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चरखा यंत्र का जन्म और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर चरखा संघ की ओर से काफी खोजबीन की गई थी। अंग्रेज़ों के [[भारत]] आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। सन्‌ 1702 में अकेले [[इंग्लैंड]] ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी खरीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। सन्‌ [[1960]] में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मजबूती, बारीकी और पारदर्शिता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है।
'''चरखा''' एक हस्तचालित यंत्र है जिससे सूत तैयार किया जाता है। चरखा यंत्र का जन्म और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर 'चरखा संघ' की ओर से काफ़ी खोजबीन की गई थी। अंग्रेज़ों के [[भारत]] आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। सन्‌ 1702 में अकेले [[इंग्लैंड]] ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी ख़रीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। सन्‌ [[1960]] में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मज़बूती, बारीकी और पारदर्शिता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है।
==इतिहास==
==इतिहास==
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भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम [[महात्मा गांधी]] के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन्‌ [[1908]] में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन्‌ [[1916]] में साबरमती आश्रम ([[अहमदाबाद]]) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ [[1918]] में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला।
भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम [[महात्मा गांधी]] के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन्‌ [[1908]] में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन्‌ [[1916]] में [[साबरमती आश्रम]] ([[अहमदाबाद]]) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ [[1918]] में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला।
==खड़ा चरखा==
====खड़ा चरखा====
इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था।
इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई<ref>मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी</ref> और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल<ref>[[आंध्र प्रदेश]]</ref> का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था।
==संघ की स्थापना==
==संघ की स्थापना==
सन्‌ 1920 में [[विनोबा जी]] और उनके साथी [[साबरमती]] में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद ही ([[18 अप्रैल]], सन्‌ [[1921]] को) मगनवाड़ी (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया था और उन्हें सारे देश में फैलाना चाहा था। सन्‌ 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादीमंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। अत: [[पटना]] में [[22 सितंबर]], [[1925]] को अखिल भारत चरखा संघ की स्थापना हुई।
सन्‌ 1920 में [[विनोबा जी]] और उनके साथी [[साबरमती आश्रम]] में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद ही ([[18 अप्रैल]], सन्‌ [[1921]] को) मगनवाड़ी, (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया था और उन्हें सारे देश में फैलाना चाहा था। सन्‌ 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादी मंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। अत: [[पटना]] में [[22 सितंबर]], [[1925]] को 'अखिल भारत चरखा संघ' की स्थापना हुई।
[[चित्र:Spinning-Wheel.jpg|thumb|250px|left|चरखा, साबरमती आश्रम, [[अहमदाबाद]]]]
[[चित्र:Spinning-Wheel.jpg|thumb|250px|left|चरखा, साबरमती आश्रम, [[अहमदाबाद]]]]
==संशोधन==
==संशोधन==
चरखे में संशोधन हो, इसके लिये गांधी जी बहुत बेचैन थे। सन्‌ [[1923]] में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं प्राप्त हुआ। [[29 जुलाई]] सन्‌ [[1929]] को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपया पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधी जी ने जो शर्ते रखी थीं उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्त पूरी न होने के कारण असफल ही रहा।
चरखे में संशोधन हो, इसके लिये गांधी जी बहुत बेचैन थे। सन्‌ [[1923]] में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं प्राप्त हुआ। [[29 जुलाई]] सन्‌ [[1929]] को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपया पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधी जी ने जो शर्ते रखी थीं उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्त पूरी न होने के कारण असफल ही रहा।


चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शकल में सुधार हुआ। गांधी जी स्वयं कताई करते थे। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। श्री सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बाँस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बाँस का ही जनताचक्र (किसान चरखे की ही भाँति) बनाया गया, जिस पर श्री वीरेन्द्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिये या प्रवास में कातने के लिये प्रवास चक्र भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था। इस प्रकार अब तक बने हुए चरखों में गति और सूत की मजबूती की दृष्टि से किसान चरखा सबसे अच्छा रहा। फिर भी देहात की कत्तिनों में खड़ा चरखा ही अधिक प्रिय बना रहा। गांधी जी के स्वर्गवास के बाद भी चरखे के संशोधन और प्रयोग का काम बराबर चलता रहा।
चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शक्ल में सुधार हुआ। गांधी जी स्वयं कताई करते थे। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। श्री सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बाँस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बाँस का ही जनताचक्र<ref>किसान चरखे की ही भाँति</ref> बनाया गया, जिस पर श्री वीरेन्द्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिये या प्रवास में कातने के लिये 'प्रवास चक्र' भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था। इस प्रकार अब तक बने हुए चरखों में गति और सूत की मज़बूती की दृष्टि से किसान चरखा सबसे अच्छा रहा। फिर भी देहात की कत्तिनों में खड़ा चरखा ही अधिक प्रिय बना रहा। गांधी जी के स्वर्गवास के बाद भी चरखे के संशोधन और प्रयोग का काम बराबर चलता रहा।
==अंबर चरखा==
==अंबर चरखा==
सन्‌ [[1949]] में [[तमिलनाडु]] के एक युवक कार्यकर्ता श्री एकंबरनाथ जी का नया प्रयोग सामने आया। अभी तक चरखे पर जो कताई होती थी, वह लेटे तकुवों द्वारा होती थी। तकुवे की गिर्री को गति देने का काम सूत की माल से लिया जाता था। एकंबरनाथ जी ने जो चरखा बनाया उसमें तकुवे खड़े लगे थे। खड़े तकुवे की पद्धति कपड़े की मिलों की है। तकुवा अब भी सूत की माल से ही चलता है, लेकिन वह एक रिंग में घूमता है। चूंकि इस चरखे के आविष्कारक श्री एकंबरनाथ जी हैं, इसलिये इस चरखे का नाम अंबर रखा गया। अंबर का अर्थ वस्त्र होने से यह और भी उचित जान पड़ा।
सन्‌ [[1949]] में [[तमिलनाडु]] के एक युवक कार्यकर्ता श्री एकंबरनाथ जी का नया प्रयोग सामने आया। अभी तक चरखे पर जो कताई होती थी, वह लेटे तकुवों द्वारा होती थी। तकुवे की गिर्री को गति देने का काम सूत की माल से लिया जाता था। एकंबरनाथ जी ने जो चरखा बनाया उसमें तकुवे खड़े लगे थे। खड़े तकुवे की पद्धति कपड़े की मिलों की है। तकुवा अब भी सूत की माल से ही चलता है, लेकिन वह एक रिंग में घूमता है। चूंकि इस चरखे के आविष्कारक श्री एकंबरनाथ जी हैं, इसलिये इस चरखे का नाम 'अंबर' रखा गया। अंबर का अर्थ वस्त्र होने से यह और भी उचित जान पड़ा।


