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|संबंधित लेख=[[राममोहन राय राजा|राजा राममोहन राय]], [[दयानंद सरस्वती|स्वामी दयानंद सरस्वती]], [[रामकृष्ण परमहंस|स्वामी रामकृष्ण परमहंस]], [[विवेकानन्द|स्वामी विवेकानन्द]], [[स्वामी रामतीर्थ]], [[बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य तिलक]], [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर]], [[योगी अरविन्द]], [[महात्मा गांधी]]
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|अन्य जानकारी= आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी [[लाहौर]] में थी, यद्यपि [[अजमेर]] में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह [[लाहौर]] का प्रतिद्वन्द्वी था।  लाहौर के [[पाकिस्तान]] में चले जाने के पश्चात आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल [[दिल्ली]] है।
|अन्य जानकारी= आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी [[लाहौर]] में थी, यद्यपि [[अजमेर]] में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह [[लाहौर]] का प्रतिद्वन्द्वी था।  लाहौर के [[पाकिस्तान]] में चले जाने के पश्चात् आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल [[दिल्ली]] है।
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'''आर्य समाज''' उन्नीसवीं [[शताब्दी]] का [[भारतीय इतिहास]] और [[साहित्य]] में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इतना व्यापक और सूक्ष्म परिवर्तन मध्ययुग में [[इस्लाम धर्म]] के सम्पर्क के फलस्वरूप भी न हुआ था। एक ओर तो [[भारत|भारतवर्ष]] उन्नीसवीं शताब्दी में एक सुदूर स्थित पाश्चात्य जाति का दास बना और दूसरी ओर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा वैज्ञानिक आविष्कारों से लाभ उठाकर उसने नवीन चेतना प्राप्त की और मध्ययुगीन एवं अनेक पौराणिक कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा परम्पराओं से बद्ध जीवन का आलस्य छोड़कर स्फूर्ति प्राप्त की।  इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह स्फूर्ति और चेतना, राजनीतिक एवं आर्थिक दासत्व की परिस्थिति में, पूर्व और पश्चिम के बीच संघर्ष के रूप में अर्थात भारतीय आध्यात्मिकता और पाश्चात्य भौतिकता के संघर्ष के रूप में, अभिव्यक्त हुई।  राजनीतिक और आर्थिक चेतना उसी चेतना का अशंमात्र थी।  यही पूर्व और पश्चिम का संघर्ष था, जिसने [[राममोहन राय राजा|राजा राममोहन राय]], [[दयानंद सरस्वती|स्वामी दयानंद सरस्वती]], [[रामकृष्ण परमहंस|स्वामी रामकृष्ण परमहंस]], [[विवेकानन्द|स्वामी विवेकानन्द]] , [[स्वामी रामतीर्थ]], [[बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य तिलक]], [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|रवीन्द्रनाथ ठाकुर]], [[योगी अरविन्द]] और [[महात्मा गांधी]] को जन्म दिया।
'''आर्य समाज''' उन्नीसवीं [[शताब्दी]] का [[भारतीय इतिहास]] और [[साहित्य]] में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इतना व्यापक और सूक्ष्म परिवर्तन मध्ययुग में [[इस्लाम धर्म]] के सम्पर्क के फलस्वरूप भी न हुआ था। एक ओर तो [[भारत|भारतवर्ष]] उन्नीसवीं शताब्दी में एक सुदूर स्थित पाश्चात्य जाति का दास बना और दूसरी ओर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा वैज्ञानिक आविष्कारों से लाभ उठाकर उसने नवीन चेतना प्राप्त की और मध्ययुगीन एवं अनेक पौराणिक कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा परम्पराओं से बद्ध जीवन का आलस्य छोड़कर स्फूर्ति प्राप्त की।  इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह स्फूर्ति और चेतना, राजनीतिक एवं आर्थिक दासत्व की परिस्थिति में, पूर्व और पश्चिम के बीच संघर्ष के रूप में अर्थात् भारतीय आध्यात्मिकता और पाश्चात्य भौतिकता के संघर्ष के रूप में, अभिव्यक्त हुई।  राजनीतिक और आर्थिक चेतना उसी चेतना का अशंमात्र थी।  यही पूर्व और पश्चिम का संघर्ष था, जिसने [[राममोहन राय राजा|राजा राममोहन राय]], [[दयानंद सरस्वती|स्वामी दयानंद सरस्वती]], [[रामकृष्ण परमहंस|स्वामी रामकृष्ण परमहंस]], [[विवेकानन्द|स्वामी विवेकानन्द]] , [[स्वामी रामतीर्थ]], [[बाल गंगाधर तिलक|लोकमान्य तिलक]], [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|रवीन्द्रनाथ ठाकुर]], [[योगी अरविन्द]] और [[महात्मा गांधी]] को जन्म दिया।
==पाश्चात्य प्रभाव==
==पाश्चात्य प्रभाव==
एक ओर तो पश्चिम के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और कला का पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा अनुदिन बढ़ता हुआ अध्ययन था। हाजसन, बोत्लिक, [[मैक्समूलर]], प्रिंसेप, [[कनिंघम]], एड-विन आर्नाल्ड आदि की खोजों और रचनाओं का भारतवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा।  उन्हें अपने पूर्वजों की महत्ता का परिचय प्राप्त हुआ।  '[[थियोसोफ़िकल सोसाइटी]]' (1875 ई.) ने भी देशवासियों का देश के प्राचीन गौरव की ओर ध्यान आकृष्ट किया।  इन सब कारणों से बढ़ते हुए पश्चिमी प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना और [[भारत]] की प्राचीन गरिमा की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था।  इस प्रतिक्रिया ने विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण अवश्य अपनाया, किन्तु उद्देश्य विशुद्धवादियों का भी भारतीय जीवन का परिष्कार करना था। इस दृष्टिकोण का ज्वलन्त उदाहरण आर्य समाज आन्दोलन है। इस आन्दोलन ने [[हिन्दू धर्म]] का पुनरूद्धार करने का महान प्रयास किया।[[चित्र:Arya-Samaj-Mathura-6.jpg|thumb|left|आर्य समाज महासम्मेलन, [[मथुरा]]]]
