"बाँस गीत": अवतरणों में अंतर
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बाँस गीत में [[छत्तीसगढ़]] के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, [[रामायण]] के दोहे, [[कबीर के दोहे]] तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है। इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है, जो विद्वानों के लिए भी आश्चर्य का विषय प्रस्तुत करती है। बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु हमारे सरल, सहज, सादगी पूर्ण [[संस्कार]] का भी द्योतक है। इसके श्रोताओं में महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी होते हैं। | बाँस गीत में [[छत्तीसगढ़]] के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, [[रामायण]] के दोहे, [[कबीर के दोहे]] तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है। इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है, जो विद्वानों के लिए भी आश्चर्य का विषय प्रस्तुत करती है। बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु हमारे सरल, सहज, सादगी पूर्ण [[संस्कार]] का भी द्योतक है। इसके श्रोताओं में महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी होते हैं। | ||
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बाँस गीत के आयोजन में किसी विशेष प्रयास या आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती। एक दरी बिछाकर बाँस गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरू हो जाता है रसास्वादन का दौर। सर्वप्रथम गीतगायन द्वारा अपने ईष्ट देव एवं देवताओं का स्मरण किया जाता है ताकि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, यथा- | बाँस गीत के आयोजन में किसी विशेष प्रयास या आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती। एक दरी बिछाकर बाँस गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरू हो जाता है रसास्वादन का दौर। सर्वप्रथम गीतगायन द्वारा अपने ईष्ट देव एवं [[देवता|देवताओं]] का स्मरण किया जाता है ताकि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, यथा- | ||
<blockquote><poem>अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश। | <blockquote><poem>अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश। | ||
ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे सम झाय।।</poem></blockquote> | ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे सम झाय।।</poem></blockquote> | ||
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इसी प्रकार इन लोकगीतों में [[रामायण]] के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जैसे सीता हरण के प्रसंग में जटायु सीता जी से पूछते हैं- | इसी प्रकार इन लोकगीतों में [[रामायण]] के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जैसे सीता हरण के प्रसंग में [[जटायु]] [[सीता|सीता जी]] से पूछते हैं- | ||
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रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।</poem></blockquote> | रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।</poem></blockquote> | ||
गीत का पद समाप्त होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही लगाता है। वह रामजी-रामजी सत्य है और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।<ref name="aa"/> | गीत का पद समाप्त होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही लगाता है। वह 'रामजी-रामजी सत्य' है और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।<ref name="aa"/> | ||
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06:34, 10 जून 2015 का अवतरण
बाँस गीत छत्तीसगढ़ की यादव जातियों द्वारा बाँस के बने हुए वाद्य यंत्र के साथ गाया जाने वाला लोकगीत है। यह गीत छत्तीसगढ़ का बहु प्रचलित लोकगीत है। एक तरह से यह यादव समाज की निजी धरोहर है, क्योंकि इस विधा में यादव बंधु ही पारंगत होते हैं। यादव मूलत: पशु पालक होते हैं, वैदिक काल से लेकर अब तक अधिकांश यादवों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन ही है। ये अपने पशुओं को चराने के लिए जंगलों में जाते थे और वहीं निवास करते थे। जंगलों में मनोरंजन का कोई साधन नहीं होने के कारण मन-बहलाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों से युक्त इस विधा का जन्म हुआ होगा।
बाँस का चुनाव
