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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
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|चित्र=Ashok chakradhar-1.jpg
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|पूरा नाम=डा. अशोक चक्रधर
|पूरा नाम=डॉ. अशोक चक्रधर
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|जन्म=[[8 फ़रवरी]], सन [[1951]] ई.
|जन्म=[[8 फ़रवरी]], सन् [[1951]] ई.
|जन्म भूमि=[[खुर्जा]] ([[बुलन्दशहर]], [[उत्तर प्रदेश]])
|जन्म भूमि=[[खुर्जा]] ([[बुलन्दशहर]], [[उत्तर प्रदेश]])
|अविभावक=डा. राधेश्याम 'प्रगल्भ', श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ'
|अभिभावक=डॉ. राधेश्याम 'प्रगल्भ', श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ'
|पति/पत्नी=बागेश्री चक्रधर
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|संतान=अनुराग, स्नेहा
|संतान=अनुराग, स्नेहा
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|कर्म भूमि=[[भारत]]
|कर्म-क्षेत्र=हिन्दी कविता, कविसम्मेलन, रंगमंच
|कर्म-क्षेत्र=हिन्दी कविता, कवि सम्मेलन, [[रंगमंच]]
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|मृत्यु स्थान=
|मुख्य रचनाएँ=बूढ़े बच्चे, भोले भाले, तमाशा, बोल-गप्पे, मंच मचान, कुछ कर न चम्पू , अपाहिज कौन , मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया  
|मुख्य रचनाएँ='बूढ़े बच्चे', 'भोले भाले', 'तमाशा', 'बोल-गप्पे', 'मंच मचान', 'कुछ कर न चम्पू' , 'अपाहिज कौन', 'मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया' आदि।
|विषय=काव्य संकलन, निबंध-संग्रह, नाटक, बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा, लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, फीचर फ़िल्म लेखन
|विषय=काव्य संकलन, निबंध-संग्रह, नाटक, बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा, लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, फीचर फ़िल्म लेखन
|भाषा=[[हिन्दी भाषा]]  
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|विद्यालय=
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|शिक्षा=एम.ए., एम.लिट्., पी-एच.डी. (हिन्दी)
|शिक्षा=एम.ए., एम.लिट्., पी-एच.डी. (हिन्दी)
|पुरुस्कार-उपाधि=हास्य-रत्न उपाधि, बाल साहित्य पुरस्कार, आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड, निरालाश्री पुरस्कार, शान-ए-हिन्द अवार्ड
|पुरस्कार-उपाधि=[[पद्म श्री]], हास्य-रत्न उपाधि, बाल साहित्य पुरस्कार, आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड, निरालाश्री पुरस्कार, शान-ए-हिन्द अवार्ड
|प्रसिद्धि=हास्य व्यंग कवि
|प्रसिद्धि=हास्य व्यंग्य कवि
|विशेष योगदान=हिंदी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियाँ।
|विशेष योगदान=हिन्दी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियाँ।
|नागरिकता=भारतीय
|नागरिकता=भारतीय
|संबंधित लेख=
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=पद-भार और सदस्यता
|शीर्षक 1=पद-भार और सदस्यता
|पाठ 1=उपाध्यक्ष हिन्दी अकादमी, ग्रीनमार्क आर्ट गैलरी नौएडा, काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट
|पाठ 1=पूर्व उपाध्यक्ष [[केन्द्रीय हिन्दी संस्थान]], ग्रीनमार्क आर्ट गैलरी नौएडा, काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट
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|अन्य जानकारी=बोल बसंतो (धारावाहिक), छोटी सी आशा (धारावाहिक)' में अभिनय भी किया  
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<blockquote>अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की भाषा में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं। आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।</blockquote>
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! अशोक चक्रधर की रचनाएँ
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{{अशोक चक्रधर की रचनाएँ}}
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'''डॉ. अशोक चक्रधर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Dr. Ashok Chakradhar'') [[हिन्दी]] के मंचीय कवियों में से एक हैं। अशोक चक्रधर का जन्म [[8 फ़रवरी]], सन् [[1951]] में [[खुर्जा]], [[उत्तर प्रदेश]] में हुआ। हास्य की विधा के लिये अशोक चक्रधर की लेखनी जानी जाती है। कवि सम्मेलनों की वाचिक परंपरा को घर घर में पहुँचाने का श्रेय [[गोपालदास नीरज]], शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा और ओमप्रकाश आदित्य आदि के साथ-साथ इन्हें भी जाता है। अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की [[भाषा]] में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि '''वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं, आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं।''' उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
अशोक चक्रधर ने जब खु्र्जा ([[उत्तर प्रदेश]]) के अहीरपाड़ा मौहल्ले में होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर अहीर बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना।
अशोक चक्रधर के पिता का नाम डॉ. राधेश्याम 'प्रगल्भ' और माता का नाम श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ' हैं। अशोक चक्रधर का जन्म [[8 फ़रवरी]], सन् [[1951]] में खु्र्जा, [[उत्तर प्रदेश]] के अहीरपाड़ा मौहल्ले में हुआ। अशोक चक्रधर ने होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर [[अहीर]] बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना।
 
====संयुक्त परिवार====
====<u>संयुक्त परिवार</u>====
संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और माँ की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे।  
संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और मां की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे।  
====माँ से लगाव====
====<u>माँ से लगाव</u>====
अशोक बचपन से ही अपनी माँ से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिता यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दु:ख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी माँ ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं।  
अशोक बचपन से ही अपनी मां से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिताजी यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दुख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी मां ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं।  
====पहली कविता====
====<u>पहली कविता</u>====
1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया।  
1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ जी द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ जी तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया।  
====शिक्षा====
====<u>शिक्षा</u>====
बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक़ था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन् 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था।  
बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था।  
====पहला कवि सम्मेलन====
====<u>पहला कवि सम्मेलन</u>====
[[चीन]] के आक्रमण के तत्काल बाद, सन् [[1962]] में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को [[पं. सोहन लाल द्विवेदी]] की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया ।  
[[चीन]] के आक्रमण के तत्काल बाद, सन 1962 में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को [[पं. सोहन लाल द्विवेदी]] की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया ।  
==जीवन में परिवर्तन==
==जीवन में परिवर्तन==
सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार [[हाथरस]] आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया।  
सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार [[हाथरस]] आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया। अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और [[रासलीला]] के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक बोरोलिन और दूसरी नक़्क़ारा।  
 
====अभिनेत्री कृष्णा की नौटंकी====
अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और [[रासलीला]] के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक बोरोलिन और दूसरी नक़्क़ारा।  
बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह [[लाल क़िला दिल्ली|लालक़िला]] कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठ जी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया।
====<u>अभिनेत्री कृष्णा की नौटकी</u>====
====आर्थिक संकट====
बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह [[लाल क़िला दिल्ली|लालक़िला]] कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठजी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया।
====<u>आर्थिक संकट</u>====
लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, [[मथुरा]] में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया।  
लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, [[मथुरा]] में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया।  
====<u>मथुरा में प्रिटिंग प्रैस</u>====
====मथुरा में प्रिटिंग प्रैस====
[[चित्र:Ashok chakradhar.jpg|thumb]]
प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन [[मथुरा]] में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी।  
प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन [[मथुरा]] में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी।  
====<u>मथुरा की आकाशवाणी में</u>====
====मथुरा की आकाशवाणी में====
प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही।  
प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही।  
==दिल्ली में संघर्ष==
==दिल्ली में संघर्ष==  
परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन 1972 में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह [[दिल्ली]] चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी–सुधीर पचौरी, मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा कम्यून सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये।  
परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन् [[1972]] में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह [[दिल्ली]] चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी – [[सुधीश पचौरी]], मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और [[दिल्ली विश्वविद्यालय]] के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा [[कम्यून]] सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये।  
====<u>सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक</u>====
====सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक====
सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, 1972 में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् 1973 की जनवरी-फरवरी में हरियाणा के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते।  
सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, [[1972]] में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् [[1973]] की [[जनवरी]]-[[फ़रवरी]] में [[हरियाणा]] के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते।  
====<u>संघर्ष का बीड़ी युग</u>====
====संघर्ष का बीड़ी युग====
अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया।  
अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया।  


दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। पाठ्यक्रम बदले गये। नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों पर रोक लगी। 'प्रगति' नामक साहित्यिक संस्था ने माहौल में नई चेतना का प्रसार किया। अशोक चक्रधर 'प्रगति' के संयोजक थे। कार्यक्रमों की सफलता के लिए घर-घर जाकर लोगों को जुटाते थे। उनसे उनकी समझते थे, उनको अपनी समझाते थे। उनके अनुसार साढ़े बारह रुपये के उस मासिक बस पास का ऐसा घनघोर निचोड़ू इस्तेमाल उनके अलावा शायद ही कोई करता होगा। डी. टी. सी. बसों का ऐसा कोई रूट नहीं होगा, जो उनसे बचा हो और दिल्ली विश्वविद्यालय का कोई कॉलेज नहीं बचा, जहाँ पर उन्होंने इंटरव्यू न दिया हो। पर क्रान्तिकारी माने जाने वाले अशोक चक्रधर को किसी कॉलेज ने नौकरी नहीं दी। वहाँ पर उनसे पहले उनकी चर्चाएँ पहुँच जाती थीं।  
[[दिल्ली विश्वविद्यालय]] के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। पाठ्यक्रम बदले गये। नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों पर रोक लगी। 'प्रगति' नामक साहित्यिक संस्था ने माहौल में नई चेतना का प्रसार किया। अशोक चक्रधर 'प्रगति' के संयोजक थे। कार्यक्रमों की सफलता के लिए घर-घर जाकर लोगों को जुटाते थे। उनसे उनकी समझते थे, उनको अपनी समझाते थे। उनके अनुसार साढ़े बारह रुपये के उस मासिक बस पास का ऐसा घनघोर निचोड़ू इस्तेमाल उनके अलावा शायद ही कोई करता होगा। डी. टी. सी. बसों का ऐसा कोई रूट नहीं होगा, जो उनसे बचा हो और दिल्ली विश्वविद्यालय का कोई कॉलेज नहीं बचा, जहाँ पर उन्होंने इंटरव्यू न दिया हो। पर क्रान्तिकारी माने जाने वाले अशोक चक्रधर को किसी कॉलेज ने नौकरी नहीं दी। वहाँ पर उनसे पहले उनकी चर्चाएँ पहुँच जाती थीं।  


वह मोहभंग व्यक्तित्व विखण्डन के कगार तक जा पहुँचता, यदि 'बागेश्री' से मोह का नाता न जुड़ा होता। श्री चक्रधर को लगा कि कोई है, जो सिर्फ़ उनकी चिन्ताओं के लिए ही है। युवा संन्यासी अब राग बागेश्री गाने लगा। जनवादी साथियों को यह बिल्कुल नहीं भाया। दिन-रात उनके इशारों पर चलने वाला कामरेड अब इश्क के चक्कर में आकर उनके हाथ से खिसक रहा था। चक्रधर एक छोटी कविता सुनाते हैं–
वह मोहभंग व्यक्तित्व विखण्डन के कगार तक जा पहुँचता, यदि 'बागेश्री' से मोह का नाता न जुड़ा होता। श्री चक्रधर को लगा कि कोई है, जो सिर्फ़ उनकी चिन्ताओं के लिए ही है। युवा संन्यासी अब राग बागेश्री गाने लगा। जनवादी साथियों को यह बिल्कुल नहीं भाया। दिन-रात उनके इशारों पर चलने वाला कामरेड अब इश्क के चक्कर में आकर उनके हाथ से खिसक रहा था। चक्रधर एक छोटी कविता सुनाते हैं–
<poem>मैंने वरण किया
<blockquote><poem>मैंने वरण किया
उन्होंने कहा-मरण है।
उन्होंने कहा-मरण है।
मैंने कहा-नहीं,
मैंने कहा-नहीं,
यही तो क्रान्ति का
यही तो क्रान्ति का
पहला चरण है।</poem>
पहला चरण है।</poem></blockquote>
{| class="bharattable" border="1" style="float:right"
बहरहाल, वक़्त अब या तो बागेश्री के साथ बीतता था या मुक्तिबोध पर लिखी अपनी पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में। मैकमिलन से उनकी पुस्तक 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' 1975 में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। सुधीश पचौरी और असग़र वज़ाहत के प्रयत्नों से 1975 में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया में नौकरी भी लग गई। दिल्ली विश्वविद्यालय की संघर्ष गाथाओं की हवा यहाँ तक नहीं पहुँची थी, इसलिए नौकरी पाने में कोई अड़चन नहीं आई। नौकरी मिलते ही श्री चक्रधर अपने पूरे परिवार को [[दिल्ली]] ले आए। प्रैस बेचकर कर्ज़े चुका दिए गए। रईसों की क्लब संस्कृति से मुक्ति मिली। छोटे भाई-बहनों की शिक्षा की व्यवस्था हुई। अब सिर्फ़ एक ही चुनौती थी–पिता के सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना और उनके लिए किसी नौकरी का जुगाड़ करना। धीरे-धीरे यह भी हो गया। 'प्रगल्भ' जी का लेखन फिर से प्रारम्भ हो गया और वे मैकमिलन में सम्पादक के पद पर कार्य करने लगे।
==काका की दामादी==
बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि काका हाथरसी और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में–
<blockquote>तब में उस जज़्बे को नहीं जान पाता था, पर आज मुझे लगता है कि बागेश्री मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी।'</blockquote>
*इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं।
==फ़िल्म और टेलीविज़न==
अशोक चक्रधर जी ने फ़िल्म लेखन और अभिनय भी किया है। इन्होंने फ़िल्म '''जमुना किनारे''' ([[ब्रजभाषा]]) का लेखन, '''काका हाथरसी प्रोडक्शंस''', [[1983]] के अंतर्गत किया और श्री चक्रधर जी ने डीडी-1 के धारावाहिक '''बोल बसंतो''' तथा '''सोनी चैनल''' के धारावाहिक '''छोटी सी आशा''' में अभिनय भी किया। 
{| style="background-color:#e5f2fc; border:1px solid #80c7ff;" cellpadding="2" cellspacing="1" border="1"
|- valign="top"
|
{| class="wikitable" border="1"
|+टेलीफिल्म / लेखन-निर्देशन
|-
! नाम
! निर्माण
|-
|-
| जीत गई छन्नो
! महत्त्वपूर्ण दूरदर्शन कार्यक्रम  
| प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार, 1980  
|-
|-
| मास्टर दीपचंद
| नई सुबह की ओर
| प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार, 1980
|-
|-
| झूमे बाला झूमे बाली
| रेनबो फैण्टेसी
| दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1994
|-
|-
| गुलाबड़ी             
| कृति में चमत्कृत
| दिल्ली महानिदेशालय, 1994
|-
|-
| हाय मुसद्दी           
| हिन्दी धागा प्रेम का 
| ई टी एंड टी, भारत सरकार, 1994
|-
|-
| तीन नज़ारे             
| अपना उत्सव
| ई टी एंड टी, भारत सरकार, 1995
|-
|-
| बिटिया             
| भारत महोत्सव
| एन एफ डी सी, भारत सरकार 2000
|}
|}
|
बहरहाल, वक़्त अब या तो बागेश्री के साथ बीतता था या मुक्तिबोध पर लिखी अपनी पुस्तक की [[पाण्डुलिपि]] तैयार करने में। मैकमिलन से उनकी पुस्तक 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' 1975 में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। [[सुधीश पचौरी]] और [[असग़र वजाहत]] के प्रयत्नों से 1975 में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया में नौकरी भी लग गई। दिल्ली विश्वविद्यालय की संघर्ष गाथाओं की हवा यहाँ तक नहीं पहुँची थी, इसलिए नौकरी पाने में कोई अड़चन नहीं आई। नौकरी मिलते ही श्री चक्रधर अपने पूरे परिवार को [[दिल्ली]] ले आए। प्रैस बेचकर कर्ज़े चुका दिए गए। रईसों की क्लब संस्कृति से मुक्ति मिली। छोटे भाई-बहनों की शिक्षा की व्यवस्था हुई। अब सिर्फ़ एक ही चुनौती थी–पिता के सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना और उनके लिए किसी नौकरी का जुगाड़ करना। धीरे-धीरे यह भी हो गया। 'प्रगल्भ' जी का लेखन फिर से प्रारम्भ हो गया और वे मैकमिलन में सम्पादक के पद पर कार्य करने लगे।
{| class="wikitable" border="1"
==काका की दामादी==
|+ वृत्तचित्र / लेखन-निर्देशन
बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि [[काका हाथरसी]] और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में–
|-
<blockquote>तब मैं उस जज़्बे को नहीं जान पाता था, पर आज मुझे लगता है कि बागेश्री मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी।'</blockquote>
! नाम
*इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं।
! निर्माण
==फ़िल्म और टेलीविज़न==
|-
अशोक चक्रधर ने फ़िल्म लेखन और अभिनय भी किया है। इन्होंने फ़िल्म '''जमुना किनारे''' ([[ब्रजभाषा]]) का लेखन, '''काका हाथरसी प्रोडक्शंस''', [[1983]] के अंतर्गत किया और श्री चक्रधर ने डीडी-1 के धारावाहिक '''बोल बसंतो''' तथा '''सोनी चैनल''' के धारावाहिक '''छोटी सी आशा''' में अभिनय भी किया। 
| विकास की लकीरें       
{{अशोक चक्रधर फ़िल्म और टेलीविज़न}}
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
==रंगमंच==
|-
{| class="bharattable" border="1" align="right" style="margin:10px"
| पंगु गिरि लंघै       
| फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1983
|-
| गोरा हट जा     
| फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1985
|-
| हर बच्चा हो कक्षा पांच       
| दूरदर्शन महानिदेशालय, भारत सरकार 1993
|-
| इस ओर है छतेरा       
| जामिया मिलिया इस्लामिया, 2003
|}
 
