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*एन.जी. रंगा एक प्रमुख कृषक नेता तथा सांसद थे।
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==जन्म तथा शिक्षा==
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====व्यावसायिक शुरुआत====
एन.जी. रंगा जी के ऊपर [[विपिन चन्द्र पाल]] तथा अन्य क्रान्तिकारियों के साथ-साथ प्राचीन भारतीय [[साहित्य]], [[रामायण]], [[महाभारत]] का भी प्रभाव पड़ा। [[भारत]] लौटने पर उन्होंने [[मद्रास]] के कॉलेज में अध्यापन का कार्य आरम्भ किया।
==राजनीति में प्रवेश==
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*एन.जी. रंगा ने [[1931]] ई. में आन्ध्र प्रदेश रैयत सभा की स्थापना की।
*वे कांग्रेस समाजवादी पार्टी से उसकी स्थापना के साथ ही जुड़ गए थे।
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एन.जी. रंगा
एन.जी. रंगा
एन.जी. रंगा
पूरा नाम एन.जी. रंगा
जन्म 7 नवम्बर, 1900
जन्म भूमि गुंटूर ज़िला, आंध्र प्रदेश
मृत्यु 9 जून, 1995
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी तथा किसान नेता
पार्टी कांग्रेस
पुरस्कार-उपाधि 'पद्म विभूषण'
विशेष समाज सुधार के क्षेत्र में भी एन.जी. रंगा अग्रणी रहे। वर्ष 1923 में उन्होंने अपने घर का कुआँ हरिजनों के लिए खोल दिया था।
अन्य जानकारी राजगोपालाचारी के साथ 1959 में एन.जी. रंगा ‘स्वतंत्र पार्टी’ में सम्मिलित हुए और उसके अध्यक्ष बनाये गए। वे लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए और वहाँ अपने दल के नेता भी रहे।

एन.जी. रंगा (अंग्रेज़ी: N. G. Ranga ; जन्म- 7 नवम्बर, 1900, गुंटूर ज़िला, आंध्र प्रदेश; मृत्यु- 9 जून, 1995) भारत के स्वतंत्रता सेनानी, सांसद तथा प्रसिद्ध किसान नेता थे। ये आरम्भ से ही किसानों की समस्याओं से जुड़े रहे। इन्होंने किसानों के शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा उन्हें संगठित किया। एन.जी. रंगा उन चंद नेताओं में से एक थे, जिन्हें कृषि की समस्याओं का गहन ज्ञान था। साथ ही उन्होंने किसानों के भूमि अधिकार के लिए दो दशकों तक कार्य किया। उन्होंने कांग्रेस में कई महत्त्वपूर्ण पद प्राप्त किए, लेकिन सहकारी कृषि पर जवाहर लाल नेहरू के साथ विवाद होने के कारण उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। एन.जी. रंगा ने 'कृषिकर लोक पार्टी' के नाम से किसानों की एक पार्टी की स्थापना की थी, जिसका बाद में स्वतंत्र पार्टी में विलय हो गया, जिसके वे संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष थे।

जन्म तथा शिक्षा

प्रसिद्ध समाजवादी और कृषक नेता एन.जी. रंगा का जन्म आन्ध्र प्रदेश के गुंटूर ज़िले में 7 नवम्बर, 1900 ई. को हुआ था। इनके बचपन में ही माता-पिता का निधन हो गया था। इनकी विधवा चाची ने उनका पालन-पोषण किया। गुंटूर में स्नातक की शिक्षा पूरी करने के बाद एन.जी. रंगा 'आई. सी. एस.' की परीक्षा देने के उद्देश्य से 1920 में इंग्लैण्ड गए, परन्तु 'ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय' में जी. डी. एच. कोल, ब्रेल्सफ़ोर्ड, रेडफ़ोर्ड जैसे समाजवादी विचारकों के प्रभाव में आकर रंगा ने अपने विचार बदल लिए और उन्होंने साहित्य की डिग्री ली।

व्यावसायिक शुरुआत

एन.जी. रंगा जी के ऊपर विपिन चन्द्र पाल तथा अन्य क्रान्तिकारियों के साथ-साथ प्राचीन भारतीय साहित्य, रामायण, महाभारत का भी प्रभाव पड़ा। भारत लौटने पर उन्होंने मद्रास के कॉलेज में अध्यापन का कार्य आरम्भ किया।

राजनीति में प्रवेश

शीघ्र ही रंगा जी ने अध्यापन कार्य छोड़ दिया और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। वे किसानों को संगठित करने के काम में जुट गए। बाद में वे 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य और 'आन्ध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी' के अध्यक्ष बने। एन.जी. रंगा कृषि उत्पादकों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के संस्थापक सदस्य थे। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्हें कई बार जेल की सज़ाएँ भी भोगनी पड़ीं। उन्होंने 1927 से 1930 तक मद्रास विश्वविद्यालय में और 1980 में आन्ध्र विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम किया था। इससे वे 'प्रोफ़ेसर रंगा' कहलाते थे। राजगोपालाचारी के साथ 1959 में रंगा ‘स्वतंत्र पार्टी’ में सम्मिलित हुए और उसके अध्यक्ष बने। वे लोकसभा के अध्यक्ष चुने गए और वहाँ अपने दल के नेता रहे। 1973 में उन्होंने ‘स्वतंत्र पार्टी’ छोड़ दी और फिर से कांग्रेस में आ गए।

समाज सुधार

समाज सुधार के क्षेत्र में भी एन.जी. रंगा अग्रणी रहे। 1923 में उन्होंने अपने घर का कुआँ हरिजनों के लिए खोल दिया। महिलाओं को आगे बढ़ाने का सदा समर्थन करते रहे। आन्ध्र प्रदेश को अलग राज्य बनाने के आन्दोलन के भी वे प्रमुख नेता थे।

विशेष बिन्दु

  • एन.जी. रंगा ने 1931 ई. में आन्ध्र प्रदेश रैयत सभा की स्थापना की।
  • वे कांग्रेस समाजवादी पार्टी से उसकी स्थापना के साथ ही जुड़ गए थे।
  • इन्होंने आन्ध्र प्रदेश के नीदुब्रोलु कस्बे में ‘इण्डियन पेजेण्ट इन्स्टीट्यूट’ की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य किसान कार्यकलापों को प्रशिक्षण देना था।
  • स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् वे लोक सभा के सदस्य बने तथा लगातार आठ बार लोक सभा के लिए चुने गए, जो कीर्तिमान है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

नागोरी, डॉ. एस.एल. “खण्ड 3”, स्वतंत्रता सेनानी कोश (गाँधीयुगीन), 2011 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: गीतांजलि प्रकाशन, जयपुर, पृष्ठ सं 84।

संबंधित लेख

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