एक ओर तो पश्चिम के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और कला का पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा अनुदिन बढ़ता हुआ अध्ययन था। हाजसन, बोत्लिक, [[मैक्समूलर]], प्रिंसेप, [[कनिंघम]], एड-विन आर्नाल्ड आदि की खोजों और रचनाओं का भारतवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा।  उन्हें अपने पूर्वजों की महत्ता का परिचय प्राप्त हुआ।  '[[थियोसोफ़िकल सोसाइटी]]' (1875 ई.) ने भी देशवासियों का देश के प्राचीन गौरव की ओर ध्यान आकृष्ट किया।  इन सब कारणों से बढ़ते हुए पश्चिमी प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना और [[भारत]] की प्राचीन गरिमा की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था।  इस प्रतिक्रिया ने विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण अवश्य अपनाया, किन्तु उद्देश्य विशुद्धवादियों का भी भारतीय जीवन का परिष्कार करना था। इस दृष्टिकोण का ज्वलन्त उदाहरण आर्य समाज आन्दोलन है। इस आन्दोलन ने [[हिन्दू धर्म]] का पुनरूद्धार करने का महान् प्रयास किया।[[चित्र:Arya-Samaj-Mathura-6.jpg|thumb|left|आर्य समाज महासम्मेलन, [[मथुरा]]]]
==आर्य समाज की स्थापना==
==आर्य समाज की स्थापना==
[[दयानंद सरस्वती]] ने संभवत: 7 या 10 अप्रैल सन्‌ [[1875]] ई. को [[बम्बई]] में आर्य समाज की स्थापना की<ref name="satyarth">[[वर्ष]] [[1875]] निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में [[सत्यार्थ प्रकाश]], इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये</ref>। इसका उद्देश्य [[वैदिक धर्म]] को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, [[भारत]] को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में [[गुजरात]] के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम 'स्वामी दयानन्द सरस्वती' रखा। ज्ञान की खोज में भटकने के बाद 1861 ई. में स्वामी ने दयानंद को [[वेद|वेंदों]] की दार्शनिक व्याख्या का परिचय कराया। दयानन्द ने इन्हें गुरु बना लिया। वेदों और भारतीय [[दर्शन]] के गहन अध्ययन के बाद स्वामी जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि [[आर्य]] श्रेष्ठ हैं, वेद ही ईश्वरी ज्ञान है तथा भारत भूमि ही श्रेष्ठ है।
[[दयानंद सरस्वती]] ने संभवत: 7 या 10 अप्रैल सन्‌ [[1875]] ई. को [[बम्बई]] में आर्य समाज की स्थापना की<ref name="satyarth">[[वर्ष]] [[1875]] निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में [[सत्यार्थ प्रकाश]], इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये</ref>। इसका उद्देश्य [[वैदिक धर्म]] को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, [[भारत]] को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में [[गुजरात]] के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम 'स्वामी दयानन्द सरस्वती' रखा। ज्ञान की खोज में भटकने के बाद 1861 ई. में स्वामी ने दयानंद को [[वेद|वेंदों]] की दार्शनिक व्याख्या का परिचय कराया। दयानन्द ने इन्हें गुरु बना लिया। वेदों और भारतीय [[दर्शन]] के गहन अध्ययन के बाद स्वामी जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि [[आर्य]] श्रेष्ठ हैं, वेद ही ईश्वरी ज्ञान है तथा भारत भूमि ही श्रेष्ठ है।
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;स्थानीय सदस्य
;स्थानीय सदस्य
स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-
स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-
*प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात अस्थायी सदस्य;
*प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् अस्थायी सदस्य;
*द्वितीय, जिन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति दर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है।
*द्वितीय, जिन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति दर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है।
;स्थानीय समाज के पदाधिकारी
;स्थानीय समाज के पदाधिकारी
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प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रतिनिधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं।  स्थानीय समाज के प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका गठन प्रतिनिधिमूलक है।
प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रतिनिधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं।  स्थानीय समाज के प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका गठन प्रतिनिधिमूलक है।
==पूजा पद्धति==
==पूजा पद्धति==
साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक [[रविवार]] को प्रात: होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन छुट्टी पर होते हैं।  यह सत्संग तीन या चार घण्टे का होता है।  भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ प्रारम्भ होती है।  साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है। पश्चात प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाज गान से होता है। इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य सदस्य अपने क्रम से प्रधान-वक्ता या पूजा-संचालक का स्थान ग्रहण करते हैं।
साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक [[रविवार]] को प्रात: होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन छुट्टी पर होते हैं।  यह सत्संग तीन या चार घण्टे का होता है।  भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ प्रारम्भ होती है।  साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है। पश्चात् प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाज गान से होता है। इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य सदस्य अपने क्रम से प्रधान-वक्ता या पूजा-संचालक का स्थान ग्रहण करते हैं।
==कार्यप्रणाली==
==कार्यप्रणाली==
आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के समान भाषण, शिक्षा, समाचार, पत्र आदि की सहायता से अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक है-  
आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के समान भाषण, शिक्षा, समाचार, पत्र आदि की सहायता से अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक है-  
*प्रथम वेतनभोगी और  
*प्रथम वेतनभोगी और  
*द्वितीय, अवैतनिक।   
*द्वितीय, अवैतनिक।   
अवैतनिक में स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर आदि लोग  होते हैं।  जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले शास्त्रज्ञ और विद्वान प्रचारक होते हैं।  पहला दल शिक्षा पर ज़ोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर बल देता है। आर्य समाज का प्रत्येक संगठन कुछ हाईस्कूल, गुरुकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था करता है।
अवैतनिक में स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर आदि लोग  होते हैं।  जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले शास्त्रज्ञ और विद्वान् प्रचारक होते हैं।  पहला दल शिक्षा पर ज़ोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर बल देता है। आर्य समाज का प्रत्येक संगठन कुछ हाईस्कूल, गुरुकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था करता है।
यह मुख्यत: उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि इसके कुछ केन्द्र [[दक्षिण भारत]] में भी हैं।  [[बर्मा]] तथा पूर्वी अफ्रीका, [[मॉरीशस]], फीजी आदि में भी इसकी शाखाएँ है जो वहाँ बसे हुए भारतीयों के बीच कार्य करती हैं।  आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी [[लाहौर]] में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था।  लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल [[दिल्ली]] है।
यह मुख्यत: उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि इसके कुछ केन्द्र [[दक्षिण भारत]] में भी हैं।  [[बर्मा]] तथा पूर्वी अफ्रीका, [[मॉरीशस]], फीजी आदि में भी इसकी शाखाएँ है जो वहाँ बसे हुए भारतीयों के बीच कार्य करती हैं।  आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी [[लाहौर]] में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था।  लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल [[दिल्ली]] है।
==भाषा और साहित्य==
==भाषा और साहित्य==
भारतीय नवोत्थान के प्रथम चरण में आर्य समाज-आन्दोलन द्वारा प्रेरित [[संस्कृत]] भाषा और साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप हिन्दी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिकाधिक झुकती गयी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था और देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक उन्होंने इसी भाषा का प्रयोग किया, जहाँ पहले उर्दू का बोल-बाला था।  उन्होंने स्वयं सत्यार्थ-प्रकाश (1874 ई.), व्यवहारभानु, गोकरणनिधि आदि ग्रन्थों की रचना हिन्दी में की। उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है। अन्य आर्यसमाजी लेखकों ने भी [[संस्कृत]] शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिक ध्यान दिया, फलत: भाषा का जो आदर्श [[भारतेन्दु हरिशचंद्र|भारतेन्दु]] ने स्थापित किया, वह अन्य अनेक कारणों के अतिरिक्त आर्य समाज के प्रबल प्रभाव के कारण बहुत दिनों के लिए लुप्त हो गया।  [[हिन्दी]] के 'संस्कृतीकरण' या 'तत्समीकारण' का आर्य समाज एक प्रधान कारण था।  हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' और राष्ट्रभाषा-पद पर स्वीकार करने के अतिरिक्त आर्य समाज ने हिन्दी गद्य को एक नयी शैली प्रदान की, जो शास्त्रार्थ और खण्डन-मण्डन के उपयुक्त थी। भाषा में आलोचना और वाद-विवाद करने की शक्ति आयी। भाव-व्यंजना में भी इससे सहायता मिली और तर्कशैली के साथ-साथ व्यंग्य तथा कटाक्ष करने की शक्ति का आविर्भाव हुआ। [[हिन्दी भाषा]] तथा गद्य शैली का यह विकास अभूतपर्व था और क्योंकि आर्य समाज का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था, इसलिए उसने साहित्यिकों को तरह-तरह के विषय सुझाये। [[चित्र:Arya-Samaj-Mathura-9.jpg|thumb|left|आर्य समाज महासम्मेलन, [[मथुरा]]]]  यद्यपि [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]], [[राधाकृष्णदास]], श्रीनिवासदास, [[प्रताप नारायण मिश्र|प्रतापनारायण मिश्र]] जैसे [[कवि]], [[उपन्यासकार]] और नाटककार [[आर्य समाज|आर्य समाजी]] नहीं थे, तो भी उनके द्वारा गृहीत अनेक विषय वे ही हैं, जो आर्यसमाज-आन्दोलन अपनाये हुए थे। ऐसे अनेक तत्कालीन नाटक, प्रहसन और उपन्यास उपलब्ध होते हैं, जिन पर तर्कप्रणाली, विषय, शैली आदि की दृष्टि से आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। किन्तु कुछ हद तक आर्यसमाज नाटयकला के लिए घातक भी सिद्ध हुआ।  