अंबर चरखा अब तक के चरखों में सर्वाधिक क्रांतिकारी कदम है। इस पर कातने के लिये पूनी भी मिल की पूनी जैसी चाहिए। इसलिये पूनी बनाने के लिये अंबर बेलनी और कातने के लिये अंबर चरखा अलग अलग दो यंत्र बनाए गए। कपास ओटने और रुई धुनने के यंत्रों में भी सुधार किया गया। धुनने के लिये मिल पद्धति का धुनाई मोड़िया बनाया गया। अंबर चरखे का प्रयोग पहले तमिलनाडु में किया गया, बाद में दूसरे प्रदेशों में भी लगभग 400 कार्यकर्ताओं को शिक्षण देकर काम चालू किया गया।
अंबर चरखा अब तक के चरखों में सर्वाधिक क्रांतिकारी क़दम है। इस पर कातने के लिये पूनी भी मिल की पूनी जैसी चाहिए। इसलिये पूनी बनाने के लिये 'अंबर बेलनी' और कातने के लिये 'अंबर चरखा' अलग अलग दो यंत्र बनाए गए। कपास ओटने और रुई धुनने के यंत्रों में भी सुधार किया गया। धुनने के लिये मिल पद्धति का धुनाई मोड़िया बनाया गया। अंबर चरखे का प्रयोग पहले तमिलनाडु में किया गया, बाद में दूसरे प्रदेशों में भी लगभग 400 कार्यकर्ताओं को शिक्षण देकर काम चालू किया गया।
;अंतर
;अंतर
[[चित्र:Spinning-Wheel-1.jpg|thumb|250px|चरखा]]
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सादे चरखे और अंबर चरखे में यह बहुत बड़ा अंतर है कि सादे चरखे में कातते समय सूत भरने के लिये चरखे को रोककर तथा पीछे घुमाकर फिर आगे चलाना पड़ता है। अंबर चरखे में भरने और बटने की क्रिया चूड़ी और नथनी द्वारा अपने आप होती है। आरंभ में इसमें एक ही तकुआ (तकला) चालू किया गया था। फिर चार तकुएवाला अंबर चरखा चालू किया गया, और अब आठ तकुओं का अंबर चरखा भी प्रयोग में आ गया है। एक मिनट में एक तकुए के 10 हज़ार से लेकर 12 हज़ार चक्कर तक होते हैं। सादे चरखे में ये चार हज़ार से लेकर पाँच हज़ार तक ही होते हैं। और चूँकि सादे चरखे में एक ही तकुआ होता है, इसलिये चार तकुएवाले अंबर चरखे में चौगुना और आठ तकुएवाले अंबर चरखे में आठ गुना सूत कतता है। साथ ही, अंबर चरखे को भरने के लिये रोकना नहीं पड़ता, इसलिये उसे सादे चरखे की अपेक्षा दो तीन गुना अधिक तो यों ही घुमाया जा सकता है। अंबर चरखे पर कते हुए सूत की मजबूती भी मिल के सूत जैसी होती है।
सादे चरखे और अंबर चरखे में यह बहुत बड़ा अंतर है कि सादे चरखे में कातते समय सूत भरने के लिये चरखे को रोककर तथा पीछे घुमाकर फिर आगे चलाना पड़ता है। अंबर चरखे में भरने और बटने की क्रिया चूड़ी और नथनी द्वारा अपने आप होती है। आरंभ में इसमें एक ही तकुआ (तकला) चालू किया गया था। फिर चार तकुएवाला अंबर चरखा चालू किया गया, और अब आठ तकुओं का अंबर चरखा भी प्रयोग में आ गया है। एक मिनट में एक तकुए के 10 हज़ार से लेकर 12 हज़ार चक्कर तक होते हैं। सादे चरखे में ये चार हज़ार से लेकर पाँच हज़ार तक ही होते हैं और चूँकि सादे चरखे में एक ही तकुआ होता है, इसलिये चार तकुए वाले अंबर चरखे में चौगुना और आठ तकुए वाले अंबर चरखे में आठ गुना सूत कतता है। साथ ही, अंबर चरखे को भरने के लिये रोकना नहीं पड़ता, इसलिये उसे सादे चरखे की अपेक्षा दो तीन गुना अधिक तो यों ही घुमाया जा सकता है। अंबर चरखे पर कते हुए सूत की मज़बूती भी मिल के सूत जैसी होती है।
