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'''कैप्टन लक्ष्मी सहगल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Lakshmi Sahgal'', जन्म: [[24 अक्टूबर]], [[1914]], [[मद्रास]] (अब [[चेन्नई]]); मृत्यु: [[23 जुलाई]], [[2012]] [[कानपुर]]) महान् स्वतंत्रता सेनानी और [[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] की अधिकारी थीं। वे आज़ाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री रहीं। [[सुभाष चंद्र बोस]] के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए लक्ष्मी सहगल ने कई सराहनीय काम किये। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी सहगल ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था, उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फ़ौज तैयार की, जो [[एशिया]] मे अपने तरह की पहली विंग थी।
==जीवन परिचय==
[[भारत]] की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी [[सुभाष चंद्र बोस]] की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म [[24 अक्टूबर]], [[1914]] को [[मद्रास]] (अब [[चेन्नई]]) में हुआ था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल का [[विवाह]] से पहले नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। उनके [[पिता]] का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता [[मद्रास उच्च न्यायालय]] के जाने माने वकील थे। उनकी माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी और [[केरल]] के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी [[परिवार]] से थीं, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक [[तमिल भाषा|तमिल]] परंपरावादी परिवार था। लक्ष्मी सहगल शुरूआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं। उनका कहना था कि यह बात उन्होंने अपनी माँ से विरासत में पायी जो हमेशा दूसरों की मदद किया करती थीं।
===शिक्षा और आरंभिक जीवन===
कैप्‍टन लक्ष्मी पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष [[1930]] में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए [[1932]] में लक्ष्मी ने [[विज्ञान]] में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन डॉ. सहगल शुरू से ही बीमार ग़रीबों को इलाज के लिये परेशान देखकर दु:खी हो जाती थीं। इसी के मद्देनज़र उन्होंने ग़रीबों की सेवा के लिये चिकित्सा पेशा चुना और [[1938]] में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष [[1939]] में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी को विदेश जाने का अवसर मिला और वह [[1940]] में [[सिंगापुर]] चली गयीं। जहां उन्होंने ग़रीब भारतीयों और मज़दूरों (माइग्रेन्टस लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।