उसने अनेक विषय सुझाकर सामग्री प्रस्तुत करने में कोई कसर बाक़ी न रखी, यह ठीक है, लेकिन शास्त्रार्थ वाली शैली ने कृतियों की कलात्मकता को आघात पहुँचाया।  ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं लेखक विविध पात्रों के रूप में आर्यसमाज के प्लेटफार्म से बोल रहा है।  आर्यसमाज का जितना प्रभाव नाटक और काव्य पर पड़ा उतना साहित्य के किसी और अंग पर नहीं पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीसवीं शताब्दी में आर्यसमाजी उच्च कोटि के प्रसिद्ध नाटककार, कवि या अन्य लेखक और कलाकार बहुत कम हुए।  उन्नीसवीं शताब्दीं में आर्यसमाजी लेखक या कवि नहीं हुआ।  बीसवीं शताब्दी में भी पद्मसिंह शर्मा, नाथूराम शंकर शर्मा आदि जैसे कुछ ही प्रसिद्ध लेखक और कवि हुए हैं।  प्रचारात्मक आन्दोलन होने की वजह से उच्च कोटि का साहित्य प्रचुर मात्रा में न दे सका।  कला का अभाव आर्यसमाज में ही नहीं, संसार के सभी सुधारवादी (Puritonical) आन्दोलनों में पाया जाता हैं। भाषा, विषय, चयन, लेखकों और कवियों के दृष्टिकोण तथा उनकी विचार-पद्धति पर आर्यसमाज का काफ़ी प्रभाव पड़ा, यह निस्सन्देह कहा जा सकता है।
भारतीय नवोत्थान के प्रथम चरण में आर्य समाज-आन्दोलन द्वारा प्रेरित [[संस्कृत]] भाषा और साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप हिन्दी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिकाधिक झुकती गयी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था और देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक उन्होंने इसी भाषा का प्रयोग किया, जहाँ पहले उर्दू का बोल-बाला था।  उन्होंने स्वयं सत्यार्थ-प्रकाश (1874 ई.), व्यवहारभानु, गोकरणनिधि आदि ग्रन्थों की रचना हिन्दी में की। उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है। अन्य आर्यसमाजी लेखकों ने भी [[संस्कृत]] शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिक ध्यान दिया, फलत: भाषा का जो आदर्श [[भारतेन्दु हरिशचंद्र|भारतेन्दु]] ने स्थापित किया, वह अन्य अनेक कारणों के अतिरिक्त आर्य समाज के प्रबल प्रभाव के कारण बहुत दिनों के लिए लुप्त हो गया।  [[हिन्दी]] के 'संस्कृतीकरण' या 'तत्समीकारण' का आर्य समाज एक प्रधान कारण था।  हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' और राष्ट्रभाषा-पद पर स्वीकार करने के अतिरिक्त आर्य समाज ने हिन्दी गद्य को एक नयी शैली प्रदान की, जो शास्त्रार्थ और खण्डन-मण्डन के उपयुक्त थी। भाषा में आलोचना और वाद-विवाद करने की शक्ति आयी। भाव-व्यंजना में भी इससे सहायता मिली और तर्कशैली के साथ-साथ व्यंग्य तथा कटाक्ष करने की शक्ति का आविर्भाव हुआ। [[हिन्दी भाषा]] तथा गद्य शैली का यह विकास अभूतपर्व था और क्योंकि आर्य समाज का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था, इसलिए उसने साहित्यिकों को तरह-तरह के विषय सुझाये। [[चित्र:Arya-Samaj-Mathura-9.jpg|thumb|left|आर्य समाज महासम्मेलन, [[मथुरा]]]]  यद्यपि [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]], [[राधाकृष्णदास]], श्रीनिवासदास, [[प्रताप नारायण मिश्र|प्रतापनारायण मिश्र]] जैसे [[कवि]], [[उपन्यासकार]] और नाटककार [[आर्य समाज|आर्य समाजी]] नहीं थे, तो भी उनके द्वारा गृहीत अनेक विषय वे ही हैं, जो आर्यसमाज-आन्दोलन अपनाये हुए थे। ऐसे अनेक तत्कालीन नाटक, प्रहसन और उपन्यास उपलब्ध होते हैं, जिन पर तर्कप्रणाली, विषय, शैली आदि की दृष्टि से आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। किन्तु कुछ हद तक आर्यसमाज नाटयकला के लिए घातक भी सिद्ध हुआ।  उसने अनेक विषय सुझाकर सामग्री प्रस्तुत करने में कोई कसर बाक़ी न रखी, यह ठीक है, लेकिन शास्त्रार्थ वाली शैली ने कृतियों की कलात्मकता को आघात पहुँचाया।  ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं लेखक विविध पात्रों के रूप में आर्यसमाज के प्लेटफार्म से बोल रहा है।  आर्यसमाज का जितना प्रभाव नाटक और काव्य पर पड़ा उतना साहित्य के किसी और अंग पर नहीं पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीसवीं शताब्दी में आर्यसमाजी उच्च कोटि के प्रसिद्ध नाटककार, कवि या अन्य लेखक और कलाकार बहुत कम हुए।  उन्नीसवीं शताब्दीं में आर्यसमाजी लेखक या कवि नहीं हुआ।  बीसवीं शताब्दी में भी पद्मसिंह शर्मा, नाथूराम शंकर शर्मा आदि जैसे कुछ ही प्रसिद्ध लेखक और कवि हुए हैं।  प्रचारात्मक आन्दोलन होने की वजह से उच्च कोटि का साहित्य प्रचुर मात्रा में न दे सका।  कला का अभाव आर्यसमाज में ही नहीं, संसार के सभी सुधारवादी (Puritonical) आन्दोलनों में पाया जाता हैं। भाषा, विषय, चयन, लेखकों और कवियों के दृष्टिकोण तथा उनकी विचार-पद्धति पर आर्यसमाज का काफ़ी प्रभाव पड़ा, यह निस्सन्देह कहा जा सकता है।