|-valign="top"
|
{| class="wikitable" border="1"
|+धारावाहिक लेखन / प्रस्तुति
|-
! नाम
! निर्माण   
|-
| कहकहे         
| दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1989
|-
| परदा उठता है       
| दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1990
|-
| वंश               
| आर.के. फिल्म्स, मुम्बई, 1995
|-
| अलबेला सुरमेला
| सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली, 1995
|-
| फुलझड़ी एक्सप्रैस
| सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली, 1996
|-
| बात इसलिए बताई 
| एन. डी. टी. वी., 1997-98
|-
| पोल टॉप टैन
| ज़ी-इंडिया, 1997
|-
| न्यूज़ी काउंट डाउन
| ज़ी-इंडिया, 1997-98
|-
| चुनाव-चालीसा 
| सहारा समय, 2003
|-
| वाह-वाह
| सब टीवी, 2004-05
|-
| चुनाव चकल्लस
| सहारा राष्ट्रीय, 2005
|-
| बजट-व्यंग्य
| सहारा राष्ट्रीय, 2004-05-06
|-
| चले आओ चक्रधर चमन में
| दूरदर्शन, 31 मार्च 2010 से जारी
|}
|
{| class="wikitable" border="1"
|+वृत्तचित्र लेखन
|-
! नाम
! निर्माण   
|-
| बहू भी बेटी होती है     
| फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1981
|-
| जंगल की लय ताल
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1979
|-
| साड़ियों में लिपटी सदियां 
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
|-
| साथ-साथ चलें         
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
|-
| ये है चारा             
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
|-
| ग्रामोदय               
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
|-
| ज्ञान का उजाला           
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
|-
| वत्सी नाव               
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| र्‌यूमैटिक हृदय रोग       
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| घैंघा पाडुरना         
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| ऐड्रमौण्डी टापू           
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| छोटा नागपुर : जल और थल 
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| लोकोत्सव             
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|-
| नगर विकास         
| सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
|}
|}
 
 
{| class="wikitable" border="1"
|+धारावाहिक / लेखन-निर्देशन
|+धारावाहिक / लेखन-निर्देशन
|-
|-
पंक्ति 249: पंक्ति 125:
| दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1997
| दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1997
|}
|}
 
अशोक चक्रधर जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य हैं। इनका नाटक '''बंदरिया चली ससुराल''' नाटक का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा मंचन हो चुका है। इसके निर्देशक श्री राकेश शर्मा तथा  रंगमंडल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है। और श्री रंजीत कपूर के नाटक 'आदर्श हिन्दू होटल' एवं 'शॉर्टकट' के लिए गीत लेखन भी इन्होंने किया।   
==रंगमंच==
==कम्प्यूटर और हिन्दी==
अशोक चक्रधर जी जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य हैं। इनका नाटक '''बंदरिया चली ससुराल''' नाटक का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा मंचन हो चुका है। इसके निर्देशक श्री राकेश शर्मा तथा  रंगमंडल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है। और श्री रंजीत कपूर के नाटक 'आदर्श हिन्दू होटल' एवं 'शॉर्टकट' के लिए गीत लेखन भी इन्होंने किया।   
अशोक चक्रधर ने [[हिन्दी]] के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां की हैं और ये हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, हिमाचल प्रदेश सरकार, [[शिमला]] के भूतपूर्व सदस्य रह चुके है।
==कम्प्यूटर और हिंदी==
अशोक चक्रधर जी ने [[हिंदी]] के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां की हैं और ये हिंदी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, हिमाचल प्रदेश सरकार, [[शिमला]] के भूतपूर्व सदस्य रह चुके है।
==अंतर्राष्ट्रीय समारोह सहभागिता==
==अंतर्राष्ट्रीय समारोह सहभागिता==
अशोक चक्रधर जी ने साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए [[अमेरिका]], [[इंग्लैंड]], सोवियत संघ, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, हांगकांग, [[नेपाल]], युनाइटेड अरब अमीरात, जर्मनी, इटली, फिलिस्तीन, इज़राइल, ओमान, ट्रिनिडाड एंड टोबैगो, कनाडा, हॉलैण्ड, सूरीनाम, रूस, केन्या ईस्ट अफ्रीका, उज़्बेकिस्तान, जापान, [[पाकिस्तान]] आदि की यात्राएँ की हैं।
अशोक चक्रधर ने साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए [[अमेरिका]], [[इंग्लैंड]], सोवियत संघ, [[ऑस्ट्रेलिया]], [[मॉरीशस]], [[थाईलैंड]], इंडोनेशिया, [[सिंगापुर]], हांगकांग, [[नेपाल]], युनाइटेड अरब अमीरात, [[जर्मनी]], [[इटली]], फिलिस्तीन, इज़राइल, [[ओमान]], ट्रिनिडाड एंड टोबैगो, कनाडा, हॉलैण्ड, सूरीनाम, [[रूस]], केन्या ईस्ट अफ्रीका, [[उज़बेकिस्तान]], [[जापान]], [[पाकिस्तान]] आदि की यात्राएँ की हैं।
 
{{अशोक चक्रधर अंतर्राष्ट्रीय समारोह सहभागिता}}
{| width=100% class="wikitable" border="1"
|-
! वर्ष
! समारोह
! स्थान
|-
| 1987
| भारत महोत्सव
| सोवियत संघ
|-
| 1987
| महात्मा गांधी संस्थान, हिंदी संगोष्ठी
| मॉरिशस
|-
| 1993 
| अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, हिंदी संगोष्ठी
| ऑस्टिन, [[अमेरिका]]
|-
| 1993   
| हिंदी उर्दू कविता संगोष्ठी, ख़लीज़ टाइम्स
| मस्कट, ओमान
|-
| 1994 
| 'हरिवंशराय बच्चन पीठ', समारोह
| मैनचैस्टर, यू.के.
|-
| 1997   
| नेपाल हिंदी सम्मेलन
| काठमांडू, [[नेपाल]]
|-
| 1999   
| छठा विश्व हिंदी सम्मेलन
| लंदन
|-
| 2000 
| हिंदी अधिवेशन, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति,
| बोस्टन, अमेरिका
|-
| 2000   
| हिंदी और कम्प्यूटर गोष्ठी
| सिडनी विश्वविद्यालय, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
|-
| 2001   
| कम्प्यूटर में हिंदी की संभावनाएं
| सैराक्यूज़ विश्वविद्यालय, सैराक्यूज़ 
|-
| 2002   
| अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
| त्रिनिदाद टोबेगो
|-
| 2003   
| भारत और पाकिस्तान की लोकप्रिय कविता संगोष्ठी
| दुबई
|-
| 2003   
| सातवां विश्व हिंदी सम्मेलन
| सूरीनाम
|-
| 2003 
| राना वार्षिक अधिवेशन
| न्यूयार्क
|-
| 2003 
| अंतर्राष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन
| डैलस, अमेरिका
|-
| 2003 
| हिंदी शिक्षण संगोष्ठी
| यूनिवर्सिटी ऑफ टैक्सस, अमेरिका
|-
| 2004 
| अंतर्राष्ट्रीय हिंदी अधिवेशन
| न्यू जर्सी, अमेरिका
|-
| 2004   
| अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन, हिन्दी टाइम्स
| कनाडा
|-
| 2005 
| भारतीय विद्या भवन
| आस्ट्रेलिया
|-
| 2006   
| पत्रकार सम्मेलन
| दुबई
|-
| 2006 
| मॉस्को विश्वविद्यालय एवं नेहरू केन्द्र
| मॉस्को
|-
| 2006 
| हिन्दी समिति
| केन्या (पूर्वी अफ्रीका)
|-
| 2006 
| टोक्यो विश्वविद्यालय
| टोक्यो
|-
| 2006 
| भारतीय विद्या भवन
| ऑस्ट्रेलिया
|-
| 2007   
| क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन
| भारतीय दूतावास, मॉस्को
|-
| 2007   
| आठवां विश्व हिंदी सम्मेलन
| न्यूयार्क
|-
| 2008   
| मध्य एशिया भारत संबंध संगोष्ठी
| ताशकंद (उज़्बेकिस्तान)
|-
| 2009   
| क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन
| भारतीय दूतावास, मस्कट, ओमान
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==पुरस्कार और सम्मान==
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==प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार==
==प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार==
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*पद्मश्री शरद जोशी ने लिखा था-
*[[पद्मश्री]] [[शरद जोशी]] ने लिखा था-
अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है।
अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है।
*पद्मश्री काका हाथरसी ने कहा था-
*[[पद्मश्री]] [[काका हाथरसी]] ने कहा था-
<poem>'चक्रधर' चक्र घुमाया
<blockquote><poem>'चक्रधर' चक्र घुमाया
हास्य-व्यंग्य के रंग में, करें करारी चोट,
हास्य-व्यंग्य के रंग में, करें करारी चोट,
कविसम्मेलन-मंच पर, 'घुमा दिया लंगोट'।
कविसम्मेलन-मंच पर, 'घुमा दिया लंगोट'।
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आगे थे जो 'काका' छूट गए वे पीछे।
आगे थे जो 'काका' छूट गए वे पीछे।
सभी चकित रह गए 'चक्रधर' चक्र घुमाया,
सभी चकित रह गए 'चक्रधर' चक्र घुमाया,
अल्प समय में, अल्प आयु में नाम कमाया।</poem>
अल्प समय में, अल्प आयु में नाम कमाया।</poem></blockquote>
*माया गोविन्द के शब्दों में -  
*माया गोविन्द के शब्दों में -  
<poem>वो कल्पना-प्रभात हैं
<blockquote><poem>वो कल्पना-प्रभात हैं
है जिसके काव्य में असर
है जिसके काव्य में असर
जो है प्रकाश सा प्रखर
जो है प्रकाश सा प्रखर
जो शब्द-शब्द है प्रखर
जो शब्द-शब्द है प्रखर
वो है 'अशोक चक्रधर'।</poem>
वो है 'अशोक चक्रधर'।</poem></blockquote>
*हुल्लड़ मुरादाबादी के शब्दों में -
*हुल्लड़ मुरादाबादी के शब्दों में -
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, शब्दों के जादूगर अशोक चक्रधर का कृतित्व अपने-आपमें एक करिश्मा है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, शब्दों के जादूगर अशोक चक्रधर का कृतित्व अपने-आपमें एक करिश्मा है।
*हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा के शब्दों में -  
*हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा के शब्दों में -  
अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'जैक ऑफ़ ऑल, मास्टर ऑफ़ नन'। अशोक चक्रधर मंचीय काव्य-जगत में एकमात्र ऐसा नाम है, जिसने इस कहावत को झूठा साबित करके दिखा दिया है। वह 'जैक ऑफ़ ऑल' भी हैं तथा 'मास्टर ऑफ़ ऑल' भी हैं।  
अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'जैक ऑफ़ ऑल, मास्टर ऑफ़ नन'। अशोक चक्रधर मंचीय काव्य-जगत में एकमात्र ऐसा नाम है, जिसने इस कहावत को झूठा साबित करके दिखा दिया है। वह 'जैक ऑफ़ ऑल' भी हैं तथा 'मास्टर ऑफ़ ऑल' भी हैं।  
*जावेद अख़्तर के शब्दों में -  
*[[जावेद अख़्तर]] के शब्दों में -  
जैसे शायरी ज़िंदगी के होठों की हल्की सी मुस्कान है, उसी तरह शायरी के होठों पर जो हल्की सी मुस्कान है, उसका नाम 'अशोक चक्रधर' है।  
जैसे शायरी ज़िंदगी के होठों की हल्की सी मुस्कान है, उसी तरह शायरी के होठों पर जो हल्की सी मुस्कान है, उसका नाम 'अशोक चक्रधर' है।  
*अल्हड़ बीकानेरी के शब्दों में -
*अल्हड़ बीकानेरी के शब्दों में -
<poem>हर अंजुमन में वो आली जनाब होता है,
<blockquote><poem>हर अंजुमन में वो आली जनाब होता है,
गुलों के बीच महकता गुलाब होता है।
गुलों के बीच महकता गुलाब होता है।
जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़',
जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़',
अशोक चक्रधर उनका जवाब होता है।
अशोक चक्रधर उनका जवाब होता है।</poem></blockquote>
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.anubhuti-hindi.org/hasya/ashok_chakradhar/index.htm अशोक चक्रधर की रचनाएँ अनुभूति में]
*[http://pustak.org/bs/home.php?author_name=ashok%20chakradhar अशोक चक्रधर की पुस्तकें ]
==संबंधित लेख==
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10:16, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