देश की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वालीं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाषचंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर, 1914 को मद्रास में हुआ था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल का शादी से पहले नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। उनके पिता का नाम एस. स्वामिनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील और उनकी माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी थी जिन्होंने आजादी के आंदोलनो में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तमिल परंपरावादी परिवार था।
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मज़दूरों के लिए निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि 'भारत स्वतंत्रता संघ' की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने घायल युद्धबन्दियों के लिये काफ़ी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।
====नेताजी से मुलाकात====
विदेश में मज़दूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस [[2 जुलाई]] [[1943]] को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्‍मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: क़रीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आज़ादी का जज़्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में 'रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट' बनाने की घोषणा कर दी जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गयीं जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। [[22 अक्तूबर]], [[1943]] में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झाँसी रेजिमेंट में 'कैप्टन' पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें 'कर्नल' का पद भी मिला, जो [[एशिया]] में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें 'कैप्टन लक्ष्मी' के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई 'आज़ाद हिंद सरकार' की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह 'आज़ाद हिन्द फौज' की अधिकारी तथा 'आज़ाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री थीं।
====आज़ाद हिंद फौज़ में शामिल====
राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित लक्ष्मी स्वामीनाथन डॉक्टरी पेशे से निकलकर आजाद हिंद फौज़ में शामिल हो गईं। अब लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर ही नहीं बल्कि कैप्टन लक्ष्मी के नाम से भी लोगों के बीच जानी जाने लगीं। उनके नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट में कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियां चूडिय़ां तो पहनती हैं लेकिन समय आने पर वह बन्दूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।
====तैयार की 500 महिलाओं की फ़ौज====
[[सुभाष चंद्र बोस]] के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना मे रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किये। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने मे औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फ़ौज तैयार की जो एशिया मे अपने तरह की पहली विंग थी। लक्ष्मी सहगल ने हमेशा अमीरी ग़रीबी का विरोध किया। वो हमेशा सभी को एक समान नजरों से देखती। शायद यही वजह थी कि सुभाष चंद्र बोस के आलोचक भी उनके मुरीद हो गए। लक्ष्मी सहगल हमेशा से मानती रही हैं कि व्यक्ति की कथनी और करनी एक होनी चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में [[जापान]] की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की भी धरपकड़ शुरू की तो [[4 मार्च]] [[1946]] को लक्ष्मी सहगल भी सिंगापुर में गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें भारत लाया गया लेकिन आजादी के लिए तेज़ीसे बढ़ रहे दबाव के बीच उन्हें रिहा कर दिया गया।
==राजनीति में==
पति की मौत के बाद कैप्टन लक्ष्मी कानपुर आकर रहने लगीं और बाद में कैप्टन सहगल सक्रिय राजनीति में भी आयीं। 1971 में वह मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी/ माकपा (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया/ सीपीआईएम) की सदस्यता ग्रहण की और [[राज्यसभा]] में पार्टी का प्रतिनिधित्व किया। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (ऑल इण्डिया डेमोक्रेटिक्स वोमेन्स एसोसिएशन) की संस्थापक सदस्यों में रहीं। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए काफ़ी संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान और संघर्ष को देखते हुए उन्हें 1998 में [[भारत के राष्ट्रपति]] [[के. आर. नारायणन]] द्वारा [[पद्मविभूषण]] सम्मान से नवाजा गया। वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उनकी पार्टी (वाम दल) के लोगों के दबाव में उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति [[अब्दुल कलाम|एपीजे अब्दुल कलाम]] के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव मैदान में भी उतरी लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई। एक लम्बे राजनीतिक जीवन को जीने के बाद 1997 में वह काफ़ी कमज़ोर हो गयीं। उनके क़रीबी बताते हैं कि शरीर से कमज़ोर होने के बाद भी कैप्टन सहगल हमेशा लोगों की भलाई के बारे में सोचती थीं तथा मरीजों को देखने का प्रयास करती थीं।
[[चित्र:lakshmi sehgal bose.jpg|thumb|350px|[[आज़ाद हिंद फ़ौज]] में [[सुभाष चन्द्र बोस]] और कैप्टन लक्ष्मी सहगल]]


कैप्‍टन सहगल 1932 में विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन डा सहगल शुरू से ही बीमार गरीबों को इलाज के लिये परेशान देखकर दुखी हो जाती थीं। इसी के मददेनजर उन्होंने गरीबो की सेवा के लिये चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कालेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री हासिल की और अगले वर्ष 1939 में जच्चा-बच्चा रोग विशेषज्ञ बनीं। वह महिला रोग विशेषज्ञ थीं। वह 1940 में सिंगापुर गईं और खासकर भारतीय गरीब मजदूरों के इलाज के लिए वहा क्लिनिक खोला। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने घायल युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया।
==विवाह और परिवार==
देश आजाद होने ही वाला था कि [[लाहौर]] के कर्नल प्रेम कुमार सहगल से उनके [[विवाह]] की बात चली और उन्होंने हामी भर दी। वर्ष [[1947]] में उनका विवाह प्रेम कुमार के साथ हो गया तथा वह कैप्टन लक्ष्मी से कैप्टन लक्ष्मी सहगल हो गयीं।  कैप्टन सहगल की दो बेटियां सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी हैं। एक बेटी सुभाषिनी ने फ़िल्म निर्माता मुजफ्फर अली से विवाह किया। सुभाषिनी अली [[1989]] में [[कानपुर]] से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फ़िल्म 'अमू' में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ. सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फ़िल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने 'साथिया', 'बंटी और बबली' इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना [[मृणालिनी साराभाई]] उनकी सगी बहन हैं।
==साम्यवाद की समर्थक==
सुभाषिनी के अनुसार कैप्टन डॉ. सहगल कम्युनिस्ट विचार धारा से ज़रूर जुड़ी थी और हमेशा साम्यवाद की बात करती थी, लेकिन वह कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से राज्य सभा की सांसद नहीं चुनी गयी, हालांकि वह कम्युनिस्ट आन्दोलन से लगातार जुड़ी रहीं। वह कभी [[राज्यसभा]] की सांसद भी नहीं रही। आईएनए में उनकी सहयोगी और उनकी दोस्त क़रीब 92 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी मानवती आर्य के अनुसार वह देशभक्ति का एक जीता जागता नमूना थीं और हम सबकी प्रेरणा और मार्गदर्शक थीं। वह साम्यवाद की समर्थक थीं और देश में साम्यवाद चाहती थीं। उनका सपना देश में साम्यवाद लाना था और सभी को समान अधिकार दिलाना था।
==निधन==
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में [[23 जुलाई]] [[2012]] की सुबह 11:20 बजे [[कानपुर]] के हैलेट अस्पताल में हुई थीं। उन्हें [[19 जुलाई]] को दिल का दौरा पडऩे के बाद भर्ती कराया गया था, जहां उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गयीं। क़रीब पांच दिनों तक जिन्दगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अन्तिम जंग हार गयीं। स्‍वतंत्रता सेनानी, डॉक्‍टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्‍हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई सालों से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक़ उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर ग़रीबों और मज़दूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।


देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्‍मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: उन्होंने नेताजी से अपने को भी शामिल करने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने वहां आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए एक महिला रेजीमेंट बनाने की घोषणा की और रानी लक्ष्मी बाई रेजीमेंट गठित की। अक्तूबर 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टेन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। आजाद हिन्द फौज की अधिकारी तथा 'आजाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री थीं।
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दितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की भी धरपकड़ की और 4 मार्च 1946 को वे सिंगापुर में पकड़ी गईं पर बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया। डॉ. लक्ष्मी ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और उसके बाद वह कानपुर में ही रहने लगी और यहीं मेडिकल प्रैक्टिस करने लगी। उनकी पुत्री माकपा नेता सुभाषिनी अली के अनुसार वह दो बहने हैं उनकी एक और बहन अनीसा पुरी है।
 
बाद में कैप्टन सहगल सक्रिय राजनीति में भी आयीं और 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी / माकपा (सीपीआईएम) की सदस्यता ग्रहण की और राज्यसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व किया। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। 1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वर्ष 2002 में वाम दलों की तरफ से वह पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के खिलाफ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव मैदान में भी उतरी लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
 
उनकी बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फिल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने साथिया, बंटी और बबली इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।
 
1952 से कानपुर में प्रैक्टिस कर रही कैप्टन डा लक्ष्मी सहगल का पहला प्यार उनका अपना प्रोफेशन था। आर्यनगर स्थित क्लीनिक में मरीजों का भारी जमावड़ा रहता था। इसके अलावा वह अपने नाती (सुभाषिनी के बेटे) फिल्म निर्देशक शाद अली की हर फिल्म सिनेमा हाल में जाकर देखती थी फिर वह चाहे बंटी और बबली हो या फिर चोर मचाये शोर। कुछ साल पहले एक बार फिल्म देखकर थियेटर से निकल रही डा सहगल से जब इस संवाददाता ने पूछा था कि कैसी लगी आपको शाद की फिल्म तो उन्होंने कहा कि बहुत अच्छी फिल्म बनाता है वह।
[[चित्र:lakshmi sehgal bose.jpg|thumb|350px|आज़ाद हिंद फ़ौज मंदिर में सुभाष चन्द्र बोस और  कैप्टन डा लक्ष्मी सहगल)]]
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई 2012 को कानपुर के एक अस्‍पताल में दिल का दौरा पड़ने से हो गया था। स्‍वतंत्रता सेनानी, डॉक्‍टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्‍हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई सालों से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उन्‍होंने अपना पूरा शरीर भी एक अस्‍पताल को दान कर दिया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।
 
कानपुर: वयोवृद्ध कैप्टन डा लक्ष्मी सहगल को गरीब मरीजों का इतना ध्यान रहता था कि दिल का दौरा पड़ने से करीब 15 घंटे पहले तक अपने शहर में स्थित आर्यनगर के क्लीनिक में बैठकर मरीजों को देख रही थीं। यह कहना है उनकी बेटी और माकपा नेता तथा पूर्व सांसद सुभाषिनी अली का। कैप्टन सहगल के साथ अंतिम समय तक उनके पास रही अली का कहना है कि उनको मरीजों की सेवा करने का एक अजब सा जुनून था वह कभी इस बात का ख्याल नही करती थीं कि उनके मरीज के पास इलाज के लिये पैसा है या नही बस वह इलाज शुरू कर देती थी तभी उन्हें एक बार दिखाने आने वाली महिला रोगी उनकी फैन हो जाती थी और हमेशा उनसे ही अपना इलाज कराने आती थीं और वह भी अपने मरीजों को देखने के लिये हमेशा तैयार रहती थीं।
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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09:48, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