07:50, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

आर्य समाज
आर्यसमाज का आधिकारिक ध्वज
आर्यसमाज का आधिकारिक ध्वज
विवरण आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है।
स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने संभवत: 7 या 10 अप्रैल सन्‌ 1875 ई. को बम्बई (अब मुम्बई) में।[1]
उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, भारत को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न और पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना।
अर्थ 'आर्य' का अर्थ है भद्र एवं 'समाज' का अर्थ है सभा। अत: आर्य समाज का अर्थ है 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा'।
संबंधित लेख राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, लोकमान्य तिलक, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द, महात्मा गांधी
अन्य जानकारी आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी लाहौर में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था। लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल दिल्ली है।

आर्य समाज उन्नीसवीं शताब्दी का भारतीय इतिहास और साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इतना व्यापक और सूक्ष्म परिवर्तन मध्ययुग में इस्लाम धर्म के सम्पर्क के फलस्वरूप भी न हुआ था। एक ओर तो भारतवर्ष उन्नीसवीं शताब्दी में एक सुदूर स्थित पाश्चात्य जाति का दास बना और दूसरी ओर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा वैज्ञानिक आविष्कारों से लाभ उठाकर उसने नवीन चेतना प्राप्त की और मध्ययुगीन एवं अनेक पौराणिक कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा परम्पराओं से बद्ध जीवन का आलस्य छोड़कर स्फूर्ति प्राप्त की। इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह स्फूर्ति और चेतना, राजनीतिक एवं आर्थिक दासत्व की परिस्थिति में, पूर्व और पश्चिम के बीच संघर्ष के रूप में अर्थात् भारतीय आध्यात्मिकता और पाश्चात्य भौतिकता के संघर्ष के रूप में, अभिव्यक्त हुई। राजनीतिक और आर्थिक चेतना उसी चेतना का अशंमात्र थी। यही पूर्व और पश्चिम का संघर्ष था, जिसने राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द , स्वामी रामतीर्थ, लोकमान्य तिलक, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द और महात्मा गांधी को जन्म दिया।

पाश्चात्य प्रभाव

एक ओर तो पश्चिम के बढ़ते हुए प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और कला का पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा अनुदिन बढ़ता हुआ अध्ययन था। हाजसन, बोत्लिक, मैक्समूलर, प्रिंसेप, कनिंघम, एड-विन आर्नाल्ड आदि की खोजों और रचनाओं का भारतवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्हें अपने पूर्वजों की महत्ता का परिचय प्राप्त हुआ। 'थियोसोफ़िकल सोसाइटी' (1875 ई.) ने भी देशवासियों का देश के प्राचीन गौरव की ओर ध्यान आकृष्ट किया। इन सब कारणों से बढ़ते हुए पश्चिमी प्रभाव के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना और भारत की प्राचीन गरिमा की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था। इस प्रतिक्रिया ने विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण अवश्य अपनाया, किन्तु उद्देश्य विशुद्धवादियों का भी भारतीय जीवन का परिष्कार करना था। इस दृष्टिकोण का ज्वलन्त उदाहरण आर्य समाज आन्दोलन है। इस आन्दोलन ने हिन्दू धर्म का पुनरूद्धार करने का महान् प्रयास किया।

आर्य समाज महासम्मेलन, मथुरा

आर्य समाज की स्थापना

दयानंद सरस्वती ने संभवत: 7 या 10 अप्रैल सन्‌ 1875 ई. को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की[1]। इसका उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, भारत को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में गुजरात के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम 'स्वामी दयानन्द सरस्वती' रखा। ज्ञान की खोज में भटकने के बाद 1861 ई. में स्वामी ने दयानंद को वेंदों की दार्शनिक व्याख्या का परिचय कराया। दयानन्द ने इन्हें गुरु बना लिया। वेदों और भारतीय दर्शन के गहन अध्ययन के बाद स्वामी जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि आर्य श्रेष्ठ हैं, वेद ही ईश्वरी ज्ञान है तथा भारत भूमि ही श्रेष्ठ है।

