"जगत उदयपुर": अवतरणों में अंतर

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जगत ऐतिहासिक [[अम्बिका]] मंदिर [[राजस्थान]], [[उदयपुर]] से 42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मातृदेवी के इस मंदिर में मातृदेवताओं तथा दिक्पालों के अतिरिक्त किसी भी अन्य देव की प्रतिमा का न होना, इसे अन्य मंदिरों से अलग करता है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इस मंदिर को 10वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 961 ई. (संवत् 1017) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समूह के तीन प्रमुख अंग है-
[[उदयपुर]], [[राजस्थान]] का एक ख़ूबसूरत शहर है। और [[उदयपुर पर्यटन]] का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इस मंदिर को 10वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 961 ई. (संवत् 1017) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समूह के तीन प्रमुख अंग है-
सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता है। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल के फूल पर खड़ी एक अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। यहाँ पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने का प्रयास 11वीं शताब्दी में इसके विकास में सहायक हुआ है।


सभामंडप सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता है। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल के फूल पर खड़ी एक अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। यहाँ पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने का प्रयास 11वीं शताब्दी में इसके विकास में सहायक हुआ है।
मुख्य मंदिर इस मंदिर में एक प्रवेश-द्वार-मंडप, सभामंडप तथा एक गर्भगृह है। इनको मातृदेवी [[दुर्गा]] के शांत, अभय एवं वरद रूप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ पर दुर्गा के सभी रुपों में [[महिषमर्दिनी]] रूप को प्रमुख माना जाता है। गर्भगृह की पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।


मुख्य मंदिर इस मंदिर में एक प्रवेश-द्वार-मंडप, सभामंडप तथा एक गर्भगृह है। इनको मातृदेवी [[दुर्गा]] के शांत, अभय एवं वरद रुप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ पर दुर्गा के सभी रुपों में [[महिषमर्दिनी]] रुप को प्रमुख माना जाता है। गर्भगृह की पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।
मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन किया गया है। [[महिषासुर]] का वर्णन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन [[चामुण्डा]] तथा [[भैरवी]] देवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रूप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर स्थित एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।
 
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मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन किया गया है। [[महिषासुर]] का वर्णन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन [[चामुण्डा]] तथा [[भैरवी]] देवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रुप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर स्थित एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।
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11:29, 11 जनवरी 2011 के समय का अवतरण

उदयपुर, राजस्थान का एक ख़ूबसूरत शहर है। और उदयपुर पर्यटन का सबसे आकर्षक स्थल माना जाता है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इस मंदिर को 10वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 961 ई. (संवत् 1017) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समूह के तीन प्रमुख अंग है- सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता है। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल के फूल पर खड़ी एक अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। यहाँ पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने का प्रयास 11वीं शताब्दी में इसके विकास में सहायक हुआ है।

मुख्य मंदिर इस मंदिर में एक प्रवेश-द्वार-मंडप, सभामंडप तथा एक गर्भगृह है। इनको मातृदेवी दुर्गा के शांत, अभय एवं वरद रूप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ पर दुर्गा के सभी रुपों में महिषमर्दिनी रूप को प्रमुख माना जाता है। गर्भगृह की पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।

मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन किया गया है। महिषासुर का वर्णन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन चामुण्डा तथा भैरवी देवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रूप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर स्थित एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।


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