"पंच प्यारे": अवतरणों में अंतर

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सभा में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। गुरुजी ने फिर कहा- "क्या देवी की माँग पूरी नहीं होगी?" तभी एक तीस वर्षीय तरुण उठा और बोला- "मैं अपना सिर देवी को भेंट करने को तैयार हूँ।" यह [[लाहौर]] के निवासी भाई दयाराम खत्री थे। गुरु गोविन्द सिंह उन्हें एक तंबू में ले गये और एक मुहूर्त ही में लोगों ने तंबू के बाहर [[रक्त]] की धारा बहते हुए देखी। गुरु गोविन्द सिंह फिर हाथ में रक्त से सनी तलवार लेकर आये और बोले- "देवी और बलिदान चाहती हैं। क्या दूसरा कोई व्यक्ति अपना सिर देने को तैयार है?" तभी तैंतीस वर्षीय [[दिल्ली]] निवासी [[भाई धर्म सिंह|भाई धर्मसिंह जाट]] ने आगे आकर सिर झुका दिया। गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गये और रक्त की दूसरी धार बहती दिखाई दी। तीसरी बार गुरुजी ने आकर फिर वही माँग की। अब की बार 36 वर्षीय मोहकमचंद धोबी आगे आये। गुरु उनको भी तंबू में ले गये और एक बार फिर तंबू के बाहर रक्त की धार बहती दिखाई दी। इसी प्रकार गुरु गोविन्द सिंह ने दो बार और आकर बलिदान की माँग की और दोनों बार क्रम से सैंतीस वर्षीय [[बीदर]] निवासी भाई साहबचंद नाई और 38 वर्षीय जगन्नाथ निवासी भाई हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर देना स्वीकार किया और दोनों की वही दशा हुई जो प्रथम तीन की हुई थी। इस बलिदान भावना से सारा जनसमूह उमड़ पड़ा और गुरुजी से कहने लगा कि- "हमारा सिर लीजिए, हमारा सिर लीजिए"।<ref name="aa"/>
सभा में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। गुरुजी ने फिर कहा- "क्या देवी की माँग पूरी नहीं होगी?" तभी एक तीस वर्षीय तरुण उठा और बोला- "मैं अपना सिर देवी को भेंट करने को तैयार हूँ।" यह [[लाहौर]] के निवासी भाई दयाराम खत्री थे। गुरु गोविन्द सिंह उन्हें एक तंबू में ले गये और एक मुहूर्त ही में लोगों ने तंबू के बाहर [[रक्त]] की धारा बहते हुए देखी। गुरु गोविन्द सिंह फिर हाथ में रक्त से सनी तलवार लेकर आये और बोले- "देवी और बलिदान चाहती हैं। क्या दूसरा कोई व्यक्ति अपना सिर देने को तैयार है?" तभी तैंतीस वर्षीय [[दिल्ली]] निवासी [[भाई धर्म सिंह|भाई धर्मसिंह जाट]] ने आगे आकर सिर झुका दिया। गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गये और रक्त की दूसरी धार बहती दिखाई दी। तीसरी बार गुरुजी ने आकर फिर वही माँग की। अब की बार 36 वर्षीय मोहकमचंद धोबी आगे आये। गुरु उनको भी तंबू में ले गये और एक बार फिर तंबू के बाहर रक्त की धार बहती दिखाई दी। इसी प्रकार गुरु गोविन्द सिंह ने दो बार और आकर बलिदान की माँग की और दोनों बार क्रम से सैंतीस वर्षीय [[बीदर]] निवासी भाई साहबचंद नाई और 38 वर्षीय जगन्नाथ निवासी भाई हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर देना स्वीकार किया और दोनों की वही दशा हुई जो प्रथम तीन की हुई थी। इस बलिदान भावना से सारा जनसमूह उमड़ पड़ा और गुरुजी से कहने लगा कि- "हमारा सिर लीजिए, हमारा सिर लीजिए"।<ref name="aa"/>
==पंच प्यारे की उपाधि==
==पंच प्यारे की उपाधि==
इसके बाद वहाँ उपस्थित लोगों ने देखा कि वे पांचों वीर बलिदानी संदुर वेषभूषा में तलवार लिए [[गुरु गोविन्द सिंह]] के साथ सभा मंच पर आ गये। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वास्तविक बात यह थी कि गुरु गोविन्द सिंह ने उन बलिदानियों के स्थान पर पाँच बकरों को मारकर लोगों के धैर्य तथा दृढ़ता की परीक्षा ली थी। उनका यह प्रयोग सफल हुआ और जन गण की बलिदान की भावना अटल तथा अविचल हो गई। उसी समय गुरु गोविन्द सिंह ने उन पाँचों को '''पंच प्यारे''' की उपाधि देकर 'सिंह' पद से उनके नाम विभूषित कर जनसमुदाय को निर्देश दिया कि- "आज से आप लोग आपसी वीर भावना के लिए सिंह कहलाएंगे और अपने उद्देश्य के अनुरूप कृपाण, कड़ा, केश, कंघा और कच्छा, ये पाँच चिह्न सदैव अपने पास रखेंगे।" वे पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग-अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिलाकर गुरु गोविन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसने जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।
इसके बाद वहाँ उपस्थित लोगों ने देखा कि वे पांचों वीर बलिदानी सुन्दर वेषभूषा में तलवार लिए [[गुरु गोविन्द सिंह]] के साथ सभा मंच पर आ गये। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वास्तविक बात यह थी कि गुरु गोविन्द सिंह ने उन बलिदानियों के स्थान पर पाँच बकरों को मारकर लोगों के धैर्य तथा दृढ़ता की परीक्षा ली थी। उनका यह प्रयोग सफल हुआ और जन गण की बलिदान की भावना अटल तथा अविचल हो गई। उसी समय गुरु गोविन्द सिंह ने उन पाँचों को '''पंच प्यारे''' की उपाधि देकर 'सिंह' पद से उनके नाम विभूषित कर जनसमुदाय को निर्देश दिया कि- "आज से आप लोग आपसी वीर भावना के लिए सिंह कहलाएंगे और अपने उद्देश्य के अनुरूप कृपाण, कड़ा, केश, कंघा और कच्छा, ये पाँच चिह्न सदैव अपने पास रखेंगे।" वे पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग-अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिलाकर गुरु गोविन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसने जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।