लक्ष्मी सहगल
लक्ष्मी सहगल
लक्ष्मी सहगल
पूरा नाम कैप्टन लक्ष्मी सहगल
अन्य नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन (विवाह से पहले)
जन्म 24 अक्टूबर, 1914
जन्म भूमि मद्रास (अब चेन्नई)
मृत्यु 23 जुलाई, 2012
मृत्यु स्थान कानपुर
मृत्यु कारण दिल का दौरा
अभिभावक पिता- एस. स्वामीनाथन और माता- एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू)
पति/पत्नी कर्नल प्रेम कुमार सहगल
संतान दो पुत्रियाँ- सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी
नागरिकता भारतीय
पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी
पद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
शिक्षा 1932 में विज्ञान में स्नातक, एम.बी.बी.एस., डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी
विद्यालय मद्रास मेडिकल कालेज
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि पद्म विभूषण
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कैप्टन लक्ष्मी सहगल (अंग्रेज़ी: Lakshmi Sahgal, जन्म: 24 अक्टूबर, 1914, मद्रास (अब चेन्नई); मृत्यु: 23 जुलाई, 2012 कानपुर) महान् स्वतंत्रता सेनानी और आज़ाद हिन्द फ़ौज की अधिकारी थीं। वे आज़ाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री रहीं। सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए लक्ष्मी सहगल ने कई सराहनीय काम किये। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी सहगल ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था, उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फ़ौज तैयार की, जो एशिया मे अपने तरह की पहली विंग थी।

जीवन परिचय

भारत की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर, 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ था। कैप्टन लक्ष्मी सहगल का विवाह से पहले नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। उनके पिता का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील थे। उनकी माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी और केरल के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थीं, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तमिल परंपरावादी परिवार था। लक्ष्मी सहगल शुरूआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं। उनका कहना था कि यह बात उन्होंने अपनी माँ से विरासत में पायी जो हमेशा दूसरों की मदद किया करती थीं।

शिक्षा और आरंभिक जीवन

कैप्‍टन लक्ष्मी पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन डॉ. सहगल शुरू से ही बीमार ग़रीबों को इलाज के लिये परेशान देखकर दु:खी हो जाती थीं। इसी के मद्देनज़र उन्होंने ग़रीबों की सेवा के लिये चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष 1939 में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी को विदेश जाने का अवसर मिला और वह 1940 में सिंगापुर चली गयीं। जहां उन्होंने ग़रीब भारतीयों और मज़दूरों (माइग्रेन्टस लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मज़दूरों के लिए निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि 'भारत स्वतंत्रता संघ' की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने घायल युद्धबन्दियों के लिये काफ़ी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।

नेताजी से मुलाकात

विदेश में मज़दूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चन्द्र बोस 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्‍मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: क़रीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आज़ादी का जज़्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में 'रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट' बनाने की घोषणा कर दी जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गयीं जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। 22 अक्तूबर, 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झाँसी रेजिमेंट में 'कैप्टन' पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें 'कर्नल' का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें 'कैप्टन लक्ष्मी' के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई 'आज़ाद हिंद सरकार' की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह 'आज़ाद हिन्द फौज' की अधिकारी तथा 'आज़ाद हिन्द सरकार' में महिला मामलों की मंत्री थीं।

आज़ाद हिंद फौज़ में शामिल

राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित लक्ष्मी स्वामीनाथन डॉक्टरी पेशे से निकलकर आजाद हिंद फौज़ में शामिल हो गईं। अब लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर ही नहीं बल्कि कैप्टन लक्ष्मी के नाम से भी लोगों के बीच जानी जाने लगीं। उनके नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट में कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियां चूडिय़ां तो पहनती हैं लेकिन समय आने पर वह बन्दूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।

