"कैसी है पहिचान तुम्हारी -माखन लाल चतुर्वेदी": अवतरणों में अंतर

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कैसी है पहिचान तुम्हारी
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो !
राह भूलने पर मिलते हो!


पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया
विविध धुनों में कितना गाया,
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया
दूर-पास तुमको कब पाया?


धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही,
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!!
राह भूलने पर मिलते हो!!


किरणों प्रकट हुए, सूरज के
किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
सौ रहस्य तुम खोल उठे से,
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से!


काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
काँच-कलेजे में भी करूणा-
के डोरे ही से खिलते हो।
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो।।
राह भूलने पर मिलते हो॥


प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा,
मनमोहिनी धरा के बल हैं
मनमोहिनी धरा के बल हैं,
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब,
तेरी ही छाया के छल हैं।
तेरी ही छाया के छल हैं।


प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये,
जो बलि के फूलों खिलते हो।
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो।।
राह भूलने पर मिलते हो।।



07:11, 24 दिसम्बर 2011 का अवतरण

कैसी है पहिचान तुम्हारी -माखन लाल चतुर्वेदी
माखन लाल चतुर्वेदी
माखन लाल चतुर्वेदी
कवि माखन लाल चतुर्वेदी
जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई.
जन्म स्थान बावई, मध्य प्रदेश
मृत्यु 30 जनवरी, 1968 ई.
मुख्य रचनाएँ कृष्णार्जुन युद्ध, हिमकिरीटिनी, साहित्य देवता, हिमतरंगिनी, माता, युगचरण, समर्पण, वेणु लो गूँजे धरा, अमीर इरादे, गरीब इरादे
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
माखन लाल चतुर्वेदी की रचनाएँ

कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!

पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
विविध धुनों में कितना गाया,
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
दूर-पास तुमको कब पाया?

धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही,
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो!!

किरणों प्रकट हुए, सूरज के
सौ रहस्य तुम खोल उठे से,
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से!

काँच-कलेजे में भी करूणा-
के डोरे ही से खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी
राह भूलने पर मिलते हो॥

प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा,
मनमोहिनी धरा के बल हैं,
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब,
तेरी ही छाया के छल हैं।

प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये,
जो बलि के फूलों खिलते हो।
कैसी है पहिचान तुम्हारी,
राह भूलने पर मिलते हो।।

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