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13:48, 21 मार्च 2014 के समय का अवतरण

पंच प्यारे वह पाँच वीर व्यक्ति थे, जिनसे गुरु गोविन्द सिंह ने बलिदान स्वरूप उनका शीश माँगा था। गुरु गोविन्द सिंह सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु थे। उन्होंने देवी दुर्गा के एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन करवाया। इस यज्ञ में गुरुजी ने ऊँच-नीच और जाति-पाति का कोई भेद नहीं रखा। यज्ञ में विशाल जनसमूह उपस्थित था। गुरु गोविन्द सिंह ने लोगों को धर्म की रक्षा और देश की आज़ादी के लिए प्रेरणा प्रदान की। गुरुजी ने जनभावना को परखने के लिए समस्त जनसमूह के समक्ष शीश की माँग की और जिन पाँच वीरों ने गुरु गोविन्द सिंह के लिए अपने शीश भेंट किये, वे 'पंच प्यारे' नाम से विख्यात हुए।

यज्ञ आयोजन

गुरु गोविन्द सिंह ने भगवती दुर्गा का जो विशाल यज्ञ आयोजित करवाया, उसमें देश के बड़े-बड़े पंडित ही नहीं, अपितु हर जाति और धर्म का व्यक्ति उपस्थित था। यज्ञ में गुरुजी ने धर्म की रक्षा के लिए निर्मित उनके संगठन को सहयोग करने की प्रेरणा दी। इस यज्ञ में लोगों ने गुरु गोविन्द सिंह को लाखों का धन और हज़ारों घोड़े, अस्त्र-शस्त्र तथा प्रचुर युद्ध सामग्री भेंट की और आगे भविष्य में भी तन, मन, धन और जन से सहायता करने की प्रतिज्ञा की। यज्ञ पूरा करने पर गुरु गोविन्द सिंह ने जनसमूह के सम्मुख आकर कहा- "अब आप लोग इस यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी भगवती दुर्गा के दर्शन कर लीजिए, आज जिसकी उपासना करने से ही धर्म और जाति की रक्षा हो सकती है।[1] इतना कहकर उन्होंने अपनी तलवार निकाल कर चमकाई और फिर कहा-

"धर्म रक्षा में उठाई योद्धा की कृपाण ही भगवती दुर्गा का सच्चा स्वरूप होती है। सत की रक्षा और असत के विनाश के लिए उठाई हुई तलवार में भगवती की शक्ति और देवी का तेज समाहित हो जाता है। जो वीर पवित्रता के साथ इस शक्ति का प्रयोग करता है, वह इस जीवन में विजयी होता है और उत्सर्ग हो जाने के बाद परधाम पाता है। इसलिए जब तक धर्म सुरक्षित नहीं हो जाता, देश से अनीति तथा अत्याचार का उन्मूलन नहीं हो जाता, तब तक आप सबको और अन्य सभी को इसी साक्षात तलवार भवानी की उपासना करनी है।"