प्रचार-प्रसार

आर्य समाज महासम्मेलन, मथुरा

स्वामी जी ने अपने उपदेशों का प्रचार आगरा से प्रारम्भ किया तथा झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए ‘पाखण्ड खण्डनी पताका’ लहराई। इन्होंने अपने उपदेशों में मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, तंत्र-मंत्र, झूठे कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की। स्वामी दयानंद जी ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए ‘पुनः वेदों की ओर चलो का नारा दिया।’ सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इन्होंने छुआछूत एवं जन्म के आधार पर जाति प्रथा की आलोचना की। वे शूद्रों एवं स्त्रियों के वेदों की शिक्षा ग्रहण करने के अधिकारों के हिमायती थे। स्वामी जी के विचारों का संकलन इनकी कृति ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मिलता है, जिसकी रचना स्वामी जी ने हिन्दी में की थी। राजनीति के क्षेत्र में स्वामी जी का मानना था कि बुरे से बुरा देशी राज्य अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से बेहतर होता है। वे स्वदेशी एवं देशभक्ति के प्रबल समर्थक थे। वैलेन्टाइन शिरोल ने सच ही स्वामी जी के आर्य समाज को ‘भारतीय अशांति का जन्मदाता’ कहा है। स्वामी जी ने गोधन की रक्षा के लिए ‘गोरक्षणी सभा’ की स्थापना की तथा ‘गौकरुणानिधि’ नामक पुस्तक की रचना की। आर्य समाज के महत्त्वपूर्ण समर्थक एवं उत्कृष्ण कार्यकर्ता थे - महात्मा हंसराज, पण्डित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद आदि। इस संस्था का प्रसार महाराष्ट्र के अलावा उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान एवं बिहार में भी हुआ। आर्य समाज का प्रचार-प्रसार पंजाब में अधिक सफल रहा।

शुद्धि आन्दोलन

दयानंद सरस्वती द्वारा चलाये गये ‘शुद्धि आन्दोलन’ के अन्तर्गत उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि ‘भारत भारतीयों के लिए है। 1892-1893 ई. में आर्य समाज में फूट पड़ गई। फूट के बाद बने दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। इस दल में लाला हंसराज और लाला लाजपत राय आदि प्रमुख थे। इन्होंने 'दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज' की स्थापना की। इसी प्रकार दूसरे दल ने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप विरोधी दल के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 ई. में हरिद्वार में एक ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना की। इस संस्था में वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी। इससे स्वामी श्रद्धानंद, लेखाराम और मुंशी राम आदि जुड़े थे।

आर्य समाज के सिद्धान्त

आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं—

  1. सभी शक्ति और ज्ञान का प्रारंभिक कारण ईश्वर है।
  2. ईश्वर ही सर्व सत्य है, सर्व व्याप्त है, पवित्र है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का कारण है। केवल उसी की पूजा होनी चाहिए।
  3. वेद ही सच्चे ज्ञान ग्रंथ हैं।
  4. सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए।
  5. उचित-अनुचित के विचार के बाद ही कार्य करना चाहिए।
  6. मनुष्य मात्र को शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए।
  7. प्रत्येक के प्रति न्याय, प्रेम और उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।
  8. ज्ञान की ज्योति फैलाकर अंधकार को दूर करना चाहिए।
  9. केवल अपनी उन्नति से संतुष्ट न होकर दूसरों की उन्नति के लिए भी यत्न करना चाहिए।
  10. समाज के कल्याण और समाज की उन्नति के लिए अपने मत तथा व्यक्तिगत बातों को त्याग देना चाहिए।

इनमें से प्रथम तीन सिद्धांत धार्मिक हैं और अंतिम सात नैतिक हैं। आगे चलकर व्यवहार के स्तर पर आर्य समाज में भी विचार-भेद पैदा हो गया। एक वर्ग 'दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज' की विचारधारा की ओर चला और दूसरे ने 'गुरुकुल' की राह पकड़ी। यह उल्लेखनीय है कि देश के स्वतंत्रता-संग्राम में आर्य समाज ने संस्था के रूप में तो नहीं, पर सहसंस्था के अधिकांश प्रमुख सदस्यों ने व्यक्तिगत स्तर पर महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

धार्मिक एवं नैतिक सिद्धान्त

ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक सिद्धांत है। आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर अवलम्बित है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के सामने यह समस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय। किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिससे भारतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं।

वैदिक सिद्धान्त

स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान है। यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है। ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है-

  1. चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों (अग्नि, वायु, सूर्य एवं अगिंरा) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए।
  2. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-ग्रन्थ एवं प्रकृति-ग्रन्थ से यहाँ साम्य प्रकट होता है। स्वामी दयानन्द कहते हैं, 'मैं वेदों को स्वत: प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते। ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है।' वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है-
  • वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है।
  • वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते।
  • वे विज्ञान एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं।

आर्य समाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्त दो महत्त्वपूर्ण हैं:-

  1. भारत को (भूले हुए) वैदिक पथ पर पुन: चलाना और
  2. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना।

