उल्लेख किया जाता है। परमाणु का एक पर्यायवाची शब्द पीलु भी है। अत: परमाणु-सिद्धान्त के प्रवर्तक को पैलुक और वैशेषिक को पैलुकसम्प्रदाय भी कहा जाता है।

काश्यप नाम का आधार

कश्यप गोत्र में उत्पन्न होने के कारण कणाद को काश्यप भी कहा जाता है। इस नाम का उल्लेख प्रशस्तपाद ने पदार्थ धर्म-संग्रह में इस प्रकार किया है- 'विरुद्धासिद्धसंदिग्धमलिंगं काश्यपोऽब्रवीत्॥[5]'

काश्यप कणाद का गोत्रनाम था। उदयनाचार्य ने भी इस तथ्य का उल्लेख किया है।

वायुपुराण में यह बताया गया है कि कणाद प्रभास तीर्थ में रहते थे और शिव के अवतार थे।

वैशेषिक सूत्र का रचनाकाल

वैशेषिक दर्शन का आधार कणादप्रणीत वैशेषिक सूत्र है। जैसे अन्य भारतीय दर्शनों और समग्र भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल तत्त्व अनादि काल से चले आ रहे हैं और संकेत रूप में वेदों में उपलब्ध होते हैं, वैसी ही स्थिति वैशेषिक के मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी है। जैसे गौतम, कपिल, जैमिनि और व्यास आदि ऋषि न्याय, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों के द्रष्टा, सूत्रनिर्माता या संग्राहक आचार्य हैं, वैसे ही कणाद भी वैशेषिक दर्शन के संग्राहक या सिद्धान्त रूप में पूर्वप्रचलित कथनों को सूत्ररूप में क्रमबद्ध करने वाले आचार्य हैं। हाँ, इस समय जो वाङमय वैशेषिक दर्शन के रूप में उपलब्ध होता है, उसका आधार प्रमुखतया कणाद प्रणीत वैशेषिक सूत्र ही है। कहा जाता है कि न्याय और वैशेषिक दोनों माहेश्वर दर्शन हैं। पहले आन्वीक्षिकी नाम में सम्भवत: दोनों का समावेश होता था।

वैशेषिक सूत्र के रचना-काल के संबन्ध में यह ज्ञातव्य है कि आचार्य कौटिल्य द्वारा तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में रचित अर्थशास्त्र में वैशेषिक शब्द का उल्लेख नहीं है (यद्यपि यह सम्भव है कि उन्होंने आन्वीक्षिकी में ही वैशेषिक को भी समाहित मान लिया हो)। जबकि चरक द्वारा कनिष्क के समय ईस्वीय प्रथम शताब्दी में रचित चरक संहिता में वैशेषिक के षट्पदार्थों का उल्लेख है। इस आधार पर डॉ. उई जैसे कतिपय विद्वानों ने अपना यह मत बनाया कि वैशेषिक सूत्र का रचनाकाल 150 ई. माना जा सकता है।[6] किन्तु महामहोपाध्याय कुप्पूस्वामी जैसे अन्य विद्वानों की यह धारणा है कि वैशेषिक सूत्र की रचना 400 ई. पूर्व हुई।[7]

वैशेषिक दर्शन का विधिवत उल्लेख सर्वप्रथम मिलिन्द पह्न में मिलता है। वैशेषिक और बौद्ध दर्शन का उल्लेख चीन की प्राचीन परम्परा में भी उपलब्ध होता है। बौद्ध आचार्य हरिवर्मा (260 ई.) के लेख से पता चलता है कि वैशेषिक का संस्थापक चलूक था, जिसका समय बुद्ध से 800 वर्ष पूर्व था। यह तो प्राय: सर्वस्वीकृत तथ्य है कि न्याय दर्शन की अपेक्षा वैशेषिक दर्शन प्राचीन है। डॉ. जैकोवी ने वैशेषिक सूत्रों का समय ईस्वीय द्वितीय शताब्दी से लेकर ईस्वीय पंचम शताब्दी तक के अन्तराल में माना है।[8]

उदयवीर शास्त्री ने कणाद का काल महाभारत से पूर्व माना है।[9]

बोदत्स के अनुसार कणाद का समय 400 ई. से पूर्व तथा 500 ई. के बाद नहीं रखा जा सकता। प्रो. गार्बे और राधाकृष्णन प्रभृति विद्वानों का यह मत है कि वैशेषिक सूत्र का निर्माण न्याय सूत्र से पहले हुआ, क्योंकि वैशेषिक सूत्र का प्रभाव न्यायसूत्र पर परिलक्षित होता है; जबकि वैशेषिक सूत्र पर न्याय सूत्र का प्रभाव नहीं दिखाई देता। अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि न्याय सूत्र का प्रभाव नहीं दिखाई देता। अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि न्याय सूत्र की रचना दूसरी शती में हुई। अत: वैशेषिक सूत्र की रचना द्वितीय शती से पहले हुई। सर्वदर्शन संग्रह प्रभृति ग्रन्थों में दर्शनों का उद्भव प्राय: उपनिषदों से माना गया है, किन्तु प्रो. एच. उई जैसे विद्वानों का यह मत है कि वैशेषिक का उद्भव उपनिषद से नहीं, अपितु लोक के सामान्य विचारों से हुआ। कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा जैन ग्रन्थों से भी इसकी पुष्टि होती है।[10]