;आकार
;आकार
अंबर चरखे का आकार बड़े टाइप राइटर जितना होता है। इसकी लंबाई 21 इंच, ऊंचाई 21 इंच और चौड़ाई 16 इंच होती है। इसका वजन क़रीब 26 पाउंड होता है। यह घर में कहीं भी आसानी से रखा जा सकता है और सरलता से उठाया जा सकता है।
अंबर चरखे का आकार बड़े 'टाइप राइटर' जितना होता है। इसकी लंबाई 21 इंच, ऊंचाई 21 इंच और चौड़ाई 16 इंच होती है। इसका वजन क़रीब 26 पाउंड होता है। यह घर में कहीं भी आसानी से रखा जा सकता है और सरलता से उठाया जा सकता है।
;नया नमूना
;नया नमूना
अंबर चरखे का जो नया नमूना बना है, उसमें अंबर बेलनी की आवश्यकता नहीं पड़ती। धुनाई मोड़िया का काम भी इसी से लिया जाता है। इस प्रकार रुई धुनने से लेकर कातने तक की सारी प्रक्रिया एक ही यंत्र से हो जाती है।
अंबर चरखे का जो नया नमूना बना है, उसमें 'अंबर बेलनी' की आवश्यकता नहीं पड़ती। धुनाई मोड़िया का काम भी इसी से लिया जाता है। इस प्रकार रुई धुनने से लेकर कातने तक की सारी प्रक्रिया एक ही यंत्र से हो जाती है।
;गति
;गति
सारी प्रक्रिया एक साथ करने पर अंबर चरखे पर सात घंटे में 9 से लेकर 12 गुंडी तक की गति आई है। महीन सूत भी 120 नंबर तक का काता गया है। अगर पूनी अलग बनी हुई हो, तो 7 घंटे में 30 गुंडी तक सूत इस पर काता जा सकता है। अंबर चरखे की कताई पूनी बनाने की कला पर निर्भर है। जितने अंक का सूत कातना है, उसी के हिसाब से पूनी भी महीन या मोटी बनाई जाती है। महीन और मोटी पूनी कपास की जाति तथा उसके रेशों की लंबाई और लचीलेपन पर निर्भर करती है।
सारी प्रक्रिया एक साथ करने पर अंबर चरखे पर सात घंटे में 9 से लेकर 12 गुंडी तक की गति आई है। महीन सूत भी 120 नंबर तक का काता गया है। अगर पूनी अलग बनी हुई हो, तो 7 घंटे में 30 गुंडी तक सूत इस पर काता जा सकता है। अंबर चरखे की कताई पूनी बनाने की कला पर निर्भर है। जितने अंक का सूत कातना है, उसी के हिसाब से पूनी भी महीन या मोटी बनाई जाती है। महीन और मोटी पूनी कपास की जाति तथा उसके रेशों की लंबाई और लचीलेपन पर निर्भर करती है।
;सुधार
;सुधार
अंबर चरखे में बराबर सुधार होता जा रहा है। उसे विद्युच्छक्ति से चलाने की बात भी सोची जा रही है और कहीं कहीं इससे चलाया भी जा रहा है, लेकिन सबसे बड़ी बात है उसकी मरम्मत। ग्रामीण यंत्र ऐसा होना चाहिए कि, खेती के औजारों की भाँति ही, बिगड़ने पर देहात में उसे सुधारा जा सके। सुधार करने वाले लोगों का ध्यान इस तरफ बराबर रहा है। पूर्वोंक्त कारणों से इस चरखे को अधिकांश लकड़ी का बनाना जरूरी समझा गया।  
अंबर चरखे में बराबर सुधार होता जा रहा है। उसे विद्युत शक्ति से चलाने की बात भी सोची जा रही है और कहीं कहीं इससे चलाया भी जा रहा है, लेकिन सबसे बड़ी बात है उसकी मरम्मत। ग्रामीण यंत्र ऐसा होना चाहिए कि खेती के औजारों की भाँति ही, बिगड़ने पर देहात में उसे सुधारा जा सके। सुधार करने वाले लोगों का ध्यान इस तरफ बराबर रहा है। पूर्वोक्त कारणों से इस चरखे को अधिकांश लकड़ी का बनाना ज़रूरी समझा गया।  
 


