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06:00, 15 दिसम्बर 2016 के समय का अवतरण

रुद्रट (अंग्रेज़ी: Rudrata) हिन्दी के प्रसिद्ध आचार्य थे, जिन्हें अलंकार संप्रदाय का प्रमुख आचार्य माना जाता है। ये 'काव्यालंकार' नामक ग्रन्थ के रचयिता तथा संस्कृत साहित्य के एक प्रसिद्ध आचार्य थे, जो 'रुद्रभ' और 'शतानंद' भी कहलाते थे।

  • अलंकारों के क्रमविकास के साथ रुद्रट ने उनका चार वर्गों में विभाजन किया और इस वर्गीकरण के औचित्य का विज्ञानसम्मत प्रतिपादन किया। रुद्रट ने काव्य में रसदोष को 'विरस' नाम से अभिहित किया है।
  • उनके ग्रंथ का नाम 'काव्यालंकार' है, जो विषय की दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। इसमें काव्य के प्राय: सभी अंगों पर विचार किया गया है। ग्रंथ सोलह अध्यायों में पूर्ण है। प्रथमाध्याय में काव्य-प्रयोजन और काव्य हेतु, द्वितीय में काव्य लक्षण, रीति, भाषाभेद, वक्रोक्ति आदि तीन शब्दालंकार, तृतीय चतुर्थ में क्रमश: यमक और श्लेष, पाँचवें में चित्रकाव्य, छठे में शब्ददोष एवं उनका परिहार, सात से दस तक के चार अध्यायों में अर्थालंकार निरूपण, 11वें में अर्थालंकार निरूपण, 11वें में ही अर्थालंकार दोष, बारह से पंद्रह तक के चार अध्यायों में रस आदि का निरूपण विवेचन और सोलहवें अध्याय में महाकाव्य, प्रबंध आदि का लक्षण विवेचन किया गया है। ग्रंथ की पद्य संख्या 734 है और ग्रंथागत सभी उदाहरण ग्रंथकार द्वारा स्वयं निर्मित हैं।
  • रुद्रट ने अलंकारों के चार मूल तत्वों के वास्तव वर्ग में 23, औपम्य वर्ग में 21, अतिशय वर्ग में 12 और श्लेष वर्ग में एक अलंकार माना है। इस प्रकार भाषा वृत्ति, रीति एवं रसादि संबंधी मीमांसा से युक्त होने पर भी अलंकारों का सुव्यवस्थित वर्णन और उनकी समीक्षा ही ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है।
  • अलंकारवादी होते हुए भी आचार्य रुद्रट रसौचित्य के सिद्धांत के समीक्षक रूप में सामने आते हैं। रस के परितोष के लिए ही इन्होंने अलंकारों की सत्ता मानी है।
  • काव्यालंकार के दूसरे अध्याय में अनुप्रास अलंकार की पाँच जातियों का विवरण और काव्य में उनके प्रयोग वाले प्रकरण में उन्होंने मुख्यत: औचित्य की सत्ता को स्वीकार किया है।


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