अशोक चक्रधर
पूरा नाम डॉ. अशोक चक्रधर
जन्म 8 फ़रवरी, सन् 1951 ई.
जन्म भूमि खुर्जा (बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश)
अभिभावक डॉ. राधेश्याम 'प्रगल्भ', श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ'
पति/पत्नी बागेश्री चक्रधर
संतान अनुराग, स्नेहा
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र हिन्दी कविता, कवि सम्मेलन, रंगमंच
मुख्य रचनाएँ 'बूढ़े बच्चे', 'भोले भाले', 'तमाशा', 'बोल-गप्पे', 'मंच मचान', 'कुछ कर न चम्पू' , 'अपाहिज कौन', 'मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया' आदि।
विषय काव्य संकलन, निबंध-संग्रह, नाटक, बाल साहित्य, प्रौढ़ एवं नवसाक्षर साहित्य, समीक्षा, अनुवाद, पटकथा, लेखन-निर्देशन, वृत्तचित्र, फीचर फ़िल्म लेखन
भाषा हिन्दी भाषा
शिक्षा एम.ए., एम.लिट्., पी-एच.डी. (हिन्दी)
पुरस्कार-उपाधि पद्म श्री, हास्य-रत्न उपाधि, बाल साहित्य पुरस्कार, आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड, निरालाश्री पुरस्कार, शान-ए-हिन्द अवार्ड
प्रसिद्धि हास्य व्यंग्य कवि
विशेष योगदान हिन्दी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियाँ।
नागरिकता भारतीय
पद-भार और सदस्यता पूर्व उपाध्यक्ष केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, ग्रीनमार्क आर्ट गैलरी नौएडा, काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट
अन्य जानकारी बोल बसंतो (धारावाहिक), छोटी सी आशा (धारावाहिक)' में अभिनय भी किया
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
अद्यतन‎
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
अशोक चक्रधर की रचनाएँ


डॉ. अशोक चक्रधर (अंग्रेज़ी: Dr. Ashok Chakradhar) हिन्दी के मंचीय कवियों में से एक हैं। अशोक चक्रधर का जन्म 8 फ़रवरी, सन् 1951 में खुर्जा, उत्तर प्रदेश में हुआ। हास्य की विधा के लिये अशोक चक्रधर की लेखनी जानी जाती है। कवि सम्मेलनों की वाचिक परंपरा को घर घर में पहुँचाने का श्रेय गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा और ओमप्रकाश आदित्य आदि के साथ-साथ इन्हें भी जाता है। अशोक चक्रधर ने आसपास बिखरी विसंगतियों को उठाकर बोलचाल की भाषा में श्रोताओं के सम्मुख इस तरह रखा कि वह क़हक़हे लगाते-लगाते अचानक गम्भीर हो जाते हैं और क़हक़हों में डूब जाते हैं, आँखें डबडबा आती हैं, इसमें हंसी के आँसू भी होते हैं, और उन क्षणों में, अपने आँसू भी, जब कवि उन्हें अचानक गम्भीरता में ऐसे डुबोता चला जाता है कि वे मन में उसकी कसक कहीं पर गहरे महसूस करने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि यह दर्द भी उनका अपना ही है, उनके घर का है, उनके पड़ोसी का है।

जीवन परिचय

अशोक चक्रधर के पिता का नाम डॉ. राधेश्याम 'प्रगल्भ' और माता का नाम श्रीमती कुसुम 'प्रगल्भ' हैं। अशोक चक्रधर का जन्म 8 फ़रवरी, सन् 1951 में खु्र्जा, उत्तर प्रदेश के अहीरपाड़ा मौहल्ले में हुआ। अशोक चक्रधर ने होश सम्भाला तो अपने चारों ओर विशुद्ध निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय माहौल को महसूस किया। घर के ठीक सामने एक तेली का घर था, पर मज़े की बात यह है कि उसका दरवाज़ा इस गली में नहीं बल्कि तेलियों वाली गली में दूसरी ओर खुलता था। गली के एक छोर पर अहीर बसते थे, जिनका गाय-भैंस और घी-दूध का कारोबार था। तेल की धानी, भैंसों की सानी और गोबर की महक उस वातावरण की पहचान बन गई थी। नन्हें अशोक चक्रधर ने आदमियों और पशुओं को साथ-साथ रहते देखा, जीते देखा। एक-दूसरे के लिए दोनों की उपयोगिता को महसूस किया। कोल्हू के बैलों को आँखों पर बंधी पट्टियों से पीड़ित होते हुए। यही नहीं निम्नमध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों की त्रासदियों को भी महसूस किया। संयुक्त परिवार के संकटों को पहचाना।

संयुक्त परिवार

संयुक्त परिवार में बड़ों के दबदबे के कारण, पिता की लाचारियों और माँ की मजबूरियों को उन्होंने जिस उम्र में महसूस किया, उससे वह अपनी उम्र से ज़्यादा परिपक्व हो गये। छोटे भाई और बहन के मुक़ाबले वह स्वयं को पूरा बड़ा समझने लगे थे और यह बड़े होने का अहसास उनमें इस क़दर पनपा कि जब दूसरे उन्हें 'बच्चा' कहते थे तो वह कड़वाहट से भर जाते थे।

माँ से लगाव

अशोक बचपन से ही अपनी माँ से ज़्यादा जुड़े रहे हैं। उनके पिता यों तो इंटर कॉलेज में अध्यापक थे, कुछ समय नगरपालिका के निर्वाचित सदस्य रहे, चुंगी के टैक्स कमिश्नर रहे, मगर एक श्रेष्ठ कवि भी थे......प्रतिष्ठित कवि और बाल साहित्यकार थे, 'बालमेला' के सम्पादक थे- 'श्री राधेश्याम 'प्रगल्भ'। अशोक के पिता का बचपन भी दु:ख और शोक की घनी छाया में बीता था। 'प्रगल्भ' जी ने अपनी पुस्तक 'समय के पंख' में लिखा है कि वे मात्र छ: वर्ष के थे, जब उनके पिता का निधन हो गया, और फिर कई वर्ष तक एक दो वर्ष के अंतराल से कोई न कोई अप्रिय घटना घटती ही रही। उनकी माँ ने बड़ी दृढ़ता और वीरता से लालन-पालन किया और उन्हें शिक्षा दिलाई। वे कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कर्मरत रहती थीं।

