"दीपशिखा -महादेवी वर्मा": अवतरणों में अंतर
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<blockquote>"दीप-शिखा में मेरी कुछ ऐसी रचनाएँ संग्रहित हैं जिन्हें मैंने रंगरेखा की धुंधली पृष्ठभूमि देने का प्रयास किया है। सभी रचनाओं को ऐसी पीठिका देना न सम्भव होता है और न रुचिकर, अतः रचनाक्रम की दृष्टि से यह चित्रगीत बहुत बिखरे हुए ही रहेंगे।" और मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त आकाश के नीचे लोक-गीतों की धरती पर पले हैं। -'''[[महादेवी वर्मा]]'''<br /></blockquote> | <blockquote>"दीप-शिखा में मेरी कुछ ऐसी रचनाएँ संग्रहित हैं जिन्हें मैंने रंगरेखा की धुंधली पृष्ठभूमि देने का प्रयास किया है। सभी रचनाओं को ऐसी पीठिका देना न सम्भव होता है और न रुचिकर, अतः रचनाक्रम की दृष्टि से यह चित्रगीत बहुत बिखरे हुए ही रहेंगे।" और मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त आकाश के नीचे लोक-गीतों की धरती पर पले हैं। -'''[[महादेवी वर्मा]]'''<br /></blockquote> | ||
महादेवी के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की अन्तश्चेतनामूलक पीड़ा में तलाश की। मिलन के चित्र उनके चित्र उनके गीतों में आकांक्षित और संभावित, अतः कल्पनाश्रित ही हो सकते थे, पर विरहानुभूति को भी उन्होंने सूक्ष्म, निगूढ़ प्रतीकों और धुंधले बिंबों के माध्यम से ही अधिक अंकित किया। उनके प्रतीकों का विश्लेषण करते हुए [[अज्ञेय]] ने कहा - ‘उन्हें तो वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भी देनी थी और सामाजिक शिष्टाचार तथा रूढ़ बंधनों की मर्यादा भी निभानी थी। यही भाव उन्हें प्रतीकों का आश्रय लेने पर बाध्य करता है।’ महादेवी के गीतों में ऐसे बिम्बों की बहुतायत है जो दृष्यरूप या चित्र खड़े करने की बजाय सूक्ष्म संवेदन अधिक जगाते हैं, ‘रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता’ जैसी पंक्तियों में ‘वह’ को प्रकट करने की अपेक्षा धुंधलाने का प्रयास अधिक दिखाई देता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=2872 |title=दीप शिखा|accessmonthday=31 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> | महादेवी के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की अन्तश्चेतनामूलक पीड़ा में तलाश की। मिलन के चित्र उनके चित्र उनके गीतों में आकांक्षित और संभावित, अतः कल्पनाश्रित ही हो सकते थे, पर विरहानुभूति को भी उन्होंने सूक्ष्म, निगूढ़ प्रतीकों और धुंधले बिंबों के माध्यम से ही अधिक अंकित किया। | ||
उनके प्रतीकों का विश्लेषण करते हुए [[अज्ञेय]] ने कहा - ‘उन्हें तो वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भी देनी थी और सामाजिक शिष्टाचार तथा रूढ़ बंधनों की मर्यादा भी निभानी थी। यही भाव उन्हें प्रतीकों का आश्रय लेने पर बाध्य करता है।’ महादेवी के गीतों में ऐसे बिम्बों की बहुतायत है जो दृष्यरूप या चित्र खड़े करने की बजाय सूक्ष्म संवेदन अधिक जगाते हैं, ‘रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता’ जैसी पंक्तियों में ‘वह’ को प्रकट करने की अपेक्षा धुंधलाने का प्रयास अधिक दिखाई देता है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=2872 |title=दीप शिखा|accessmonthday=31 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language= हिंदी}} </ref> | |||
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04:57, 2 अप्रैल 2013 का अवतरण
दीपशिखा -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | दीपशिखा |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद |
प्रकाशन तिथि | 1942 (पहला संस्करण) |
ISBN | 9788181433794 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 147 |
भाषा | हिंदी |
शैली | गीत |
प्रकार | काव्य संग्रह |
विशेष | इसमें कुल 51 कविताएँ हैं। प्रत्येक गीत अनूठा एवम् चित्रात्मक है। |
दीपशिखा महादेवी वर्मा का पाँचवाँ कविता-संग्रह है। इसका प्रकाशन 1942 में हुआ। इसमें 1936 से 1942 ई. तक के गीत हैं। इस संग्रह में 147 पृष्ठ हैं और यह लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया। इसमें कुल 51 कविताएँ हैं। प्रत्येक गीत अनूठा एवम् चित्रात्मक है।
विषयवस्तु
इस संग्रह के गीतों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वयं मिटकर दूसरे को सुखी बनाना है। इस संग्रह की भूमिका में वे स्वयं कहती हैँ-
"दीप-शिखा में मेरी कुछ ऐसी रचनाएँ संग्रहित हैं जिन्हें मैंने रंगरेखा की धुंधली पृष्ठभूमि देने का प्रयास किया है। सभी रचनाओं को ऐसी पीठिका देना न सम्भव होता है और न रुचिकर, अतः रचनाक्रम की दृष्टि से यह चित्रगीत बहुत बिखरे हुए ही रहेंगे।" और मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त आकाश के नीचे लोक-गीतों की धरती पर पले हैं। -महादेवी वर्मा
महादेवी के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की अन्तश्चेतनामूलक पीड़ा में तलाश की। मिलन के चित्र उनके चित्र उनके गीतों में आकांक्षित और संभावित, अतः कल्पनाश्रित ही हो सकते थे, पर विरहानुभूति को भी उन्होंने सूक्ष्म, निगूढ़ प्रतीकों और धुंधले बिंबों के माध्यम से ही अधिक अंकित किया।
उनके प्रतीकों का विश्लेषण करते हुए अज्ञेय ने कहा - ‘उन्हें तो वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भी देनी थी और सामाजिक शिष्टाचार तथा रूढ़ बंधनों की मर्यादा भी निभानी थी। यही भाव उन्हें प्रतीकों का आश्रय लेने पर बाध्य करता है।’ महादेवी के गीतों में ऐसे बिम्बों की बहुतायत है जो दृष्यरूप या चित्र खड़े करने की बजाय सूक्ष्म संवेदन अधिक जगाते हैं, ‘रजत रश्मियों की छाया में धूमिल घन-सा वह आता’ जैसी पंक्तियों में ‘वह’ को प्रकट करने की अपेक्षा धुंधलाने का प्रयास अधिक दिखाई देता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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