"आत्मिका -महादेवी वर्मा": अवतरणों में अंतर
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आधुनिक [[हिन्दी]] [[कविता]] की मूर्धन्य | आधुनिक [[हिन्दी]] [[कविता]] की मूर्धन्य कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा के काव्य में एक मार्मिक संवेदना है। सरल-सुधरे प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को जिस ढंग से महादेवी जी अभिव्यक्त करती हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वास्तव में उनका समूचा काव्य एक चिरन्तन और असीम प्रिय के प्रति निवेदित है जिसमें जीवन की धूप-छाँह और गम्भीर चिन्तन की इन्द्रधनुषी कोमलता है। आत्मिका में संग्रहीत कविताओं के बारे में स्वयं महादेवी वर्मा ने यह स्वीकार किया है कि इसमें मेरी ऐसी रचनाएं संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय दे सकेंगी। पुस्तक की भूमिका अत्यंत रोचक है जिसमें उन्होंने अपने बौद्ध भिक्षुणी बनने के विषय में स्पष्टीकरण भी किया है। | ||
==पुस्तकांश== | ==पुस्तकांश== | ||
जिस प्रकार शरीर विज्ञान का विशेषज्ञ चिकित्सक भी अपने शरीर की शल्य क्रिया में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञाता लेखक भी अपने सृजनात्मक मनोवेगों के विश्लेषण में सफल नहीं हो पाता। सृजनात्मक रचना में प्रत्यक्ष रूप से चेतना होती है, परन्तु अप्रत्यक्ष कारणों में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान अवचेतन भी देता है और कुछ पराचेतन भी। इस प्रकार चेतना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक स्तर सक्रिय होकर, जिस सृजनात्मक आवेग-संवेग की रचना करते हैं, उसका तटस्थ विश्लेषण एक प्रकार से असम्भव ही है और यदि वह किसी प्रकार सम्भव भी हो सके तो रचनाकार और विशेषतः कवि की रचना-सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो उसे रचना से भी विमुख कर सकता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=4588# |title=आत्मिका|accessmonthday=2 अप्रॅल |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> | जिस प्रकार शरीर विज्ञान का विशेषज्ञ चिकित्सक भी अपने शरीर की शल्य क्रिया में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञाता लेखक भी अपने सृजनात्मक मनोवेगों के विश्लेषण में सफल नहीं हो पाता। सृजनात्मक रचना में प्रत्यक्ष रूप से चेतना होती है, परन्तु अप्रत्यक्ष कारणों में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान अवचेतन भी देता है और कुछ पराचेतन भी। इस प्रकार चेतना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक स्तर सक्रिय होकर, जिस सृजनात्मक आवेग-संवेग की रचना करते हैं, उसका तटस्थ विश्लेषण एक प्रकार से असम्भव ही है और यदि वह किसी प्रकार सम्भव भी हो सके तो रचनाकार और विशेषतः कवि की रचना-सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो उसे रचना से भी विमुख कर सकता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=4588# |title=आत्मिका|accessmonthday=2 अप्रॅल |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> |
08:09, 31 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण
आत्मिका -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | आत्मिका |
प्रकाशक | राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशन तिथि | 1983 |
ISBN | 81-7028-4961 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 104 |
भाषा | हिंदी |
शैली | गीत |
प्रकार | काव्य संग्रह |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
आत्मिका महादेवी वर्मा का कविता-संग्रह है। इसमें तीन रचनाओं का संकलन है जो निम्नलिखित हैं-
- पंथ होने दो अपरिचित
- मैं और तू
- अश्रु-नीर
आधुनिक हिन्दी कविता की मूर्धन्य कवयित्री श्रीमती महादेवी वर्मा के काव्य में एक मार्मिक संवेदना है। सरल-सुधरे प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को जिस ढंग से महादेवी जी अभिव्यक्त करती हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वास्तव में उनका समूचा काव्य एक चिरन्तन और असीम प्रिय के प्रति निवेदित है जिसमें जीवन की धूप-छाँह और गम्भीर चिन्तन की इन्द्रधनुषी कोमलता है। आत्मिका में संग्रहीत कविताओं के बारे में स्वयं महादेवी वर्मा ने यह स्वीकार किया है कि इसमें मेरी ऐसी रचनाएं संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय दे सकेंगी। पुस्तक की भूमिका अत्यंत रोचक है जिसमें उन्होंने अपने बौद्ध भिक्षुणी बनने के विषय में स्पष्टीकरण भी किया है।
पुस्तकांश
जिस प्रकार शरीर विज्ञान का विशेषज्ञ चिकित्सक भी अपने शरीर की शल्य क्रिया में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञाता लेखक भी अपने सृजनात्मक मनोवेगों के विश्लेषण में सफल नहीं हो पाता। सृजनात्मक रचना में प्रत्यक्ष रूप से चेतना होती है, परन्तु अप्रत्यक्ष कारणों में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान अवचेतन भी देता है और कुछ पराचेतन भी। इस प्रकार चेतना के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक स्तर सक्रिय होकर, जिस सृजनात्मक आवेग-संवेग की रचना करते हैं, उसका तटस्थ विश्लेषण एक प्रकार से असम्भव ही है और यदि वह किसी प्रकार सम्भव भी हो सके तो रचनाकार और विशेषतः कवि की रचना-सुख से वंचित हो जाना पड़ेगा, जो उसे रचना से भी विमुख कर सकता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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