इस लोकगीत में बाँस बजाया जाता है। शंख की तरह फूंककर बाँस बजाने वाले को 'बँसकहार' की संज्ञा दी जाती है और समाज में इनका विशिष्ट स्थान होता है। बँसकहार बाँस का मर्मज्ञ होता है, वह जंगल या गाँव से, जहाँ बाँस का भीरा उपलब्ध हो, वहाँ से ऐसे बाँस का चुनाव करता है जो न तो ज्यादा मोटा हो और न ही पतला, और जो आगे की ओर जरा-सा मुड़ा हुआ होता है। ऐसे बाँस को स्थानीय भाषा में 'ठेडगी बाँस' की संज्ञा दी जाती है। इसका लगभग तीन फीट लंबा टुकड़ा आरी से काटकर लाया जाता है।[1]
वाद्य निर्माण
जो बाँस काटकर लाया जाता है, वह पोला होता है, लेकिन उसमें गाँठ होते हैं, जिसे लोहे की सरिया को गर्म कर भेदा जाता है ताकि स्वर आसानी से पार हो सके। इसके बाद लगभग छ: इंच की दूरी में एक बड़ा छेद बनाया जाता है, जिसे 'ब्रह्मरंध' कहा जाता है। इसे मोम लगाकर दो भागों में विभक्त किया जाता है तथा तालपत्र से आधा आच्छादित किया जाता है, जिससे विशेष स्वर स्फुटन हो। बाँस के मध्य में क्रमश: चार छिद्र किये जाते हैं। आखिरी छिद्र को बुजुर्गों के कथनानुसार, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का परिचायक बताया गया है और इस तरह शुरू होता है नाद ब्रह्म को साधने का उपक्रम।
गीत गायन
बाँस गीत के गायन में मुख्यत: चार लोगों की भूमिका होती है-
- बाँस को बजाने वाला 'बँसकहार'।
- गीत गाने वाला गायक, जिसे 'गीत गायक' कहा जाता है।
- गायक का साथ देने वाला 'रागी', जो गायक के स्वर से स्वर मिलाता है।
- गीत की समाप्ति पर रामजी-रामजी का उद्घोष करने वाला, जिसे 'टेहीकार' कहा जाता है।
टेहीकार विशेष गुण और स्वर प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होता है जो लोकोक्ति एवं मुहावरों तथा स्वरचित दोहों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्ध कर बांधने का कार्य करता है। वैसे तो बाँस-गीत परिणयोत्सव, मांगलिक पर्व पर आयोजित होते हैं, किन्तु यह एक ऐसा लोकगीत है जो अधिकांश शोकमय वातावरण दशगात्र एवं तेरहवीं के समय भी आयोजित होते हैं। इसका मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जो परिवार शोक संतप्त होता है, इन गीतों मेंं समाहित आध्यात्मिक एवं उपदेशात्मक तथ्यों के द्वारा उनके जनजीवन को सामान्य बनाने का अभीष्ट कार्य संपन्न किया जाता है।[1]
विषयवस्तु
बाँस गीत में छत्तीसगढ़ के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, रामायण के दोहे, कबीर के दोहे तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है। इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है, जो विद्वानों के लिए भी आश्चर्य का विषय प्रस्तुत करती है। बाँस गीत मात्र लोकगीत ही नहीं अपितु हमारे सरल, सहज, सादगी पूर्ण संस्कार का भी द्योतक है। इसके श्रोताओं में महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी होते हैं।
गीत आयोजन
बाँस गीत के आयोजन में किसी विशेष प्रयास या आर्थिक प्रयोजनों की आवश्यकता नहीं होती। एक दरी बिछाकर बाँस गीत के कलाकारों को सम्मानपूर्वक विराजित करा दिया जाता है और उनके सम्मुख श्रोतागणों को बिठा दिया जाता है और शुरू हो जाता है रसास्वादन का दौर। सर्वप्रथम गीतगायन द्वारा अपने ईष्ट देव एवं देवताओं का स्मरण किया जाता है ताकि उसके उत्तरदायित्व के निर्वहन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, यथा-
अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश।
ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे सम झाय।।
इसे 'सुमरनी' कहते हैं। तत्पश्चात गायक दोहों के माध्यम से अपने कुल गौरव का भी बखान करते हैं, जैसे-
कऊने दियना तोरे दिन मा बरे, कउने दियना बरे रात
कऊने दियना घर अंगना मा बरे, कऊने दिया दरबार हो।।
सुरूज दियना तोरे दिन मा बरे, चंदा दियना बरे रात।
सैना दियना घर अंगना मा बरे, भाई दियना दरबार हो।
इसी प्रकार इन लोकगीतों में रामायण के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, जैसे सीता हरण के प्रसंग में जटायु सीता जी से पूछते हैं-
काखर हौ तुम धिया पतोहिया, काखर हौ भौजाई।
काखर हौ तुम प्रेम सुन्दरी, कऊन हरण लेई जाई।।
दशरथ के मैं धिया पतोहिया, लछमन के भौजाई।
रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।
गीत का पद समाप्त होते ही टेहीकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए टेही लगाता है। वह 'रामजी-रामजी सत्य' है और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उद्धृत करता है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 छत्तीसगढ़ का अनूठा लोकगीत बाँस गीत (हिन्दी) यदुवंश। अभिगमन तिथि: 09 जून, 2015।