गुरु गोविन्द सिंह के इस यज्ञ और उद्घोष ने जन-जन के हृदय में वीरता, उत्साह और साहस का सागर लहरा दिया और सबने अपनी-अपनी कृपाण निकालकर धर्म के नाम पर मर मिटने की प्रतिज्ञा की।

गुरु गोविन्द की माँग

14 अप्रैल, 1699 को गुरु गोविन्द सिंह ने धर्माभियान प्रारंभ करने से पूर्व बुद्धिमान जन भावना की परख करने के विचार से संवत 1955 के चैत्र मास में एक बड़ा विराट समारोह किया और उसमें सभी को भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। उस उत्सव में हज़ारों लोग आये। गुरु गोविन्द सिंह ने उनका आदर, सत्कार किया और उनके भोजन तथा विश्राम निवास का समुचित प्रबंध किया। प्रमुख सभा के दिन गुरु गोविन्द सिंह जनसमुदाय के सम्मुख नंगी तलवार लिए हुए आये और बोले- "भाइयों, आज देवी दुर्गा ने बलिदान माँगा है। क्या आप में से कोई ऐसा वीर है, जो देवी की प्रसन्नता के लिए अपना सिर दे सके?"[1]

पाँच वीरों का बलिदान

सभा में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। गुरुजी ने फिर कहा- "क्या देवी की माँग पूरी नहीं होगी?" तभी एक तीस वर्षीय तरुण उठा और बोला- "मैं अपना सिर देवी को भेंट करने को तैयार हूँ।" यह लाहौर के निवासी भाई दयाराम खत्री थे। गुरु गोविन्द सिंह उन्हें एक तंबू में ले गये और एक मुहूर्त ही में लोगों ने तंबू के बाहर रक्त की धारा बहते हुए देखी। गुरु गोविन्द सिंह फिर हाथ में रक्त से सनी तलवार लेकर आये और बोले- "देवी और बलिदान चाहती हैं। क्या दूसरा कोई व्यक्ति अपना सिर देने को तैयार है?" तभी तैंतीस वर्षीय दिल्ली निवासी भाई धर्मसिंह जाट ने आगे आकर सिर झुका दिया। गुरुजी उन्हें भी तंबू में ले गये और रक्त की दूसरी धार बहती दिखाई दी। तीसरी बार गुरुजी ने आकर फिर वही माँग की। अब की बार 36 वर्षीय मोहकमचंद धोबी आगे आये। गुरु उनको भी तंबू में ले गये और एक बार फिर तंबू के बाहर रक्त की धार बहती दिखाई दी। इसी प्रकार गुरु गोविन्द सिंह ने दो बार और आकर बलिदान की माँग की और दोनों बार क्रम से सैंतीस वर्षीय बीदर निवासी भाई साहबचंद नाई और 38 वर्षीय जगन्नाथ निवासी भाई हिम्मतराय कुम्हार ने अपना सिर देना स्वीकार किया और दोनों की वही दशा हुई जो प्रथम तीन की हुई थी। इस बलिदान भावना से सारा जनसमूह उमड़ पड़ा और गुरुजी से कहने लगा कि- "हमारा सिर लीजिए, हमारा सिर लीजिए"।[1]

पंच प्यारे की उपाधि

इसके बाद वहाँ उपस्थित लोगों ने देखा कि वे पांचों वीर बलिदानी सुन्दर वेषभूषा में तलवार लिए गुरु गोविन्द सिंह के साथ सभा मंच पर आ गये। लोगों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वास्तविक बात यह थी कि गुरु गोविन्द सिंह ने उन बलिदानियों के स्थान पर पाँच बकरों को मारकर लोगों के धैर्य तथा दृढ़ता की परीक्षा ली थी। उनका यह प्रयोग सफल हुआ और जन गण की बलिदान की भावना अटल तथा अविचल हो गई। उसी समय गुरु गोविन्द सिंह ने उन पाँचों को पंच प्यारे की उपाधि देकर 'सिंह' पद से उनके नाम विभूषित कर जनसमुदाय को निर्देश दिया कि- "आज से आप लोग आपसी वीर भावना के लिए सिंह कहलाएंगे और अपने उद्देश्य के अनुरूप कृपाण, कड़ा, केश, कंघा और कच्छा, ये पाँच चिह्न सदैव अपने पास रखेंगे।" वे पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग-अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिलाकर गुरु गोविन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसने जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 पंच प्यारे (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 08 अगस्त, 2013।

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