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10:44, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

चरखे पर सूत कातते गाँधी जी, गांधी स्मृति संग्रहालय, दिल्ली

चरखा एक हस्तचालित यंत्र है जिससे सूत तैयार किया जाता है। चरखा यंत्र का जन्म और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर 'चरखा संघ' की ओर से काफ़ी खोजबीन की गई थी। अंग्रेज़ों के भारत आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 ई. तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। सन्‌ 1702 में अकेले इंग्लैंड ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी ख़रीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर अनेक सुंदर कविताएँ लिखी हैं। सन्‌ 1960 में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मज़बूती, बारीकी और पारदर्शिता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई है।

इतिहास

भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम महात्मा गांधी के जीवनकाल का ही मानना चाहिए। सबसे पहले सन्‌ 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। सन्‌ 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद सन्‌ 1918 में एक विधवा बहन के पास खड़ा चरखा मिला।

खड़ा चरखा

इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई[1] और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के भिन्न भिन्न भागों में भिन्न भिन्न आकार के खड़े चरखे चलते हैं। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल[2] का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था।

संघ की स्थापना

सन्‌ 1920 में विनोबा जी और उनके साथी साबरमती आश्रम में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद ही (18 अप्रैल, सन्‌ 1921 को) मगनवाड़ी, (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया था और उन्हें सारे देश में फैलाना चाहा था। सन्‌ 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादी मंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। अत: पटना में 22 सितंबर, 1925 को 'अखिल भारत चरखा संघ' की स्थापना हुई।

चरखा, साबरमती आश्रम, अहमदाबाद

संशोधन

चरखे में संशोधन हो, इसके लिये गांधी जी बहुत बेचैन थे। सन्‌ 1923 में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं प्राप्त हुआ। 29 जुलाई सन्‌ 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपया पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधी जी ने जो शर्ते रखी थीं उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्त पूरी न होने के कारण असफल ही रहा।

चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शक्ल में सुधार हुआ। गांधी जी स्वयं कताई करते थे। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। श्री सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बाँस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बाँस का ही जनताचक्र[3] बनाया गया, जिस पर श्री वीरेन्द्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिये या प्रवास में कातने के लिये 'प्रवास चक्र' भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था। इस प्रकार अब तक बने हुए चरखों में गति और सूत की मज़बूती की दृष्टि से किसान चरखा सबसे अच्छा रहा। फिर भी देहात की कत्तिनों में खड़ा चरखा ही अधिक प्रिय बना रहा। गांधी जी के स्वर्गवास के बाद भी चरखे के संशोधन और प्रयोग का काम बराबर चलता रहा।

अंबर चरखा

सन्‌ 1949 में तमिलनाडु के एक युवक कार्यकर्ता श्री एकंबरनाथ जी का नया प्रयोग सामने आया। अभी तक चरखे पर जो कताई होती थी, वह लेटे तकुवों द्वारा होती थी। तकुवे की गिर्री को गति देने का काम सूत की माल से लिया जाता था। एकंबरनाथ जी ने जो चरखा बनाया उसमें तकुवे खड़े लगे थे। खड़े तकुवे की पद्धति कपड़े की मिलों की है। तकुवा अब भी सूत की माल से ही चलता है, लेकिन वह एक रिंग में घूमता है। चूंकि इस चरखे के आविष्कारक श्री एकंबरनाथ जी हैं, इसलिये इस चरखे का नाम 'अंबर' रखा गया। अंबर का अर्थ वस्त्र होने से यह और भी उचित जान पड़ा।

अंबर चरखा अब तक के चरखों में सर्वाधिक क्रांतिकारी क़दम है। इस पर कातने के लिये पूनी भी मिल की पूनी जैसी चाहिए। इसलिये पूनी बनाने के लिये 'अंबर बेलनी' और कातने के लिये 'अंबर चरखा' अलग अलग दो यंत्र बनाए गए। कपास ओटने और रुई धुनने के यंत्रों में भी सुधार किया गया। धुनने के लिये मिल पद्धति का धुनाई मोड़िया बनाया गया। अंबर चरखे का प्रयोग पहले तमिलनाडु में किया गया, बाद में दूसरे प्रदेशों में भी लगभग 400 कार्यकर्ताओं को शिक्षण देकर काम चालू किया गया।