पहली कविता

1956 या 1957 में जब अशोक पाँच-छह साल के थे, तो भूकम्प आया। मकान का वह हिस्सा गिर गया, जिसमें वह रहते थे। ताऊ द्वारा दूसरा हिस्सा भी रहने के लिए असुरक्षित घोषित कर दिया गया। नन्हें अशोक के पिता को सपरिवार पिछले हिस्से में शरण लेनी पड़ी। निहित स्वार्थों के ऊपर सहानुभूति की चादर ओढ़े हुए ताऊ तथा अन्य कुटुम्बजन तथाकथित सुरक्षा का हवाला देकर मकान को गिरवाने में जुट गए। संयुक्त परिवार में ऐसी घटनाओं के पीछे क्या मंतव्य होते हैं, यह किसी से भी छिपा नहीं रह सका है। इन्हीं प्रताड़नाओं के बीच नन्हें अशोक की पहली कविता ने जन्म लिया।

शिक्षा

बेसिक प्राइमरी पाठशाला नं. बारह में जितने दिन अशोक ने पढ़ाई की, उतने दिन वहाँ का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम उनके बिना सम्पन्न नहीं हुआ। बहरहाल, प्राइमरी पाठशाला से पाँचवीं तक कक्षा पास कर लेने के बाद से 1959 में एस. एम. जे. ई. सी. इन्टर कॉलेज में कक्षा छ: में प्रवेश लेने तक अशोक छोटी-छोटी कविताएँ लिख चुके थे। डायरी जेब में रखने का बड़ा शौक़ था। अपनी कविताएँ दोस्तों को सुनाते थे, लेकिन पिता को नहीं सुनाते थे। पारिवारिक उलझनों और तनावों से ग्रस्त कड़वे अनुभवों की श्रृंखला में कभी-कभी बहार तभी आती थी, जब उनके कवि पिता के कवि-मित्र घर पर जमते थे। इन गोष्ठियों के माध्यम से ही उन्हें कविता लेखन की अनौपचारिक शिक्षा मिली। सन् 1960 में रक्षामंत्री 'कृष्णा मेनन' आए। बालक अशोक ने कविता सुनाई। क्या सुनाया था यह तो याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि प्रधानाचार्य श्री एल. एन. गुप्ता की सहायता से कृष्णा मेनन ने प्रसन्न होकर उन्हें गोदी में उठा लिया था।

पहला कवि सम्मेलन

चीन के आक्रमण के तत्काल बाद, सन् 1962 में ही, प्रगल्भ जी ने अपने कॉलेज में एक कविसम्मेलन आयोजित किया। सारे नामी-गिरामी कवि बुलाए गए। अशोक का नाम भी कवि सूची में शामिल कर लिया गया। उस दिन पिता ने पहली और अन्तिम बार बेटे की कविता पर रंदा चलाकर उसे चिकना-चुपड़ा बनाया था। रात को पं. सोहन लाल द्विवेदी की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन आरम्भ हुआ। युद्धजन्य मानसिकता में माहौल गरम था। मंच पर वीररस की बरसात हो रही थी। नन्हें अशोक की कविता भी खूब जम गई। पं. सोहन लाल द्विवेदी ने सार्वजनिक रूप से लम्बा चौड़ा आशीर्वाद दिया और उस दिन से अशोक कहलाने लगे 'बालकवि अशोक'। इस तरह कवि सम्मेलनों का सिलसिला बचपन में ही शुरू हो गया ।

जीवन में परिवर्तन

सन 1964 में जीवन ने तेज़ी से पहलू बदले। पिता 'प्रगल्भ' जी को श्री काका हाथरसी बेहद स्नेह करते थे। 'प्रगल्भ' जी काका जी की सलाह पर अपनी सत्रह साल पुरानी नौकरी छोड़कर सपरिवार हाथरस आ गए और 'ब्रज कला केन्द्र' की देख-रेख करने लगे। यह 'ब्रज कला केन्द्र' एक मिल मालिक सेठ जी अपनी सांस्कृतिक ललक में चलाया करते थे। हाथरस में एकदम वातावरण बदला। किशोर अशोक चक्रधर ने स्वयं को सुविधाओं के बीच एक सांस्कृतिक माहौल में पाया। अशोक वह सब कुछ अभी तक नहीं भूले है। कॉटन मिल की ऑफ़ीसर्स कॉलोनी के बड़े-बड़े कमरों का बाग़-बगीचों वाला घर, छोटे भाई-बहनों को गोदी में उठाकर खिलाना, मिल का रंगमंच, सुरुचि उद्यान का स्विमिंग पूल, रिहर्सल करते नौटंकी और रासलीला के कलाकार और दो ख़ास चीज़ें एक बोरोलिन और दूसरी नक़्क़ारा।

अभिनेत्री कृष्णा की नौटंकी

बौरोलिन नौटंकी की अभिनेत्री कृष्णा लगाया करती थी और नक्कारा बजाते थे अत्तन ख़ाँ। अशोक बहुत देर तक कृष्णा को मेकअप करते या गाने का रियाज़ करते देखा करते थे। कमरे में एकांत साधना कर रही हों या हॉल में सबके साथ रिहर्सल, अपनी सौन्दर्य सतर्कता में कृष्णा थोड़ी-थोड़ी देर के बाद बौरोलिन लगाती रहती थीं। सन् 1965 से 1968 के बीच वह लालक़िला कवि सम्मेलन में भी प्रतितवर्ष बुलाए गए। यह सुखद स्थिति ज़्यादा नहीं टिकी, क्योंकि 1969 में सेठ जी ने मिल बंद कर दी और उसी के साथ-साथ उनका कला और संस्कृति प्रेम भी समाप्त हो गया यानी की कि 'ब्रज कला केन्द्र' का नौटंकी अध्याय लगभग ठप्प हो गया।

आर्थिक संकट

लालाजी ने पूरे एक साल की तनख़्वाह नहीं दी और अशोक चक्रधर के पिता के सामने रोज़ी-रोटी की समस्या आ खड़ी हुई। पाँच बच्चे और पत्नी का साथ। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बड़े होते बच्चों की ज़रूरतें और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ। किसी तरह से रोज़ी-रोटी के लिए अपनी सारी जमा-पूँजी लगाकर, घर के जेबर बेचकर, मथुरा में प्रिटिंग प्रैस लगाया गया।

मथुरा में प्रिटिंग प्रैस

प्रैस चल भी पड़ा, लेकिन मथुरा में जो घर मिला, वह ऐसी कॉलोनी में था, जहाँ पर पुराने रईस लोग रहा करते थे। पिता यहाँ धनाढ्य क्लब संस्कृति के शिकार हो गए। प्रैस की पूरी ज़िम्मेदारी अशोक और छोटे भाई अनिल पर आ पड़ी। अशोक मालिक, मशीनमैन, कंपोज़ीटर और आर्डर लाने वाले एजैन्ट तक के रूप में प्रैस में जुटे रहे लेकिन धीरे-धीरे प्रैस ख़त्म होता गया। असल में प्रैस को एक 'मल्टीपर्पज़' अकेले युवक की क्षमताओं के अलावा कुछ अन्य क्षमताओं की भी ज़रूरत थी। व्यवसाय कर पाना, कवि-पिता के बस की बात नहीं रह गई थी।

मथुरा की आकाशवाणी में

प्रैस चलाने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई के प्रति भी अशोक चक्रधर काफ़ी सतर्क रहे। सन् 1970 में उन्होंने बी. ए. किया और पूरे मथुरा जनपद में केवल दो लोगों की प्रथम श्रेणी आई, एक श्री चक्रधर की दूसरे उनके मित्र राकेश शर्मा की। 1968 में जब मथुरा में आकाशवाणी केन्द्र खुला तो श्री चक्रधर उसके प्रथम ऑडिशंड आर्टिस्ट के रूप में चुने गए। एक युवक के सामने अनंत आकाश खुले हुए थे, लेकिन उसे महसूस होता था कि उसके पर कटे हुए हैं। ऊहापोह और द्वंद्व की इन संश्लिष्ट मानसिकताओं के बीच एम. ए. पूरा हुआ। लेकिन यहाँ एक दूसरी पीड़ा झेलनी पड़ी। एम. ए. पूर्वार्द्ध में अशोक चक्रधर के आगरा विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक थे और उन्हें पूरा विश्वास था कि वे ही एम. ए. टॉप करेंगे, लेकिन कुछ रहस्यमयी अंतर्गत धांधलियों के कारण उन्हें टॉप नहीं करने दिया गया। प्रथम श्रेणी तो खैर आ ही गई। लेकिन टॉप न कर पाने की पीड़ा उनको भीतर तक सालती रही।

