"चुप्पियाँ बोलीं -दिनेश रघुवंशी": अवतरणों में अंतर

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<poem>मछलियाँ बोलीं-
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मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हमारे भाग्य में
ढ़ेर- सा है जल, तो तड़पन भी बहुत हैं
ढ़ेर- सा है जल, तो तड़पन भी बहुत हैं...


     शाप है कोई वरदान है
     शाप है या कोई वरदान है
     यह समझ पाना कहाँ आसान है
     यह समझ पाना कहाँ आसान है
     एक पल ढ़ेरों ख़ुशी ले आएगा
     एक पल ढ़ेरों ख़ुशी ले आएगा
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भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाजों से कहने लगीं
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी- पहचानी वो आहत अब कहाँ
जानी- पहचानी वो आहत अब कहाँ
चुड़ियाँ बोलीं-
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हमारे भाग्य में
हैं खनकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…
हैं खनकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…
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रास्ता रोका घने विशवास ने
रास्ता रोका घने विशवास ने
अपनेपन कि चाह ने, अहसास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिए फिर बरसे बिन जाने लगी
किसलिए फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पुछा प्यास ने
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हमारे भाग्य में

12:45, 19 अगस्त 2011 का अवतरण

चुप्पियाँ बोलीं -दिनेश रघुवंशी
दिनेश रघुवंशी
दिनेश रघुवंशी
कवि दिनेश रघुवंशी
जन्म 26 अगस्त, 1964
जन्म स्थान ग्राम ख़ैरपुर, बुलन्दशहर ज़िला, (उत्तर प्रदेश)
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

मछलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
ढ़ेर- सा है जल, तो तड़पन भी बहुत हैं...

    शाप है या कोई वरदान है
    यह समझ पाना कहाँ आसान है
    एक पल ढ़ेरों ख़ुशी ले आएगा
    एक पल में ज़िन्दगी वीरान है
    लड़कियाँ बोलीं-
    हमारे भाग्य में
    पर हैं उड़ने को, तो बंधन भी बहुत हैं…

भोली-भाली मुस्कुराहट अब कहाँ
वे रुपहली-सी सजावट अब कहाँ
साँकलें दरवाज़ों से कहने लगीं
जानी- पहचानी वो आहत अब कहाँ
चूड़ियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं खनकते सुख, तो टूटन भी बहुत हैं…

    दिन तो पहले भी थे कुछ प्रतिकूल से
    शूल पहले भी थे लिपटे फूल से
    किसलिए फिर दूरियाँ बढ़ने लगीं
    क्यूँ नहीं आतीं इधर अब भूल से
    तितलियाँ बोलीं-
    हमारे भाग्य में
    हैं महकते पल, तो अड़चन भी बहुत हैं…

रास्ता रोका घने विशवास ने
अपनेपन की चाह ने, अहसास ने
किसलिए फिर बरसे बिन जाने लगी
बदलियों से जब ये पूछा प्यास ने
बदलियाँ बोलीं-
हमारे भाग्य में
हैं अगर सावन तो भटकन भी बहुत हैं…

    भावना के अर्थ तक बदले गए
    वेदना के अर्थ तक बदले गए
    कितना कुछ बदला गया इस शोर में
    प्रार्थना के अर्थ तक बदले गए
    चुप्पियाँ बोलीं-
    हमारे भाग्य में
    कहने का है मन, तो उलझन भी बहुत हैं…


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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