अंतर
चरखा

सादे चरखे और अंबर चरखे में यह बहुत बड़ा अंतर है कि सादे चरखे में कातते समय सूत भरने के लिये चरखे को रोककर तथा पीछे घुमाकर फिर आगे चलाना पड़ता है। अंबर चरखे में भरने और बटने की क्रिया चूड़ी और नथनी द्वारा अपने आप होती है। आरंभ में इसमें एक ही तकुआ (तकला) चालू किया गया था। फिर चार तकुएवाला अंबर चरखा चालू किया गया, और अब आठ तकुओं का अंबर चरखा भी प्रयोग में आ गया है। एक मिनट में एक तकुए के 10 हज़ार से लेकर 12 हज़ार चक्कर तक होते हैं। सादे चरखे में ये चार हज़ार से लेकर पाँच हज़ार तक ही होते हैं और चूँकि सादे चरखे में एक ही तकुआ होता है, इसलिये चार तकुए वाले अंबर चरखे में चौगुना और आठ तकुए वाले अंबर चरखे में आठ गुना सूत कतता है। साथ ही, अंबर चरखे को भरने के लिये रोकना नहीं पड़ता, इसलिये उसे सादे चरखे की अपेक्षा दो तीन गुना अधिक तो यों ही घुमाया जा सकता है। अंबर चरखे पर कते हुए सूत की मज़बूती भी मिल के सूत जैसी होती है।

आकार

अंबर चरखे का आकार बड़े 'टाइप राइटर' जितना होता है। इसकी लंबाई 21 इंच, ऊंचाई 21 इंच और चौड़ाई 16 इंच होती है। इसका वजन क़रीब 26 पाउंड होता है। यह घर में कहीं भी आसानी से रखा जा सकता है और सरलता से उठाया जा सकता है।

नया नमूना

अंबर चरखे का जो नया नमूना बना है, उसमें 'अंबर बेलनी' की आवश्यकता नहीं पड़ती। धुनाई मोड़िया का काम भी इसी से लिया जाता है। इस प्रकार रुई धुनने से लेकर कातने तक की सारी प्रक्रिया एक ही यंत्र से हो जाती है।

गति

सारी प्रक्रिया एक साथ करने पर अंबर चरखे पर सात घंटे में 9 से लेकर 12 गुंडी तक की गति आई है। महीन सूत भी 120 नंबर तक का काता गया है। अगर पूनी अलग बनी हुई हो, तो 7 घंटे में 30 गुंडी तक सूत इस पर काता जा सकता है। अंबर चरखे की कताई पूनी बनाने की कला पर निर्भर है। जितने अंक का सूत कातना है, उसी के हिसाब से पूनी भी महीन या मोटी बनाई जाती है। महीन और मोटी पूनी कपास की जाति तथा उसके रेशों की लंबाई और लचीलेपन पर निर्भर करती है।

सुधार

अंबर चरखे में बराबर सुधार होता जा रहा है। उसे विद्युत शक्ति से चलाने की बात भी सोची जा रही है और कहीं कहीं इससे चलाया भी जा रहा है, लेकिन सबसे बड़ी बात है उसकी मरम्मत। ग्रामीण यंत्र ऐसा होना चाहिए कि खेती के औजारों की भाँति ही, बिगड़ने पर देहात में उसे सुधारा जा सके। सुधार करने वाले लोगों का ध्यान इस तरफ बराबर रहा है। पूर्वोक्त कारणों से इस चरखे को अधिकांश लकड़ी का बनाना ज़रूरी समझा गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी
  2. आंध्र प्रदेश
  3. किसान चरखे की ही भाँति

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