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09:52, 11 अगस्त 2011 का अवतरण

  • भारत के देशी संस्कृत विद्यालय, जो अध्यापकों के घरों में स्थित थे, टोल कहे जाते थे।
  • प्राचीन हिन्दू शिक्षा व्यवस्था के अनुसार, अध्यापकगण इन संस्कृत पाठशालाओं को अपने ख़र्चे से चलाते थे।
  • इनमें प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को वे स्थान, भोजन, वस्त्र उपलब्ध कराते थे।
  • अध्ययन और अध्यापन का समय विद्यार्थी और अध्यापक दोनों की सुविधानुकूल रखा जाता था।
  • इस शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अध्यापक और विद्यार्थी का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता था और विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति के लिए कोई धन नहीं देना पड़ता था।
  • चूंकि विद्यार्थी के भरण-पोषण का भार अध्यापक पर रहता था, इसलिए उनका चुनाव भी उसकी इच्छा पर निर्भर करता था।
  • इन पाठशालाओं में विद्याध्ययन के लिए अधिकांशत: ब्राह्मणों के बालक ही प्रवेश करते थे।
  • अन्य वर्णों के मेधावी विद्यार्थियों को भी इनमें प्रवेश मिलता था, किन्तु अपने भोजन का प्रबंध उन्हें स्वयं ही करना ही होता था।
  • इन पाठशालाओं का ख़र्च निकालने में अध्यापकों को काफ़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं, क्योंकि इसके लिए उन्हें स्थानीय ज़मींदारों तथा दाताओं की दानशीलता पर निर्भर रहना पड़ता था।
  • फिर भी शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद प्रत्येक ब्राह्मण विद्यादान करना अपना पवित्र कर्तव्य मानता था।
  • इसलिए वह अपने घर पर एक टोली की स्थापना अवश्य ही करता था।
  • इन टोलों में व्याकरण, साहित्य, स्मृति, न्याय और वेदान्त अथवा दर्शन की शिक्षा दी जाती थी।
  • कुछ टोलें अब भी विद्यमान हैं और कुछ को सरकार से अब मासिक अनुदान प्राप्त होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 176।

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