आर्य समाज का अर्थ

स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने, अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे 'आर्य समाज' कहते हैं। 'आर्य' का अर्थ है भद्र एवं 'समाज' का अर्थ है सभा। अत: आर्य समाज का अर्थ है 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा'। आर्य प्राचीन भारत का प्रेमपूर्ण एवं धार्मिक नाम है जो भद्र पुरुषों के लिए प्रयोग में आता था। स्वामी जी ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए यह नाम चुना। यह धार्मिक से भी अधिक सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व रखता है इस प्रकार यह अन्य धार्मिक एवं सुधारवादी संस्थाओं से भिन्नता रखता है, जैसे –ब्रह्मसमाज (ईश्वर का समाज), प्रार्थना समाज आदि ।

समाज का विभाजन

स्वामी दयानन्द की मृत्यु से अब तक की घटनाओं में समाज का दो दलों में बँटना एक मुख्य परिवर्तन है। इस विभाजन के दो कारण थे:

  1. भोजन में मांस के उपयोग पर मतभेद और
  2. उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नीति सम्बन्धी मतभेद।

पहले कारण से उत्पन्न हुए दो वर्ग 'मांसभक्षी दल' एवं 'शाकाहारी दल' कहलाते है तथा दूसरे कारण से उत्पन्न दो दल 'कॉलेज पार्टी' एवं 'महात्मा पार्टी' (प्राचीन पद्धति पर चलने वाले) कहलाते हैं। ये मतभेद एक और भी गहरा मतभेद उपस्थित करते हैं जिसका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की मान्यता के परिणाम से है। इस दृष्टि से कॉलेज पार्टी अधिक आधुनिक और उदार है, जबकि महात्मा पार्टी का दृष्टिकोण अधिक प्राचीनतावादी है। कॉलेज पार्टी ने लाहौर में स्थापना की, जबकि महात्मा पार्टी ने हरिद्वार में 'गुरुकुल' स्थापित किया, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर विशेष बल दिया जाता रहा है।

समाज के प्रकार

आर्य समाज महासम्मेलन, मथुरा

संघटन की दृष्टि से इसमें तीन प्रकार के समाज हैं—

  1. स्थानीय समाज
  2. प्रान्तीय समाज
  3. सार्वदेशिक समाज।

सदस्यता की नियमावली

स्थानीय समाज की सदस्यता के लिए निम्नलिखित नियमावली है-

  • आर्य समाज के दस नियमों में विश्वास
  • वेद की स्वामी दयानन्द द्वारा की हुई व्याख्यादि में विश्वास
  • सदस्य की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए
  • द्विजों के लिए विशेष दीक्षा संस्कार की आवश्यकता नहीं है किन्तु ईसाई तथा मुसलमानों के लिए एक शुद्धि संस्कार की व्यवस्था है।
स्थानीय सदस्य

स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-

  • प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् अस्थायी सदस्य;
  • द्वितीय, जिन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति दर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है।
स्थानीय समाज के पदाधिकारी

स्थानीय समाज के निम्नांकित पदाधिकारी होते हैं—

  • सभापति
  • उपसभापति
  • मंत्री
  • कोषाध्यक्ष
  • पुस्तकालयाध्यक्ष।

ये सभी स्थायी सदस्यों द्वारा उनमें से ही चुने जाते हैं।

प्रान्तीय समाज

प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रतिनिधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं। स्थानीय समाज के प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका गठन प्रतिनिधिमूलक है।

पूजा पद्धति

साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक रविवार को प्रात: होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन छुट्टी पर होते हैं। यह सत्संग तीन या चार घण्टे का होता है। भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ प्रारम्भ होती है। साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है। पश्चात् प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाज गान से होता है। इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य सदस्य अपने क्रम से प्रधान-वक्ता या पूजा-संचालक का स्थान ग्रहण करते हैं।

कार्यप्रणाली

आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के समान भाषण, शिक्षा, समाचार, पत्र आदि की सहायता से अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक है-

  • प्रथम वेतनभोगी और
  • द्वितीय, अवैतनिक।

अवैतनिक में स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर आदि लोग होते हैं। जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले शास्त्रज्ञ और विद्वान् प्रचारक होते हैं। पहला दल शिक्षा पर ज़ोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर बल देता है। आर्य समाज का प्रत्येक संगठन कुछ हाईस्कूल, गुरुकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था करता है। यह मुख्यत: उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि इसके कुछ केन्द्र दक्षिण भारत में भी हैं। बर्मा तथा पूर्वी अफ्रीका, मॉरीशस, फीजी आदि में भी इसकी शाखाएँ है जो वहाँ बसे हुए भारतीयों के बीच कार्य करती हैं। आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी लाहौर में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था। लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् आर्य समाज का मुख्य केन्द्र आजकल दिल्ली है।

