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'''सांध्यगीत''' [[महादेवी वर्मा]] का चौथा कविता संग्रह हैं। इसमें 1934 से 1936 ई० तक के रचित गीत हैं। 1936 में प्रकाशित इस कविता संग्रह के गीतों में [[नीरजा -महादेवी वर्मा|नीरजा]] के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। | '''सांध्यगीत''' [[महादेवी वर्मा]] का चौथा कविता संग्रह हैं। इसमें 1934 से 1936 ई० तक के रचित गीत हैं। 1936 में प्रकाशित इस कविता संग्रह के गीतों में [[नीरजा -महादेवी वर्मा|नीरजा]] के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। | ||
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सांध्यगीत में नीरजा के समान ही कुछ स्फुट गीत संग्रहीत हैं। नीहार के रचना-काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कुतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी जैसी बालक के मन में दूर दिखाई देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है, [[रश्मि -महादेवी वर्मा|रश्मि]] को उस समय आकार मिला जब मुझे अनुभूति से अधिक उसका चिन्तन प्रिय था परन्तु नीरजा और सान्ध्य गीत मेरी उस मानसिक स्थिति को व्यक्त कर सकेंगे जिसमें अनायास ही मेरी सुख-दुख में सामंजस्य का अनुभव करने लगा। पहले बाहर खिलने वाले फूल को देखकर मेरे रोम-रोम में ऐसा पुलक दौड़ जाता था मानों वह मेरे हृदय में खिला हो, परन्तु उसके अपने से भिन्न प्रत्यक्ष अनुभव में एक अव्यक्त वेदना भी थी; फिर यह सुख-दुख- मिश्रित अनुभूति ही चिन्तन का विषय बनने लगी और अन्त में अब मेरे मन में न जाने कैसे उस बाहर-भीतर में एक सामंजस्य सा ढूँढ़ लिया है जिसने सुख-दुख को इस प्रकार बुन दिया कि एक के प्रत्यक्ष अनुभव के साथ दूसरे का अप्रत्यक्ष आभास मिलता रहता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3272 |title=सांध्यगीत |accessmonthday=31 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> | सांध्यगीत में [[नीरजा -महादेवी वर्मा|नीरजा]] के समान ही कुछ स्फुट गीत संग्रहीत हैं। [[नीहार -महादेवी वर्मा|नीहार]] के रचना-काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कुतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी जैसी बालक के मन में दूर दिखाई देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है, [[रश्मि -महादेवी वर्मा|रश्मि]] को उस समय आकार मिला जब मुझे अनुभूति से अधिक उसका चिन्तन प्रिय था परन्तु नीरजा और सान्ध्य गीत मेरी उस मानसिक स्थिति को व्यक्त कर सकेंगे जिसमें अनायास ही मेरी सुख-दुख में सामंजस्य का अनुभव करने लगा। पहले बाहर खिलने वाले फूल को देखकर मेरे रोम-रोम में ऐसा पुलक दौड़ जाता था मानों वह मेरे हृदय में खिला हो, परन्तु उसके अपने से भिन्न प्रत्यक्ष अनुभव में एक अव्यक्त वेदना भी थी; फिर यह सुख-दुख- मिश्रित अनुभूति ही चिन्तन का विषय बनने लगी और अन्त में अब मेरे मन में न जाने कैसे उस बाहर-भीतर में एक सामंजस्य सा ढूँढ़ लिया है जिसने सुख-दुख को इस प्रकार बुन दिया कि एक के प्रत्यक्ष अनुभव के साथ दूसरे का अप्रत्यक्ष आभास मिलता रहता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3272 |title=सांध्यगीत |accessmonthday=31 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> | ||
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04:40, 2 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
सांध्यगीत -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | सांध्यगीत |
प्रकाशन तिथि | 1936 (पहला संस्करण) |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
प्रकार | काव्य संग्रह |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
सांध्यगीत महादेवी वर्मा का चौथा कविता संग्रह हैं। इसमें 1934 से 1936 ई० तक के रचित गीत हैं। 1936 में प्रकाशित इस कविता संग्रह के गीतों में नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है।
सारांश
सांध्यगीत में नीरजा के समान ही कुछ स्फुट गीत संग्रहीत हैं। नीहार के रचना-काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कुतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी जैसी बालक के मन में दूर दिखाई देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है, रश्मि को उस समय आकार मिला जब मुझे अनुभूति से अधिक उसका चिन्तन प्रिय था परन्तु नीरजा और सान्ध्य गीत मेरी उस मानसिक स्थिति को व्यक्त कर सकेंगे जिसमें अनायास ही मेरी सुख-दुख में सामंजस्य का अनुभव करने लगा। पहले बाहर खिलने वाले फूल को देखकर मेरे रोम-रोम में ऐसा पुलक दौड़ जाता था मानों वह मेरे हृदय में खिला हो, परन्तु उसके अपने से भिन्न प्रत्यक्ष अनुभव में एक अव्यक्त वेदना भी थी; फिर यह सुख-दुख- मिश्रित अनुभूति ही चिन्तन का विषय बनने लगी और अन्त में अब मेरे मन में न जाने कैसे उस बाहर-भीतर में एक सामंजस्य सा ढूँढ़ लिया है जिसने सुख-दुख को इस प्रकार बुन दिया कि एक के प्रत्यक्ष अनुभव के साथ दूसरे का अप्रत्यक्ष आभास मिलता रहता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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