दमित्री मेंडलीव

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दमित्री मेंडलीव
दमित्री मेंडलीव
दमित्री मेंडलीव
पूरा नाम दमित्री इवानोविच मेंडलीव
जन्म 8 फ़रवरी, 1834
जन्म भूमि तोबोलोस्क, साइबेरिया
मृत्यु 2 फ़रवरी, 1907
मृत्यु स्थान सेंट पीटर्सबर्ग
अभिभावक माता- मारिया मेंडलीवा
कर्म भूमि रूस
कर्म-क्षेत्र रसायन विज्ञान
शिक्षा रसायन विज्ञान में डॉक्टरेट
प्रसिद्धि रसायनशास्त्री
नागरिकता रूसी
संबंधित लेख आवर्त सारणी, अवधि (आवर्त सारणी), समूह (आवर्त सारणी)
अन्य जानकारी आवर्त सारणी की रचना रसायन विज्ञान की यात्रा में बहुत बड़ा पड़ाव माना जाता है। 1869 में अस्तित्व में आई इस सारणी ने दुनिया भर में हो रहे रासायनिक तत्वों के अध्ययन को तरतीब में लाने का बहुत बड़ा काम किया था।

दमित्री इवानोविच मेंडलीव (अंग्रेज़ी: Dmitri Ivanovich Mendeleev, जन्म- 8 फ़रवरी, 1834, तोबोलोस्क, साइबेरिया; मृत्यु- 2 फ़रवरी, 1907, सेंट पीटर्सबर्ग) एक रूसी रसायन वैज्ञानिक थे। उन्हें सबसे बेहतरीन तत्वों की आधुनिक आवर्त सारणी तैयार करने के लिए जाना जाता है। दमित्री मेंडलीव ने और भी कई क्षेत्रों में अपना प्रमुख योगदान दिया, जैसे- मैट्रोलॉजी (माप के अध्ययन), कृषि और उद्योग। मेंडलीव ने 'रसायन सिद्धांत' नाम से एक पुस्तक 1905 ई. में लिखी, जिसके अनुवाद सभी प्रमुख भाषाओं में किए गए। उन्होंने भूगर्भ विज्ञान, भूभौतिकी आदि पर भी कार्य किया। उन्होंने अपने देश को उद्योग तथा रसायन संबंधी अनेक बातों पर अमूल्य सुझाव दिए।

परिचय

पीरियोडिक टेबल यानी आवर्त सारणी की रचना रसायन विज्ञान की यात्रा में बहुत बड़ा पड़ाव माना जाता है। 1869 में अस्तित्व में आई इस सारणी ने दुनिया भर में हो रहे रासायनिक तत्वों के अध्ययन को तरतीब में लाने का बहुत बड़ा काम किया था। इसके बाद ही तमाम रासायनिक तत्वों के गुणों का सामूहिक अध्ययन संभव हो सका। आज विज्ञान के शुरुआती स्कूली पाठ्यक्रमों को इसी से शुरू किया जाता है। इस कारनामे को अंजाम देने वाले रूसी वैज्ञानिक दमित्री मेंडलीव के जीवन की कहानी किसी अजूबे से कम नहीं है।

जन्म

दमित्री मेंडलीव का जन्म 8 फ़रवरी, 1834 में साइबेरिया के सुदूर पश्चिम में मौजूद एक नगर तोबोलोस्क में हुआ था। उनके पिता एक स्थानीय स्कूल के हेडमास्टर थे जबकि उनकी माता मारिया सामान्य गृहिणी। यह बहुत सारे बच्चों वाला बहुत बड़ा परिवार था। कुछ सूत्र बताते हैं कि दमित्री मेंडलीव के चौदह भाई-बहन थे तो कुछ के अनुसार यह संख्या सत्रह थी। इस एक बात पर सभी सूत्र अलबत्ता एकमत हैं कि दमित्री मेंडलीव परिवार के सबसे छोटे सदस्य थे। यह एक पढ़ा-लिखा और ठीक-ठाक संपन्न परिवार था।