भाषा और साहित्य

भारतीय नवोत्थान के प्रथम चरण में आर्य समाज-आन्दोलन द्वारा प्रेरित संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप हिन्दी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिकाधिक झुकती गयी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था और देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक उन्होंने इसी भाषा का प्रयोग किया, जहाँ पहले उर्दू का बोल-बाला था। उन्होंने स्वयं सत्यार्थ-प्रकाश (1874 ई.), व्यवहारभानु, गोकरणनिधि आदि ग्रन्थों की रचना हिन्दी में की। उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है। अन्य आर्यसमाजी लेखकों ने भी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिक ध्यान दिया, फलत: भाषा का जो आदर्श भारतेन्दु ने स्थापित किया, वह अन्य अनेक कारणों के अतिरिक्त आर्य समाज के प्रबल प्रभाव के कारण बहुत दिनों के लिए लुप्त हो गया। हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' या 'तत्समीकारण' का आर्य समाज एक प्रधान कारण था। हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' और राष्ट्रभाषा-पद पर स्वीकार करने के अतिरिक्त आर्य समाज ने हिन्दी गद्य को एक नयी शैली प्रदान की, जो शास्त्रार्थ और खण्डन-मण्डन के उपयुक्त थी। भाषा में आलोचना और वाद-विवाद करने की शक्ति आयी। भाव-व्यंजना में भी इससे सहायता मिली और तर्कशैली के साथ-साथ व्यंग्य तथा कटाक्ष करने की शक्ति का आविर्भाव हुआ। हिन्दी भाषा तथा गद्य शैली का यह विकास अभूतपर्व था और क्योंकि आर्य समाज का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था, इसलिए उसने साहित्यिकों को तरह-तरह के विषय सुझाये।

आर्य समाज महासम्मेलन, मथुरा

यद्यपि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, राधाकृष्णदास, श्रीनिवासदास, प्रतापनारायण मिश्र जैसे कवि, उपन्यासकार और नाटककार आर्य समाजी नहीं थे, तो भी उनके द्वारा गृहीत अनेक विषय वे ही हैं, जो आर्यसमाज-आन्दोलन अपनाये हुए थे। ऐसे अनेक तत्कालीन नाटक, प्रहसन और उपन्यास उपलब्ध होते हैं, जिन पर तर्कप्रणाली, विषय, शैली आदि की दृष्टि से आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। किन्तु कुछ हद तक आर्यसमाज नाटयकला के लिए घातक भी सिद्ध हुआ। उसने अनेक विषय सुझाकर सामग्री प्रस्तुत करने में कोई कसर बाक़ी न रखी, यह ठीक है, लेकिन शास्त्रार्थ वाली शैली ने कृतियों की कलात्मकता को आघात पहुँचाया। ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं लेखक विविध पात्रों के रूप में आर्यसमाज के प्लेटफार्म से बोल रहा है। आर्यसमाज का जितना प्रभाव नाटक और काव्य पर पड़ा उतना साहित्य के किसी और अंग पर नहीं पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीसवीं शताब्दी में आर्यसमाजी उच्च कोटि के प्रसिद्ध नाटककार, कवि या अन्य लेखक और कलाकार बहुत कम हुए। उन्नीसवीं शताब्दीं में आर्यसमाजी लेखक या कवि नहीं हुआ। बीसवीं शताब्दी में भी पद्मसिंह शर्मा, नाथूराम शंकर शर्मा आदि जैसे कुछ ही प्रसिद्ध लेखक और कवि हुए हैं। प्रचारात्मक आन्दोलन होने की वजह से उच्च कोटि का साहित्य प्रचुर मात्रा में न दे सका। कला का अभाव आर्यसमाज में ही नहीं, संसार के सभी सुधारवादी (Puritonical) आन्दोलनों में पाया जाता हैं। भाषा, विषय, चयन, लेखकों और कवियों के दृष्टिकोण तथा उनकी विचार-पद्धति पर आर्यसमाज का काफ़ी प्रभाव पड़ा, यह निस्सन्देह कहा जा सकता है।

सुधारवादी एवं लोकप्रिय संस्था

यह उत्तर भारत की सबसे मूल सुधारवादी एवं लोकप्रिय संस्था है। स्त्रीशिक्षा, हरिजनसेवा, अश्पृश्यता-निवारण एवं दूसरे सुधारों में यह प्रगतिशील है। वेदों को सभी धर्म का मूल आधार एवं विश्व के विज्ञान का स्रोत बताते हुए, यह देशभक्ति को भी स्थापित करता है। इसके सदस्यों में से अनेक ऐसे हैं जो वास्तविक देश हितैषी एवं देशप्रेमी है। शिक्षा तथा सामाजिक सुधार द्वारा यह भारत का खोया हुआ पूर्व-गौरव लाना चाहता है। लगभग पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से आर्यसमाज का साहित्य पर प्रभाव एक प्रकार से नगण्य है। वास्तव में आर्यसमाज एक ऐसा आन्दोलन था, जिसने देश की एक ऐतिहासिक आवश्यकता पूरी की। शिक्षा, समाजसुधार, धर्मसुधार आदि क्षेत्रों में उसके द्वारा प्रचलित लगभग सभी बातें देश द्वारा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप उसकी गतिशीलता समाप्त हो गयी।

वीथिका आर्य समाज महासम्मेलन, मथुरा

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 वर्ष 1875 निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में सत्यार्थ प्रकाश, इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये

सहायक ग्रन्थ

  1. 'आर्यसमाज': लाला लाजपतराय
  2. आधुनिक हिन्दी साहित्य': लम्मीसागर वार्ष्णेय,
  3. महर्षि दयानन्द': यदुवंश सहाय वर्मा

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