उपर्युक्त विभिन्न मतों पर ध्यान देते हुए यही कहा जा सकता है कि वैशेषिक सूत्रों के रचनाकाल के संबन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। अत: इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि अधिकतर विद्वानों के अनुरूप वैशेषिक सूत्र की रचना दूसरी शती से पहले हुई। किन्तु मन्तव्यों की दृष्टि से वैशेषिक मत अतिप्राचीन है, वैशेषिक सूत्र में बौद्ध मत की चर्चा नहीं है, अत: मेरे विचार में कणाद बुद्ध से पूर्ववर्ती माने जा सकते हैं।

वैशेषिक सूत्र पाठ

वैशेषिक सूत्र की जो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, उनके आधार पर ही सूत्र संख्या, सूत्र क्रम और सूत्र पाठ का निर्धारण किया जाता रहा है। मिथिलावृत्ति, चन्द्रानन्दवृत्ति और उपस्कारवृत्ति में उपलब्ध सूत्र पाठ ही प्राचीनतम माने जाते हैं। उपस्कारवृत्ति के आधार पर यह विदित होता है कि इसमें 10 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं और सूत्रों की संख्या कुल मिलाकर 370 है। सूत्रों के क्रम, पूर्वापर संगति, पाठ तथा उनके व्याख्यान में व्याख्याकारों का पर्याप्त मतभेद दिखाई देता है। उदाहरणतया बड़ौदा (बड़ोदरा) से प्रकाशित चन्द्रानन्दवृत्ति सहित वैशेषिक सूत्र में 384 सूत्र हैं इस संस्करण में वैशेषिक सूत्र के आठवें, नवें और दसवें अध्यायों का दो-दो आह्निकों में विभाजन भी उपलब्ध नहीं होता। मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित वैशेषिक सूत्र नवम अध्याय के प्रथम आह्निक पर्यन्त ही उपलब्ध हैं उनमें 321 सूत्र हैं।

वैशेषिक दर्शन की व्याख्या

वैशेषिक दर्शन की व्याख्या सरणि दो प्रकार की देखी जाती है-

  1. सूत्रव्याख्यानरूपा, जैसे उपस्कारवृत्ति और
  2. पदार्थव्याख्यानरूपा, जैसे पदार्थधर्मसंग्रह।

समय के साथ-साथ वैशेषिक में भी प्रस्थानों का प्रवर्तन हुआ, जैसे मिथिलाप्रस्थान, गौडप्रस्थान और दाक्षिणात्य प्रस्थान। मिथिलाप्रस्थान में न्याय के सिद्धान्तों का प्रवेश और कणाद को ईश्वर भी मान्य रहा,- इस बात के संकेत उपलब्ध होते हैं। अन्य दो प्रस्थानों में ऐसा प्रयास नहीं मिलता, किन्तु वैशेषिक वाङमय में इन प्रस्थानभेदों को कोई मान्यता नहीं मिली।

वैशेषिक सूत्र का प्रतिपाद्य

वैशेषिक सूत्र में 10 अध्याय और 20 आह्निक हैं। दस अध्यायों में विषय का प्रतिपादन निम्नलिखित रूप से किया गया है-

  1. अभ्युदय और नि:श्रेयस के साधनभूत धर्म और पदार्थों के उद्देश, विभाग तथा पदार्थों के साधर्म्य-वैधर्म्य के संदर्भ में कार्य-कारण के स्वरूप का निरूपण।
  2. पृथिवी आदि द्रव्यों का निरूपण।
  3. आत्मा, मन और मनोगति का निरूपण।
  4. पदार्थमात्र के मूलकारण प्रकृति तथा शरीरादि का निरूपण।
  5. उत्क्षेपणादि कर्मों और नोदनादि संयोगज कर्म का निरूपण।
  6. शास्त्रारम्भ में प्रतिज्ञात वेदों का, धर्म और वैदिक अनुष्ठानों का तथा उनके दृष्ट और अदृष्ट फलों का निरूपण।
  7. गुणों के स्वरूप और भेदों का निरूपण।
  8. बुद्धि के स्वरूप और भेदों तथा ज्ञान का निरूपण।
  9. असत्कार्यवाद तथा अनुमान की प्रक्रिया का विश्लेषण।
  10. सुख-दु:ख के पारस्परिक भेद तथा कारण के भेदों का निरूपण।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्या. कं. पृ. 4
  2. Vaisheshik Philosopher, UI, p.6
  3. महाभारत, शान्ति पर्व 14.11
  4. ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषकिं चारुमतं मतं मे। औलूकमाहु: खलु दर्शनं तत् क्षम: तमस्तत्त्वनिरूपणाय॥ नै. च. 12.35
  5. प्रशस्तपादभाष्य (श्रीनिवास शास्त्री सम्पादित संस्करण, पृ. 151
  6. Vaisheshik System, p-II
  7. Primer of Indian Logic Introduction, p.XII
  8. Journal of American Oriental Society, Vol. 3
  9. वैशेषिक दर्शन, विद्योदय भाष्य, भाष्यकार का निवेदन, पृ. 11
  10. श्रीनिवास शास्त्री, प्रशस्तपादभाष्यव्याख्या, पृ. 7

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