दिल्ली में संघर्ष

परिवार की तेज़ी से बिगड़ती आर्थिक स्थिति और सन् 1972 में आगरा विश्वविद्यालय में टॉप न कर पाने की पीड़ा मन में लिए हुए वह दिल्ली चले आए। यहाँ पर शुरू हुआ संघर्ष का वह दौर, जिसका सामना श्री चक्रधर को अकेले ही करना था। दिल्ली में एम. लिट्. में प्रवेश मिल गया और मिल गए मथुरा-हाथरस के कुछ पुराने साथी – सुधीश पचौरी, मुकेश गर्ग, भगवती पंडित और अमरदेव शर्मा। ये सभी लोग नए-नए मार्क्सवादी हुए थे और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इनका बड़ा दबदबा था। 'रहने की दिक्कत हो तो हमारे साथ रह लो'–सुधीर पचौरी ने कुछ इस तरह से कहा जैसे ये कोई बड़ी बात ही न हो। दिल्ली मॉडल टाउन में सुधीर पचौरी और कर्णसिंह चौहान साथ-साथ रहते थे, दोनों प्राध्यापक थे, कमाते थे। अशोक चक्रधर ने भी डेरा डाल दिया। यहाँ पर पूरा कम्यून सिस्टम चलता था। किसी चीज़ पर किसी का कोई व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं था, न किसी का किसी पर कोई एहसान। बस दिन-रात अध्ययन, चिन्तन-मनन, और समाज-रूपान्तर विधियों की चिन्ताएँ। अशोक चक्रधर को यह माहौल बहुत ही पसन्द आया और वे भी इसी साँचे में ढल गये।

सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक

सभी नौजवान थे, आदर्शवादी थे। किसकी तनख़ा किस पर ख़र्च हो रही है, इसका कोई गणित नहीं था। नवम्बर, 1972 में अशोक चक्रधर दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में प्रध्यापक पद पर नियुक्त कर लिये गये। कोई अपनी पहली तनख़ा अपने माता-पिता के चरणों में रखता है, लेकिन इनकी तनख़ा भी कम्यून-संस्कृति के अनुसार मित्रों और साथियों पर ख़र्च होती रही। सन् 1973 की जनवरी-फ़रवरी में हरियाणा के अध्यापकों ने व्यापक हड़ताल की तो अपने अन्य अध्यापक मित्रों के साथ श्री चक्रधर भी चल दिये गिरफ़्तारी देने। प्रधानाचार्य हलधर ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी नौकरी स्थायी नहीं है, इन सब चक्करों में पड़ोगे तो भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा, पर युवा आदर्शवादी भला कभी दुनिया की बातें समझ पाया है। नौकरी हाथ से जाती रही और दो वर्ष बेरोज़गारी में बीते।

संघर्ष का बीड़ी युग

अगले दो वर्ष सचमुच संघर्ष के थे। संघर्ष नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों के ख़िलाफ़, संघर्ष हिन्दी विभाग के जनतंत्रीकरण के लिए, संघर्ष नए पाठ्यक्रम लागू कराने के लिए और संघर्ष अपने स्वयं के अस्तित्व के लिए। रहना, खाना, पहनना चलो मिल-बांटकर हो जाता था, फिर भी कुछ तो धन चाहिए ही। चक्रधर बताते हैं कि उन दिनों सबसे रक़म होती थी साढ़े बारह रुपये। जिससे डी. टी. सी. का मासिक बस पास बनता था। दूसरा ख़र्चा बीड़ियों का था। चक्रधर को मांगना कभी अच्छा नहीं लगा। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने किसी से पैसा न तो मांगा, न ही उधार लिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में इन दिनों अनेक गुणात्मक परिवर्तन हुए। पाठ्यक्रम बदले गये। नियुक्तियों में होने वाली धांधलियों पर रोक लगी। 'प्रगति' नामक साहित्यिक संस्था ने माहौल में नई चेतना का प्रसार किया। अशोक चक्रधर 'प्रगति' के संयोजक थे। कार्यक्रमों की सफलता के लिए घर-घर जाकर लोगों को जुटाते थे। उनसे उनकी समझते थे, उनको अपनी समझाते थे। उनके अनुसार साढ़े बारह रुपये के उस मासिक बस पास का ऐसा घनघोर निचोड़ू इस्तेमाल उनके अलावा शायद ही कोई करता होगा। डी. टी. सी. बसों का ऐसा कोई रूट नहीं होगा, जो उनसे बचा हो और दिल्ली विश्वविद्यालय का कोई कॉलेज नहीं बचा, जहाँ पर उन्होंने इंटरव्यू न दिया हो। पर क्रान्तिकारी माने जाने वाले अशोक चक्रधर को किसी कॉलेज ने नौकरी नहीं दी। वहाँ पर उनसे पहले उनकी चर्चाएँ पहुँच जाती थीं।

वह मोहभंग व्यक्तित्व विखण्डन के कगार तक जा पहुँचता, यदि 'बागेश्री' से मोह का नाता न जुड़ा होता। श्री चक्रधर को लगा कि कोई है, जो सिर्फ़ उनकी चिन्ताओं के लिए ही है। युवा संन्यासी अब राग बागेश्री गाने लगा। जनवादी साथियों को यह बिल्कुल नहीं भाया। दिन-रात उनके इशारों पर चलने वाला कामरेड अब इश्क के चक्कर में आकर उनके हाथ से खिसक रहा था। चक्रधर एक छोटी कविता सुनाते हैं–

मैंने वरण किया
उन्होंने कहा-मरण है।
मैंने कहा-नहीं,
यही तो क्रान्ति का
पहला चरण है।

महत्त्वपूर्ण दूरदर्शन कार्यक्रम
नई सुबह की ओर
रेनबो फैण्टेसी
कृति में चमत्कृत
हिन्दी धागा प्रेम का
अपना उत्सव
भारत महोत्सव

बहरहाल, वक़्त अब या तो बागेश्री के साथ बीतता था या मुक्तिबोध पर लिखी अपनी पुस्तक की पाण्डुलिपि तैयार करने में। मैकमिलन से उनकी पुस्तक 'मुक्तिबोध की काव्य प्रक्रिया' 1975 में प्रकाशित हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय ने इस पुस्तक को युवा लेखन द्वारा लिखी गई वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक का पुरस्कार दिया। सुधीश पचौरी और असग़र वजाहत के प्रयत्नों से 1975 में ही जामिया मिल्लिया इस्लामिया में नौकरी भी लग गई। दिल्ली विश्वविद्यालय की संघर्ष गाथाओं की हवा यहाँ तक नहीं पहुँची थी, इसलिए नौकरी पाने में कोई अड़चन नहीं आई। नौकरी मिलते ही श्री चक्रधर अपने पूरे परिवार को दिल्ली ले आए। प्रैस बेचकर कर्ज़े चुका दिए गए। रईसों की क्लब संस्कृति से मुक्ति मिली। छोटे भाई-बहनों की शिक्षा की व्यवस्था हुई। अब सिर्फ़ एक ही चुनौती थी–पिता के सोये हुए आत्मविश्वास को जगाना और उनके लिए किसी नौकरी का जुगाड़ करना। धीरे-धीरे यह भी हो गया। 'प्रगल्भ' जी का लेखन फिर से प्रारम्भ हो गया और वे मैकमिलन में सम्पादक के पद पर कार्य करने लगे।

काका की दामादी

बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि काका हाथरसी और चक्रधर में कोई ख़ास रिश्तेदारी है। चक्रधर काका हाथरसी के दामाद हैं। जीवन में कहानियाँ-दर-कहानियाँ रखने वाले चक्रधर के विवाह की कोई ख़ास कहानी नहीं है। काका हाथरसी से घरेलू सम्बन्ध तो थे ही। मुकेश गर्ग और चक्रधर बचपन से ही सहपाठी थे। मुकेश की बहन बागेश्री को वे तब से जानते थे, जबसे वह फ़्रॉक पहनकर साथ में खेला करती थीं। उनके शब्दों में–

तब मैं उस जज़्बे को नहीं जान पाता था, पर आज मुझे लगता है कि बागेश्री मुझे तब भी बहुत अच्छी लगती थी।'

  • इसके बाद की चक्रधर की विकास यात्रा किसी से छिपी नहीं है। वे अपनी रचनात्मकता में हर मोर्चे पर भरपूर सक्रिय हैं।

फ़िल्म और टेलीविज़न

अशोक चक्रधर ने फ़िल्म लेखन और अभिनय भी किया है। इन्होंने फ़िल्म जमुना किनारे (ब्रजभाषा) का लेखन, काका हाथरसी प्रोडक्शंस, 1983 के अंतर्गत किया और श्री चक्रधर ने डीडी-1 के धारावाहिक बोल बसंतो तथा सोनी चैनल के धारावाहिक छोटी सी आशा में अभिनय भी किया।

