"मंकणक मुनि": अवतरणों में अंतर
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'''मंकणक मुनि''' [[वायु देव|वायु]] के [[औरस पुत्र]] थे। मंकणक मुनि का जन्म सुकन्या के गर्भ से हुआ था। वे चिरकाल से ब्रह्मचर्य पालन करते हुए [[सरस्वती नदी]] में स्नान किया करते थे। एक बार मंकणक मुनि ने स्नान करती हुई एक अनिंद्य सुंदरी को देखा जो कि नग्न थी। उसे देखकर उनका वीर्यपात हो गया। उन्होंने वीर्य को एक कलश में ले लिया तथा मंकणक मुनि ने वीर्य को सात भागों में विभक्त कर दिया। अत: उस वीर्य कलश से सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत 49 मरुदगणों के जन्मदाता थे। 'उनके नाम इस प्रकार हैं-' | |||
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मंकणक का हाथ किसी कुश के अग्रभाग पर लग गया था। उससे हाथ छिद गया तथा वहाँ से शाक का रस निसृत होने लगा। शाक के रस को देख कर मंकणक मुनि प्रसन्नता के आवेग में नृत्य करने लगे। उनके तेज से प्रभावित समस्त स्थावर जंगम जगत् नृत्यरत हो गया। जगत् की अस्त-व्यस्तता को देख कर [[देवता|देवताओं]] आदि ने [[शिव]] से प्रार्थना की, कि वे इस नृत्य को रोकें। शिव ने मंकणक के सम्मुख अपने अंगूठे के अग्रभाग से प्रहार किया जिससे शिव की अंगुलि के अग्रभाग में घाव हो गया। यह देखकर मुनि लज्जावश [[महादेव]] के चरणों में गिर पड़े तथा अपने मिथ्याभिमान के लिए क्षमा-यचाना करने लगे। साथ ही उन्होंने शिव से वर प्राप्त किया कि उनके अहंकार और चापल्य के कारण उनकी पूर्वकृत तपस्या नष्ट न हो। मुनि ने महादेव के साथ उनके आश्रम में रहने की इच्छा प्रकट की वह आश्रम सप्तसारस्वत नाम से विख्यात है। | |||
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13:54, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
मंकणक मुनि वायु के औरस पुत्र थे। मंकणक मुनि का जन्म सुकन्या के गर्भ से हुआ था। वे चिरकाल से ब्रह्मचर्य पालन करते हुए सरस्वती नदी में स्नान किया करते थे। एक बार मंकणक मुनि ने स्नान करती हुई एक अनिंद्य सुंदरी को देखा जो कि नग्न थी। उसे देखकर उनका वीर्यपात हो गया। उन्होंने वीर्य को एक कलश में ले लिया तथा मंकणक मुनि ने वीर्य को सात भागों में विभक्त कर दिया। अत: उस वीर्य कलश से सात ऋषि उत्पन्न हुए, जो मूलभूत 49 मरुदगणों के जन्मदाता थे। 'उनके नाम इस प्रकार हैं-'
- वायुवेग
- वायुबल
- वायुहा
- वायुमंडल
- वायुज्वाल
- वायुरेता
- वायुचक्र।
मंकणक का हाथ किसी कुश के अग्रभाग पर लग गया था। उससे हाथ छिद गया तथा वहाँ से शाक का रस निसृत होने लगा। शाक के रस को देख कर मंकणक मुनि प्रसन्नता के आवेग में नृत्य करने लगे। उनके तेज से प्रभावित समस्त स्थावर जंगम जगत् नृत्यरत हो गया। जगत् की अस्त-व्यस्तता को देख कर देवताओं आदि ने शिव से प्रार्थना की, कि वे इस नृत्य को रोकें। शिव ने मंकणक के सम्मुख अपने अंगूठे के अग्रभाग से प्रहार किया जिससे शिव की अंगुलि के अग्रभाग में घाव हो गया। यह देखकर मुनि लज्जावश महादेव के चरणों में गिर पड़े तथा अपने मिथ्याभिमान के लिए क्षमा-यचाना करने लगे। साथ ही उन्होंने शिव से वर प्राप्त किया कि उनके अहंकार और चापल्य के कारण उनकी पूर्वकृत तपस्या नष्ट न हो। मुनि ने महादेव के साथ उनके आश्रम में रहने की इच्छा प्रकट की वह आश्रम सप्तसारस्वत नाम से विख्यात है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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