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कितने मोरचे - विद्यानिवास मिश्र
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लेखक | विद्यानिवास मिश्र |
मूल शीर्षक | कितने मोरचे |
प्रकाशक | विद्या विहार |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2007 |
ISBN | 81-88140-71-6 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 162 |
भाषा | हिंदी |
विधा | निबंध संग्रह |
पुस्तक क्रमांक | 5539 |
विशेष | विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था। |
कितने मोरचे हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद पं. विद्यानिवास मिश्र के चौंतीस निबंधों का संकलन है, जो पिछले दशक में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। अपनी अनूठी शैली में मिश्रजी ने इन निबंधों को समाज और संस्कृति के अनेक प्रश्नों से रू-बरू कराया है। देश, काल, परंपरा और भारतीय मानस के प्रति सहज, पर पैनी निगाह रखते हुए ये निबंध आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं।
सारांश
इन निबंधों की आधारभूमि हमारे जीवन को ओत-प्रोत करती संस्कृति की स्रोतस्विनी है, जो उन साधारण मनुष्य की आशाओं, आकांक्षाओं और संघर्षों को सजीव करती है, जो आभिजात्य या ‘एलीट’ दृष्टि से प्रायः अलक्षित रह जाते हैं। पाठक को झकझोरते ये निबंध उन प्रश्नों को छेड़ते हैं, जो जीवन के इतने करीब हैं कि पानी में रहने वाली मछली की नाईं हमारी चेतना में उभरते ही नहीं। मनुष्य के स्वभाव और उसके सरोकारों में निरंतरता भी है और परिवर्तन भी। जब तक हम इन दोनों की पहचान नहीं करते और उनको अनेक संदर्भों में नहीं देखते, हमारी दृष्टि एकांगी बनी रहेगी। देश की तमाम योजनाएँ और उपक्रम ऐसी ही एकांगी दृष्टि के शिकार रहे हैं। विकास की योजना हो, भाषा का प्रश्न हो, कला की चिंता हो, शिक्षा की योजना हो, स्त्री-विमर्श हो, उत्सवों का आयोजन हो या फिर भागीरथी गंगा के जल की रक्षा का प्रश्न हो, हमारा फौरी नजरिया आगा-पीछा नहीं सोचता और हम एक समस्या का निदान करते-करते नई समस्या खड़ी कर लेते हैं। हमारे सोच-विचार में व्यापक और दूरगामी दृष्टि की कमी प्रायः खटकती है। मिश्रजी ने इन विडंबनाओं पर संवेदनशील और सर्जनात्मक दृष्टि से विचार किया है और नई सोच का आह्वान किया है।
संस्कृति में रचे-पगे पंडितजी के चिंतन में पाठक को अपने मन की गूँज मिलेगी, भूली-बिसरी स्मृति मिलेगी और जिजीविषा, दुर्दमनीय जिजीविषा के स्रोत मिलेंगे। व्यथा, पीड़ा और वेदना हर कहीं है और आदमी उनसे जूझ रहा है। इन निबंधों में आपको यह सब भी जरूर मिलेगा। अपने आपको पहचानने के व्याज बने ये निबंध आपको गुनने के लिए मजबूर करेंगे। इन निबंधों का फलक व्यापक है और वे हमें निजी और सामाजिक अस्तित्व की विसंगतियों और चुनौतियों के पास ले जाते हैं। इनमें से कई चुनौतियाँ हमारी अपनी अस्मिता का अंश हैं।[1]
पुस्तक के कुछ अंश
- स्वाधीनता का अर्थ
देश को स्वतंत्र हुए आधी शती बीत चली, पर अपना तंत्र या शासन होते हुए भी हम स्वाधीन नहीं हैं। इसे हम स्थूल धरातल पर देखें तो हमारी अर्थनीति कर्ज की ऐसी बैसाखियों पर टिकी हुई है कि जिनका सूद अदा करने में ही देश की लगभग एक-तिहाई आमदनी चली जाती है। राजनीतिक धरातल पर देखें तो हमने जाने किन-किनसे मित्रता की बात चलाई और सही अर्थ में हमारा कोई मित्र इस समय नहीं है। हम मित्रता के लिए हाथ जोड़ रहे हैं और कम विकसित एवं तथाकथित विकासशील देशों से जुड़ रहे हैं और उनके अध्यक्षों को न्यौतकर ही कुछ भारी-भरकम होने का ढोंग पाल रहे हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि राजनीतिक शक्ति सैन्य शक्ति पर बहुत कुछ निर्भर है। आज की सैन्य शक्ति सैन्य की तकनीक पर निर्भर है। उस तकनीक के लिए हम प्रयत्न तो कर रहे हैं, पर अभी इस स्तर तक नहीं पहुँचे हैं कि विशाल सैन्य शक्ति वाले देशों के ऊपर हमारी निर्भरता एकदम समाप्त हो जाए। वैचारिक धरातल पर देखें तो और गहरा शून्य दिखाई पड़ता है। कितनी लज्जा की बात है कि अपने ही देश के प्रतिभाशाली लोग विदेश में अपनी प्रतिभा का परिचय देकर अंतरिक्ष उपक्रम, संगणक उपक्रम और चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्रों में शीर्ष स्थान पर पहुँच रहे हैं, अपना देश स्वयं अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत समुन्नत हो चुका है। परंतु हमारी मानसिक स्थिति यह है कि हम आत्मगौरव के भाव से एकदम रिक्त हो गए हैं। जिन विषयों में हमारी जानकारी बहुत विकसित है, उन विषयों में भी हम आत्मविश्वास तक नहीं करते कि हम, हमारा अनुशीलन उच्च स्तर का है, हमारी सर्जनात्मक उपलब्धि उच्च स्तर की है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मिश्र, गिरीश्वर। कितने मोरचे (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 7 अगस्त, 2014।
- ↑ कितने मोरचे (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 7 अगस्त, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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