टेलीफ़िल्म / लेखन-निर्देशन
नाम निर्माण
जीत गई छन्नो प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार, 1980
मास्टर दीपचंद प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार, 1980
झूमे बाला झूमे बाली दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1994
गुलाबड़ी दिल्ली महानिदेशालय, 1994
हाय मुसद्दी ई टी एंड टी, भारत सरकार, 1994
तीन नज़ारे ई टी एंड टी, भारत सरकार, 1995
बिटिया एन एफ डी सी, भारत सरकार 2000
वृत्तचित्र / लेखन-निर्देशन
नाम निर्माण
विकास की लकीरें सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
पंगु गिरि लंघै फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1983
गोरा हट जा फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1985
हर बच्चा हो कक्षा पांच दूरदर्शन महानिदेशालय, भारत सरकार 1993
इस ओर है छतेरा जामिया मिलिया इस्लामिया, 2003
धारावाहिक लेखन / प्रस्तुति
नाम निर्माण
कहकहे दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1989
परदा उठता है दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1990
वंश आर.के. फ़िल्म्स, मुम्बई, 1995
अलबेला सुरमेला सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली, 1995
फुलझड़ी एक्सप्रैस सी. पी. सी. दूरदर्शन केन्द्र, नई दिल्ली, 1996
बात इसलिए बताई एन. डी. टी. वी., 1997-98
पोल टॉप टैन ज़ी-इंडिया, 1997
न्यूज़ी काउंट डाउन ज़ी-इंडिया, 1997-98
चुनाव-चालीसा सहारा समय, 2003
वाह-वाह सब टीवी, 2004-05
चुनाव चकल्लस सहारा राष्ट्रीय, 2005
बजट-व्यंग्य सहारा राष्ट्रीय, 2004-05-06
चले आओ चक्रधर चमन में दूरदर्शन, 31 मार्च 2010 से जारी
वृत्तचित्र लेखन
नाम निर्माण
बहू भी बेटी होती है फ़िल्म्स डिवीज़न, भारत सरकार, 1981
जंगल की लय ताल सैण्डिट, नई दिल्ली, 1979
साड़ियों में लिपटी सदियां सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
साथ-साथ चलें सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
ये है चारा सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
ग्रामोदय सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
ज्ञान का उजाला सैण्डिट, नई दिल्ली, 1980
वत्सी नाव सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
र्‌यूमैटिक हृदय रोग सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
घैंघा पाडुरना सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
ऐड्रमौण्डी टापू सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
छोटा नागपुर : जल और थल सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
लोकोत्सव सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981
नगर विकास सैण्डिट, नई दिल्ली, 1981

रंगमंच

धारावाहिक / लेखन-निर्देशन
नाम निर्माण
भोर तरंग दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1987
ढाई आखर दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1989
बुआ भतीजी दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1991
बोल बसंतो दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र, 1997

अशोक चक्रधर जननाट्य मंच के संस्थापक सदस्य हैं। इनका नाटक बंदरिया चली ससुराल नाटक का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा द्वारा मंचन हो चुका है। इसके निर्देशक श्री राकेश शर्मा तथा रंगमंडल, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है। और श्री रंजीत कपूर के नाटक 'आदर्श हिन्दू होटल' एवं 'शॉर्टकट' के लिए गीत लेखन भी इन्होंने किया।

कम्प्यूटर और हिन्दी

अशोक चक्रधर ने हिन्दी के विकास में कम्प्यूटर की भूमिका विषयक शताधिक पावर-पाइंट प्रस्तुतियां की हैं और ये हिन्दी सलाहकार समिति, ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार तथा हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी, हिमाचल प्रदेश सरकार, शिमला के भूतपूर्व सदस्य रह चुके है।

अंतर्राष्ट्रीय समारोह सहभागिता

अशोक चक्रधर ने साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उद्देश्यों के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, सोवियत संघ, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस, थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, हांगकांग, नेपाल, युनाइटेड अरब अमीरात, जर्मनी, इटली, फिलिस्तीन, इज़राइल, ओमान, ट्रिनिडाड एंड टोबैगो, कनाडा, हॉलैण्ड, सूरीनाम, रूस, केन्या ईस्ट अफ्रीका, उज़बेकिस्तान, जापान, पाकिस्तान आदि की यात्राएँ की हैं।

वर्ष समारोह स्थान
1987 भारत महोत्सव सोवियत संघ
1987 महात्मा गांधी संस्थान, हिन्दी संगोष्ठी मॉरीशस
1993 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, हिन्दी संगोष्ठी ऑस्टिन, अमेरिका
1993 हिन्दी उर्दू कविता संगोष्ठी, ख़लीज़ टाइम्स मस्कट, ओमान
1994 'हरिवंशराय बच्चन पीठ', समारोह मैनचैस्टर, यू.के.
1997 नेपाल हिन्दी सम्मेलन काठमांडू, नेपाल
1999 छठा विश्व हिन्दी सम्मेलन लंदन
2000 हिन्दी अधिवेशन, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, बोस्टन, अमेरिका
2000 हिन्दी और कम्प्यूटर गोष्ठी सिडनी विश्वविद्यालय, सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
2001 कम्प्यूटर में हिन्दी की संभावनाएं सैराक्यूज़ विश्वविद्यालय, सैराक्यूज़
2002 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन त्रिनिदाद टोबेगो
2003 भारत और पाकिस्तान की लोकप्रिय कविता संगोष्ठी दुबई
2003 सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम
2003 राना वार्षिक अधिवेशन न्यूयार्क
2003 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी अधिवेशन डैलस, अमेरिका
2003 हिन्दी शिक्षण संगोष्ठी यूनिवर्सिटी ऑफ टैक्सस, अमेरिका
2004 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी अधिवेशन न्यू जर्सी, अमेरिका
2004 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, हिन्दी टाइम्स कनाडा
2005 भारतीय विद्या भवन आस्ट्रेलिया
2006 पत्रकार सम्मेलन दुबई
2006 मॉस्को विश्वविद्यालय एवं नेहरू केन्द्र मॉस्को
2006 हिन्दी समिति केन्या (पूर्वी अफ्रीका)
2006 टोक्यो विश्वविद्यालय टोक्यो
2006 भारतीय विद्या भवन ऑस्ट्रेलिया
2007 क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन भारतीय दूतावास, मॉस्को
2007 आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयार्क
2008 मध्य एशिया भारत संबंध संगोष्ठी ताशकंद (उज़्बेकिस्तान)
2009 क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन भारतीय दूतावास, मस्कट, ओमान