आर्थिक परेशानियाँ

दमित्री मेंडलीव के जन्म के थोड़े ही समय के बाद उनके पिता मोतियाबिंद बिगड़ने के कारण अंधे हो गए। घर पर खाने के लाले पड़े तो उनकी माता ने बाहर काम करना शुरू कर दिया। वे नजदीक के एक शहर आरेमजियान्का में कांच बनाने वाली एक सफल फैक्ट्री में छोटे से पद पर काम करना शुरू करने के बाद धीरे-धीरे मैनेजर के पद पर पहुँच गयी थीं। दमित्री मेंडलीव अपनी माता को कारखाने में काम करता देखते थे जहाँ बालू और चूने के पत्थरों को आग में गलाकर रंग-बिरंगा कांच बनाया जाता था। संभवतः चीजों के रूपांतरण की इस आकर्षक प्रक्रिया ने बालक दमित्री के मन को रसायन विज्ञान की तरफ खींचना शुरू कर दिया होगा। अपने जीवन के बाद के वर्षों में दमित्री मेंडलीव कांच से बनी चीजों की एक तस्वीर को अपने दफ्तर की दीवार पर हमेशा टाँगे रहते थे।

मॉस्को आगमन

घर ठीक-ठाक चल रहा था जब साल 1848 में इस फैक्ट्री में आग लग गयी। परिवार फिर से निर्धनता के मुहाने पर आ खड़ा हुआ। दमित्री मेंडलीव की माँ बहुत बहादुर और समझदार महिला थीं। उन्होंने शुरू से गौर किया हुआ था कि उनका सबसे छोटा बेटा पढ़ने-लिखने के मामले में सभी भाई-बहनों में अव्वल था। सो वे किसी भी कीमत पर अपने इस बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए कटिबद्ध थीं। मारिया मेंडलीवा नाम की इस मजबूत औरत ने अपने इस सबसे छोटे बेटे को सात साल की आयु तक घर में ही पढ़ाया और उसकी शिक्षा के लिए बिलकुल शुरुआत से थोड़ा-थोड़ा पैसा छिपाकर बचाना शुरू कर दिया था। उनके सामने दो रास्ते थे- या तो किसी और जगह काम ढूंढें या दमित्री मेंडलीव की प्रतिभा के लिए कुछ करें। उन्होंने दूसरा रास्ता चुना और अपने नगर से कोई ढाई हजार मील दूर मास्को जाने का फैसला किया। दमित्री और एक बेटी एलिजाबेथ को छोड़कर उनके बाकी बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे, सो इस फैसले को लेने में उन्हें वैसी दिक्कत नहीं हुई जैसी दस साल पहले हो सकती थी।

शिक्षा हेतु संघर्ष

यह 1849 का वाकया है और उन दिनों रेलगाड़ियां चलना शुरू नहीं हुई थीं। यह कल्पना कर सकते हैं कि अपने दो बच्चों के साथ कभी स्लेजगाड़ियों तो कभी घोड़ा गाड़ियों से लिफ्ट मांगती, कभी यूराल पर्वत के वीरान विस्तार में पैदल चलती, अपने जीवन भर की कमाई साथ लेकर चल रही उस माँ के भीतर अपने बेटे को पढ़ाने की इच्छा किस कदर धधक रही होगी। मास्को तक की यात्रा चार से छह हफ़्तों में निबटी। मास्को विश्वविद्यालय पहुँचने पर उन्हें गहरी निराशा हाथ लगी, जब दमित्री मेंडलीव को प्रवेश नहीं मिला और उन्हें वापस तोबोलोस्क जाने और वहीं के स्थानीय विश्वविद्यालय में पढ़ने की राय दी गयी। मारिया का भाई मास्को में रहता था। उसने भी प्रवेश दिलाने में मदद करने की कोशिश की लेकिन कुछ नहीं हो सका।

मारिया मेंडलीवा हार मानने वाली नहीं थी। उन्होंने अपने बेटे को किसी भी कीमत पर एक बेहतरीन यूनिवर्सिटी में पढ़ाने भेजना था। मास्को के बाद अगला विकल्प था वहां से करीब सात सौ किलोमीटर दूर सेंट पीटर्सबर्ग का विश्वविद्यालय। कुछ महीने मास्को में रहने के बाद जल्द ही एक माँ और उसके दो बच्चों का छोटा सा समूह एक दूसरी और वैसी ही मुश्किल यात्रा पर निकल पड़ा। सेंट पीटर्सबर्ग में भी उन्हें निराश होना पड़ा। वहां के महान विश्वविद्यालय ने भी दमित्री मेंडलीव को एडमिशन नहीं दिया। अब बहुत कम विकल्प बचे थे। सो किसी तरह, समझौता कर मारिया ने अपने बेटे का दाखिला वहां के मुख्य शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान में करवा दिया, जहाँ कभी दमित्री मेंडलीव के पिता इवान पावलोविच मेंडलीव ने भी पढ़ाई की थी। पिछले कुछ सालों से इस संस्थान ने अपना ध्यान शिक्षक-प्रशिक्षण को छोड़ स्वतंत्र शोध पर देना शुरू किया हुआ था और इसके अलावा संस्थान की इमारत सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय के परिसर में ही थी। मारिया ने दमित्री मेंडलीव को गणित और भौतिक विज्ञान विषय दिला दिए। देश-दुनिया के बड़े वैज्ञानिक यहाँ भाषण देने आया करते थे। यह माहौल दमित्री मेंडलीव की प्रतिभा के हिसाब से बहुत मुफीद था और उसमें लगातार निखार आता चला गया।