तैयार की 500 महिलाओं की फ़ौज

सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना मे रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किये। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने मे औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फ़ौज तैयार की जो एशिया मे अपने तरह की पहली विंग थी। लक्ष्मी सहगल ने हमेशा अमीरी ग़रीबी का विरोध किया। वो हमेशा सभी को एक समान नजरों से देखती। शायद यही वजह थी कि सुभाष चंद्र बोस के आलोचक भी उनके मुरीद हो गए। लक्ष्मी सहगल हमेशा से मानती रही हैं कि व्यक्ति की कथनी और करनी एक होनी चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की भी धरपकड़ शुरू की तो 4 मार्च 1946 को लक्ष्मी सहगल भी सिंगापुर में गिरफ्तार कर ली गईं। उन्हें भारत लाया गया लेकिन आजादी के लिए तेज़ीसे बढ़ रहे दबाव के बीच उन्हें रिहा कर दिया गया।

राजनीति में

पति की मौत के बाद कैप्टन लक्ष्मी कानपुर आकर रहने लगीं और बाद में कैप्टन सहगल सक्रिय राजनीति में भी आयीं। 1971 में वह मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी/ माकपा (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया/ सीपीआईएम) की सदस्यता ग्रहण की और राज्यसभा में पार्टी का प्रतिनिधित्व किया। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (ऑल इण्डिया डेमोक्रेटिक्स वोमेन्स एसोसिएशन) की संस्थापक सदस्यों में रहीं। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए काफ़ी संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान और संघर्ष को देखते हुए उन्हें 1998 में भारत के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन द्वारा पद्मविभूषण सम्मान से नवाजा गया। वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उनकी पार्टी (वाम दल) के लोगों के दबाव में उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव मैदान में भी उतरी लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई। एक लम्बे राजनीतिक जीवन को जीने के बाद 1997 में वह काफ़ी कमज़ोर हो गयीं। उनके क़रीबी बताते हैं कि शरीर से कमज़ोर होने के बाद भी कैप्टन सहगल हमेशा लोगों की भलाई के बारे में सोचती थीं तथा मरीजों को देखने का प्रयास करती थीं।

आज़ाद हिंद फ़ौज में सुभाष चन्द्र बोस और कैप्टन लक्ष्मी सहगल

विवाह और परिवार

देश आजाद होने ही वाला था कि लाहौर के कर्नल प्रेम कुमार सहगल से उनके विवाह की बात चली और उन्होंने हामी भर दी। वर्ष 1947 में उनका विवाह प्रेम कुमार के साथ हो गया तथा वह कैप्टन लक्ष्मी से कैप्टन लक्ष्मी सहगल हो गयीं। कैप्टन सहगल की दो बेटियां सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी हैं। एक बेटी सुभाषिनी ने फ़िल्म निर्माता मुजफ्फर अली से विवाह किया। सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फ़िल्म 'अमू' में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ. सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फ़िल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने 'साथिया', 'बंटी और बबली' इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।

साम्यवाद की समर्थक

सुभाषिनी के अनुसार कैप्टन डॉ. सहगल कम्युनिस्ट विचार धारा से ज़रूर जुड़ी थी और हमेशा साम्यवाद की बात करती थी, लेकिन वह कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से राज्य सभा की सांसद नहीं चुनी गयी, हालांकि वह कम्युनिस्ट आन्दोलन से लगातार जुड़ी रहीं। वह कभी राज्यसभा की सांसद भी नहीं रही। आईएनए में उनकी सहयोगी और उनकी दोस्त क़रीब 92 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी मानवती आर्य के अनुसार वह देशभक्ति का एक जीता जागता नमूना थीं और हम सबकी प्रेरणा और मार्गदर्शक थीं। वह साम्यवाद की समर्थक थीं और देश में साम्यवाद चाहती थीं। उनका सपना देश में साम्यवाद लाना था और सभी को समान अधिकार दिलाना था।

निधन

कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई 2012 की सुबह 11:20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में हुई थीं। उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पडऩे के बाद भर्ती कराया गया था, जहां उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गयीं। क़रीब पांच दिनों तक जिन्दगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अन्तिम जंग हार गयीं। स्‍वतंत्रता सेनानी, डॉक्‍टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्‍हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई सालों से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक़ उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर ग़रीबों और मज़दूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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