"कुछ कुण्डलियाँ -त्रिलोक सिंह ठकुरेला": अवतरणों में अंतर
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बोता खुद ही आदमी, सुख या | बोता खुद ही आदमी, सुख या दु:ख के बीज । | ||
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज ।। | मान और अपमान का, लटकाता ताबीज ।। | ||
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में । | लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में । | ||
स्वर्ग, | स्वर्ग,नरक निर्माण, स्वयं कर लेता घर में । | ||
'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता । | 'ठकुरेला' कविराय, न सब कुछ यूँ ही होता । | ||
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।। | बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता ।। | ||
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नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता । | नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता । | ||
'ठकुरेला' कविराय, ताप कम होते मन के । | 'ठकुरेला' कविराय, ताप कम होते मन के । | ||
खुल जाते हैं द्वार, | खुल जाते हैं द्वार, जगत् में नव जीवन के ।। | ||
ताक़त ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात । | ताक़त ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात । | ||
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जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान । | जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान । | ||
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान ।। | विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान ।। | ||
लगती है आसान, नहीं | लगती है आसान, नहीं दु:ख से घबराता । | ||
ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता । | ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता । | ||
'ठकुरेला' कविराय, नहीं होता विचलित मन। | 'ठकुरेला' कविराय, नहीं होता विचलित मन। |
10:51, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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बोता खुद ही आदमी, सुख या दु:ख के बीज । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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