माँ-बहन का निधन

पिछले दो-तीन साल मारिया मेंडलीवा के जीवन में बेहद कठिन और मशक्कत वाले रहे थे। इसका खामियाजा उनकी देह को उठाना पड़ा और सितम्बर 1850 में टीबी से उनकी मृत्यु हो गयी। दमित्री मेंडलीव को शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थान में दाखिला उसी साल मिला था। कुछ ही महीने बाद दमित्री की बहन एलिजाबेथ की मौत भी उसी बीमारी से हुई। खुद दमित्री मेंडलीव भी टीबी से संक्रमित हुए और डॉक्टर ने यहाँ तक कह दिया था कि उनके बचने की उम्मीद कम है लेकिन चमत्कारिक तरीके से वे बच गए। इस दोहरे आक्रमण ने उन्हें तोड़कर रख दिया, लेकिन उन्होंने अपनी माँ का बेटा होने का फर्ज निभाना था।

रसायन में डाक्टरेट की डिग्री

दमित्री मेंडलीव ने उसी संस्थान में अध्ययन जारी रखा और रसायन विज्ञान में डाक्टरेट की डिग्री हासिल की। वहीं रहते हुए उन्हें परमाणु के भार के सम्बन्ध में विख्यात वैज्ञानिक कैनिजारो का भाषण सुनने को मिला, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने पीरियोडिक टेबल की परिकल्पना पर काम करना शुरू कर दिया। उनसे पहले इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक जॉन न्यूलैंड्स ने इस विषय में थोड़ा काम किया था; लेकिन उसमें काफी गंभीर दोष थे। 1869 में दमित्री मेंडलीव ने आधुनिक विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक को किस तरह हासिल किया, वह एक अलग बड़ी कहानी है। फिलहाल यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी माँ के भीतर यदि वैसी हिम्मत और दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं होती तो दमित्री मेंडलीव का क्या बनता, कहा नहीं जा सकता।

पुस्तक प्रकाशन व भूमिका

स्वयं एक पढ़े-लिखे परिवार से सम्बन्ध रखने वाली दमित्री मेंडलीव की माँ ने अपने सभी बच्चों को बचपन से ही काग़ज़ पर लिखे शब्दों की इज्जत करने का पाठ सिखाया था। मेंडलीव को अहसास था कि उनकी माँ ने उनके लिए क्या किया था। जब 1887 में वे उसी सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे, जिसने उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया था, उन्होंने अपनी पहली बड़ी किताब प्रकाशित करवाई। इस किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा-

"यह शोध एक माँ की स्मृति को उसके सबसे छोटी संतान द्वारा समर्पित है। एक फैक्ट्री चलाती हुई वह खुद अपने काम से उसे सिखाया करती थी। वह मिसालें देकर सबक सिखाती थी, मोहब्बत से सुधारती थी और अपनी उस संतान को विज्ञान पढ़ाने के लिए वह उसे लेकर साइबेरिया से एक लम्बे सफ़र पर निकल पड़ी। इस काम में उसकी आख़िरी पाई और ताकत लग गयी। जब वह मर रही थी उसने कहा था- संशय से बचना और काम करने पर जोर देना न कि शब्दों पर। धीरज के साथ परम वैज्ञानिक सत्य की तलाश करते जाना।"

अपने पूरे जीवन काल में अपने बेतरतीब बालों और दाढ़ी के कारण दूर से पहचाने जाने वाले दमित्री मेंडलीव को उनके काम की तरतीब और गुणवत्ता के लिए जाना गया। आज पीरियोडिक टेबल के बिना रासायनिक शोधों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। दमित्री मेंडलीव की महान माँ के उस जज्बे की कल्पना अवश्य की जा सकती है, जिसने हर छोटी-बड़ी मुश्किल का सामना कर अपने पुत्र की प्रतिभा की हिफाजत की। उन्होंने अपनी जान तक दे दी, लेकिन यह सुनिश्चित किया कि वह प्रतिभा उन कामों को अंजाम दे सके जिसके वह लायक थी।

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