पुरस्कार और सम्मान

क्रमांक वर्ष पुरस्कार / सम्मान
(1) 1975 मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया - वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक (किसी युवा लेखक द्वारा रचित), जोधपुर वि.वि., राजस्थान
(2) 1980 'ठिठोली पुरस्कार', दिल्ली
(3) 1983 'हास्य-रत्न' उपाधि 'काका हाथरसी हास्य पुरस्कार'
(4) 1983 आकाशवाणी पुरस्कार 'प्रौढ़ बच्चे' सर्वश्रेष्ठ आकाशवाणी रूपक लेखन-निर्देशन पुरस्कार, दिल्ली
(5) 1985 'टी.ओ.वाई.पी. अवार्ड', (टैन आउटस्टैंडिंग यंग परसन ऑफ इंडिया), जेसीज़ क्लब, बम्बई
(6) 1986 'समाज रत्न' उपाधि साथी संगठन, दिल्ली
(7) 1988 'पं.जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय एकता अवार्ड', गीतांजलि, लखनऊ
(8) 1989 'मनहर पुरस्कार', साहित्य कला मंच, बम्बई।
(9) 1991 धारावाहिक 'ढाई आखर' लेखन-निर्देशन के लिए भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह द्वारा सम्मानित
(10) 1991 'बाल साहित्य पुरस्कार', हिन्दी अकादमी, दिल्ली
(11) 1991 'पंगु गिरि लंघै' सर्वश्रेष्ठ विकलांग आधारित फ़िल्म, लेखन-निर्देशन-निर्माण, राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव, भारत सरकार
(12) 1992 'कैरियर अवार्ड', विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली
(13) 1992 'आल राउण्ड पर्सनैलिटी', दिल्ली
(14) 1992 'आउटस्टैंडिंग परसन अवार्ड' रोटरी क्लब, दिल्ली
(15) 1992 'टेपा पुरस्कार', उज्जैन
(16) 1993 'राष्ट्रीय सद्भाव कवि' सम्मान, जागृति मंच, दिल्ली
(17) 1994 'राष्ट्रभाषा समृद्धि सम्मान', साई दास कला अकादमी, दिल्ली
(18) 1995 'कीर्तिमान पुरस्कार', मैहर
(19) 1995 'ये हैं ब्रज के गौरव' सम्मान, मथुरा
(20) 1995 राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा राष्ट्रपति भवन में काव्य पाठ के लिए सम्मानित
(20) 1996 'रोज़ अवार्ड' रोज़ फाइन आर्ट्स क्लब, दिल्ली
(21) 1996 'काका हाथरसी सम्मान', हिन्दी अकादमी, दिल्ली
(22) 1997 'हिन्दी उर्दू साहित्य अवार्ड', लखनऊ, राज्यपाल, उ.प्र. द्वारा सम्मानित
(23) 1997 'दिल्ली के गौरव' सम्मान, दिल्ली सरकार
(24) 1997 'राष्ट्रीय पर्यावरण सेवा सम्मान', षष्ठम्‌ विश्व पर्यावरण महासम्मेलन, दिल्ली
(25) 1998 'सुमन सम्मान', भारती परिषद एवं निराला शिक्षा निधि उन्नाव, उत्तर प्रदेश
(26) 1998 'सद्भावना पुरस्कार', आल इंडिया ज्ञानी ज़ैल सिंह मैमोरियल सोसाइटी, दिल्ली, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा द्वारा प्रदत्त
(27) 1999 'चौपाल सम्मान', मद्रास
(28) 1999 'काव्य-गौरव पुरस्कार', सागर, मध्य प्रदेश
(29) 1999 'डॉ. मंशाउर्रहमान मंशा सम्मान', नागपुर
(30) 1999 व्यंग्य विधा के यशस्वी हस्ताक्षर, हिन्दी परिषद, खरगौन (म.प्र.)
(31) 2000 'काव्य-कलश सारस्वत सम्मान', संस्कृति सुरभि, कासगंज
(32) 2000 'स्वर्णपत्र' सम्मान, एज्युकेशन अकादमी, कोटा
(33) 2000 'निरालाश्री पुरस्कार', साहित्य प्रेमी मंडल, दिल्ली
(34) 2000 'आशीर्वाद पुरस्कार', आशीर्वाद साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थान, मुंबई
(35) 2000 'व्यंग्य-रसराज', भारतीय भाषा एवं साहित्य परिषद्, पश्चिमी उपर शाखा, गजरौला
(36) 2000 'प्रियदर्शिनी अवार्ड', ऑल इंडिया नेशनल यूनिटी कांफ्रैंस, नई दिल्ली
(37) 2001 'कीर्तिमान संगीत सम्मान', सम्मान में बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ साहब द्वारा बनाया हुआ दुर्लभ वाद्य-सितार-बैंजो (सितार और सरोद का सम्मिश्रण) मैहर (म.प्र.)
(38) 2001 'नोएडा अट्टहास सम्मान', माध्यम साहित्यिक संस्थान, लखनऊ
(39) 2001 'राजभाषा सम्मान', भारतीय स्टेट बैंक, प्रधान कार्यालय, भोपाल (म.प्र.)
(40) 2001 'बैस्ट हिन्दी पोएट सर सैयद नेशनल अवार्ड-2001', महफ़िल-ए-सनम, एवाने ग़ालिब, नई दिल्ली
(41) 2002 'प्रकाशवीर शास्त्री पुरस्कार-2002', 'कल्पांत', नई दिल्ली
(42) 2002 'डायनैमिक एचीवमेंट अवार्ड-2002', डायनैमिक पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
(43) 2002 'ट्रिनिडाड हिन्दी शिखर सम्मान-21 मई 2002', भारतीय विद्या संस्थान, ट्रिनिडाड एंड टोबैगो
(44) 2002 'दिल्ली रतन', ऑल इंडिया कॉन्फ्रैंस ऑफ़ इंटैलेक्चुअल्स, नई दिल्ली
(45) 2003 'व्यंग्यश्री', बदायूं महोत्सव, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री विष्णुकांत शास्त्री द्वारा प्रदत्त
(46) 2003 'काका बिहारी शिखर सम्मान', गुलाबबाग, पूर्णिया
(47) 2003 'अट्टहास शिखर-सम्मान', लखनऊ, उत्तर प्रदेश
(48) 2004 'हिन्दी सम्मेलन सम्मान', हिन्दी टाइम्स, टोरंटो, कनाडा
(49) 2004 ‘सर्टिफिकेट ऑफ रिकग्निशन’, ब्रमेलिया-गोरे-माल्टन, कनाडा सरकार, कनाडा
(50) 2004 'सरस्वती सम्मान', नई दिल्ली
(51) 2004 'भास्कर अवार्ड', भारत निर्माण, नई दिल्ली
(52) 2005 'हिन्दी सेवा सम्मान', प्रवासी भारतीय सम्मेलन, अक्षरम‌, हिन्दी भवन, नई दिल्ली
(53) 2005 'कैफ़ी आज़मी अवार्ड', कैफ़ी आज़मी मैमोरियल सोसाइटी, नई दिल्ली
(54) 2005 ‘जीवनमल नाहटा मैमोरियल अवार्ड’, जीवनमल नाहटा ट्रस्ट, नई दिल्ली
(55) 2006 ‘बलवीर सिंह रंग सम्मान’, रंग महोत्सव, एटा
(56) 2006 ‘माधव ज्योति सम्मान’, माधव ज्योति परिवार, होशंगाबाद
(57) 2007 ‘साहित्य शिरोमणि’, उपाधि, अखिल विश्व हिन्दी समिति, न्यूयार्क
(58) 2008 माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी अवार्ड, (मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल) माइक्रोसॉफ़्ट कंपनी अमेरिका का सम्मान, ‘माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस पब्लिशर’ के हिन्दी भाषा में प्रथम व्यापक उपयोग के लिए
(59) 2008 ‘उपलब्धि 2007’, मंचीय कवि पीठ का सर्वोच्च सम्मान, लखनऊ
(60) 2008 ‘स्वामी मेघ श्याम स्मृति सम्मान’, ब्रज संस्कृति-काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान, वृन्दावन
(61) 2008 ‘राजीव गांधी साहित्य सृजन सम्मान ’, प्रवासी संसार, तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली
(62) 2008 ‘फेस अवार्ड : सर्वश्रेष्ठ कवि 2007’, कमानी सभागार, फेस फाउंडेशन, नई दिल्ली
(63) 2008 ‘क़लम सम्मान’, क़लम संस्थान, कामटी, महाराष्ट्र
(64) 2008 ‘ब्रज संस्कृति’ काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु स्वामी मेघश्याम शर्मा स्मृति सम्मान
(65) 2009 ‘अमृत कलश सम्मान’ अमृत कलश, इलाहाबाद
(66) 2009 ’डिश्टिंगिश्ड सर्विस अवार्ड’ हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया
(67) 2009 माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी अवार्ड, (मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल) माइक्रोसॉफ़्ट कंपनी अमेरिका का सम्मान, ‘माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस’ में हिन्दी भाषा के अनुप्रयोगों के लिए
(68) 2010 माइक्रोसॉफ्ट एमवीपी अवार्ड, (मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल) माइक्रोसॉफ़्ट कंपनी अमेरिका का सम्मान, ‘माइक्रोसॉफ़्ट ऑफिस’ में हिन्दी भाषा के अनुप्रयोगों के लिए
(69) 2010 ‘ग्राफिक एरा काव्य गौरव सम्मान’ एक लाख रुपए की राशि, ग्राफिक एरा वि.विद्यालय, देहरादून
(70) 2010 'साहित्य शिरोमणि' भारतीय परिषद उन्नाव
(71) 2010 'शान-ए-हिन्द' अवार्ड, स्वर धरोहर, दिल्ली
(72) 2010 ‘ऑक्टेव सम्मान’ नॉर्थ सैंट्रल जोन सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद

प्रसिद्ध व्यक्तियों के विचार

काव्य संकलन
क्रम नाम प्रकाशन सन
1- बूढ़े बच्चे प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय, भारत सरकार 1979
2- सो तो है प्रलेक प्रकाशन, नई दिल्ली, 1983
3- भोले भाले हिन्दी साहित्य निकेतन 1984
4- तमाशा हिन्दी साहित्य निकेतन 1986
5- चुटपुटकुले डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 1988
6- हंसो और मर जाओ हिन्दी साहित्य निकेतन 1990
7- देश धन्या पंच कन्या प्राची प्रकाशन, नई दिल्ली 1997
8- ए जी सुनिए डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 1997
9- इसलिए बौड़म जी इसलिए डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 1997
10- खिड़कियां डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 2001
11- बोल-गप्पे डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 2001
12- जाने क्या टपके डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली, 2001
13- चुनी चुनाई प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली 2002
14- सोची समझी प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली 2002
15- जो करे सो जोकर डायमण्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली 2007
16- मसलाराम पेंगुइन प्रकाशन

अशोक की कहन में बड़ी शक्ति है और यह हमारी भाषा की, हमारे देश की और हमारी जनता की शक्ति है।

'चक्रधर' चक्र घुमाया
हास्य-व्यंग्य के रंग में, करें करारी चोट,
कविसम्मेलन-मंच पर, 'घुमा दिया लंगोट'।
घुमा दिया लंगोट, न झुककर देखा नीचे,
आगे थे जो 'काका' छूट गए वे पीछे।
सभी चकित रह गए 'चक्रधर' चक्र घुमाया,
अल्प समय में, अल्प आयु में नाम कमाया।

  • माया गोविन्द के शब्दों में -

वो कल्पना-प्रभात हैं
है जिसके काव्य में असर
जो है प्रकाश सा प्रखर
जो शब्द-शब्द है प्रखर
वो है 'अशोक चक्रधर'।

  • हुल्लड़ मुरादाबादी के शब्दों में -

बहुमुखी प्रतिभा के धनी, शब्दों के जादूगर अशोक चक्रधर का कृतित्व अपने-आपमें एक करिश्मा है।

  • हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा के शब्दों में -

अंग्रेज़ी में एक कहावत है 'जैक ऑफ़ ऑल, मास्टर ऑफ़ नन'। अशोक चक्रधर मंचीय काव्य-जगत में एकमात्र ऐसा नाम है, जिसने इस कहावत को झूठा साबित करके दिखा दिया है। वह 'जैक ऑफ़ ऑल' भी हैं तथा 'मास्टर ऑफ़ ऑल' भी हैं।

जैसे शायरी ज़िंदगी के होठों की हल्की सी मुस्कान है, उसी तरह शायरी के होठों पर जो हल्की सी मुस्कान है, उसका नाम 'अशोक चक्रधर' है।

  • अल्हड़ बीकानेरी के शब्दों में -

हर अंजुमन में वो आली जनाब होता है,
गुलों के बीच महकता गुलाब होता है।
जो लाजवाब समझते हैं खुद को ऐ 'अल्हड़',
अशोक चक्रधर उनका जवाब होता है।


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