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[[फर्रूखाबाद]] के सर्वथा विपरीत संस्कृति वाले गृह में, [[जबलपुर]] में [[रामचरितमानस]] की एक प्रति और [[राम]] [[जानकी]]-[[लक्ष्मण]] की छोटी-छोटी मूर्तियों-से सजा चाँदी का छोटा सिंहासन लेकर माँ जब पालकी से उतरीं तब उनकी अवस्था 13 वर्ष और पिताजी की 17 वर्ष से अधिक नहीं थी। यह माँ का द्विरागमन था, विवाह तो जब वे दोनों 8 और 12 के थे, तभी हो चुका था। उस [[परिवार]] ने कन्याओं को जन्म लेते ही इतनी बार लौटाया था कि फिर कई पीढ़ियों तक किसी कन्या को उस परिवार में जन्म लेने का साहस नहीं हुआ। पर मेरे जन्म के लिए तो बाबा और दादी ने कुलदेवी की मनौती मान रखी थी। अतः मुझे लौटाने का तो प्रश्न ही नहीं उठा | [[फर्रूखाबाद]] के सर्वथा विपरीत संस्कृति वाले गृह में, [[जबलपुर]] में [[रामचरितमानस]] की एक प्रति और [[राम]] [[जानकी]]-[[लक्ष्मण]] की छोटी-छोटी मूर्तियों-से सजा चाँदी का छोटा सिंहासन लेकर माँ जब पालकी से उतरीं तब उनकी अवस्था 13 वर्ष और पिताजी की 17 वर्ष से अधिक नहीं थी। यह माँ का द्विरागमन था, विवाह तो जब वे दोनों 8 और 12 के थे, तभी हो चुका था। उस [[परिवार]] ने कन्याओं को जन्म लेते ही इतनी बार लौटाया था कि फिर कई पीढ़ियों तक किसी कन्या को उस परिवार में जन्म लेने का साहस नहीं हुआ। पर मेरे जन्म के लिए तो बाबा और दादी ने कुलदेवी की मनौती मान रखी थी। अतः मुझे लौटाने का तो प्रश्न ही नहीं उठा वरन् मुझे योग्य बनाने के ऐसे सम्मिलित प्रयत्न आरंभ हुए कि हम इन्दौर न जाते तो मुझे बचपन में ही वृद्धवस्था का सुख मिल जाता। विद्यारंभ के उपरांत पंडित जी की कृपा से मेरा हिन्दी-ज्ञान अन्य विद्यार्थियों की क्षमता से अधिक ही हो गया था। शीतकाल में ठंडे पानी से नहलाकर माँ अपने साथ पूजा में बैठी लेती थीं जिससे स्वभावतः मुझे बहुत कष्ट होता था रामा से यह सुनकर कि सीधे भोले बच्चे शोरगुल नहीं मचाते, मैंने तुकबन्दी की— | ||
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ठंडे पानी से नहलाती | ठंडे पानी से नहलाती |
07:37, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
यामा -महादेवी वर्मा
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कवि | महादेवी वर्मा |
मूल शीर्षक | यामा |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन |
प्रकाशन तिथि | 1940 (पहला संस्करण) |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 105 |
भाषा | हिंदी |
प्रकार | काव्य संग्रह |
मुखपृष्ठ रचना | सजिल्द |
यामा एक कविता संग्रह है जिसकी रचायिता महादेवी वर्मा हैं। इसमें उनके चार कविता संग्रह नीहार, नीरजा, रश्मि और सांध्यगीत संकलित किए गए हैं।
कवियित्री कथन
बाबा के उर्दू-फारसी के अबूझ घटाटोप में, पिता के अंग्रेज़ी-ज्ञान के अबूझ कोहरे में मैंने केवल माँ की प्रभाती और लोरी को ही समझा और उसी में काव्य की प्रेरणा को पाया। फर्रूखाबाद के सर्वथा विपरीत संस्कृति वाले गृह में, जबलपुर में रामचरितमानस की एक प्रति और राम जानकी-लक्ष्मण की छोटी-छोटी मूर्तियों-से सजा चाँदी का छोटा सिंहासन लेकर माँ जब पालकी से उतरीं तब उनकी अवस्था 13 वर्ष और पिताजी की 17 वर्ष से अधिक नहीं थी। यह माँ का द्विरागमन था, विवाह तो जब वे दोनों 8 और 12 के थे, तभी हो चुका था। उस परिवार ने कन्याओं को जन्म लेते ही इतनी बार लौटाया था कि फिर कई पीढ़ियों तक किसी कन्या को उस परिवार में जन्म लेने का साहस नहीं हुआ। पर मेरे जन्म के लिए तो बाबा और दादी ने कुलदेवी की मनौती मान रखी थी। अतः मुझे लौटाने का तो प्रश्न ही नहीं उठा वरन् मुझे योग्य बनाने के ऐसे सम्मिलित प्रयत्न आरंभ हुए कि हम इन्दौर न जाते तो मुझे बचपन में ही वृद्धवस्था का सुख मिल जाता। विद्यारंभ के उपरांत पंडित जी की कृपा से मेरा हिन्दी-ज्ञान अन्य विद्यार्थियों की क्षमता से अधिक ही हो गया था। शीतकाल में ठंडे पानी से नहलाकर माँ अपने साथ पूजा में बैठी लेती थीं जिससे स्वभावतः मुझे बहुत कष्ट होता था रामा से यह सुनकर कि सीधे भोले बच्चे शोरगुल नहीं मचाते, मैंने तुकबन्दी की—
ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन इन्हें लगाती
इनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी नहीं बोले हैं
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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