टेसू

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दुकान पर बिकते विभिन्न प्रकार के टेसू और झाँझी

शारदीय नवरात्र के दिनों में गाया जाने वाला बालकों का गीत है। यह गीत ब्रजलोक में विशेष रूप से प्रचलित है। लड़के टेसू, जो मनुष्य की आकृति का खिलौना होता है, लेकर द्वार-द्वार पर घूमते हैं, टेसू के गीत गाते है और पैसे माँगते हैं। विषय की दृष्टि से यह गीत बहुत ही ऊटपटाँग और अद्भुत कहे जा सकते हैं, किन्तु ये बड़े मनोरंजक होते हैं। टेसू को जनश्रुति एक प्राचीन वीर के रूप में स्मरण करती है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झाँझी का विवाह भी रचाया जाता है।[1] सांझी और टेसू के खेल अधिकांश उत्तर भारत में लोकप्रिय है। टेसू की अपनी ही छटा है। टेसू का खेल उत्तर भारत और आसपास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेला जाता है, यहां इसे बालक ही नहीं युवा भी खेलते हैं। सांझी बनाते समय बालिकायें जो गीत गाती हैं वे तो पूरे के पूरे प्रादेशिक भाषा के होते हैं।

टेसू का स्वरूप

आमतौर पर टेसू का स्टैण्ड बांस का बनाया जाता है जिसमें मिट्टी की तीन पुतलियां फिट कर दी जाती हैं। जो क्रमश: टेसू राजा, दासी और चौकीदार की होती है या टेसू राजा और दो दासियां होती हैं। मध्य में मोमबत्ती या दिया रखने का स्थान होता है।

लुप्त होती प्रथा

टेसू खेलने की प्रथा अब धीरे कम होती जा रही है। इस कारण इसे खेलते समय गाये जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। टेसू और सांझी के गीतों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सांझी गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है, जबकि टेसू गीत मात्र तुकबन्दियां प्रतीत होती हैं। टेसू का खेल दशहरे से प्रारम्भ होता है। यूं तो टेसू की धूम सारे उत्तर भारत में मचती है। ब्रज, बुंदेलखण्ड और ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। दशहरे के दिन से ही गाया जाता है-

मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा,
दही बड़े में पन्नी,
धर दो झंया अठन्नी।

यह गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही मनाया जाता है इस त्योहार का आरंभ महानवमी से हो जाता है और इसका समापन शरदपूर्णिमा को टेसू और सांझी के विवाह के साथ होता है।

किंवदंतियाँ

टेसू और झाँझी के साथ गीत गाते बच्चे

टेसू की उत्पत्ति और इस त्योहार के आरंभ के सम्बन्ध में यहां अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है। माना जाता है कि टेसू का आरम्भ महाभारत काल से ही हो गया था। कहा जाता है कि कुन्ती को विवाह से पूर्व ही दो पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनंमें पहला पुत्र बब्बरावाहन था जिसे कुन्ती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था। वह पैदा होते ही सामान्य बालक से दुगनी रफ़्तार से बढ़ने लगा और कुछ सालों बाद तो उसने बहुत ही उपद्रव करना शुरु कर दिया। पाण्डव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा ने भगवान कृष्ण से कहा कि वे उन्हें बब्बरावाहन के आतंक से बचाएं, तो कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी। परन्तु बब्बरावाहन तो अमृत पी गया था इस लिये वह मरा ही नही। तब कृष्ण ने उसके सिर को छेकुर के पेड़ पर रख दिया। लेकिन फिर भी बब्बरावाहन शान्त नहीं हुआ तो कृष्ण ने अपनी माया से सांझी को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह रचाया।

दूसरी कथा

बब्बरावाहन, भीमसेन का किसी राक्षसी से हुआ पुत्र था जिसे घटोत्कच भी कहा गया है। यह परमवीर और दानी पुरुष था। उसकी यह आन थी कि वह हमेशा युद्ध में हारने वाले राजा की ओर से लड़ता था। जब महाभारत का युद्ध शुरु हुआ तो कृष्ण यह जानते थे कि यदि बब्बरावाहन कौरवों की ओर मिल गया तो पाण्डव युद्ध कभी नहीं जीत पायेंगे, इसलिये एक दिन ब्राह्मण का वेश धरकर बब्बरावाहन के पास गये और उससे उसका परिचय मांगा। तब बब्बरावाहन कहने लगा कि वह बड़ा भारी योद्धा और महादानी है। तो कृष्ण ने उससे कहा कि यदि तुम ऐसे ही महादानी हो तो अपना सिर काट कर दे दो और तब बब्बरावाहन ने अपना सिर काट कर कृष्ण को दे दिया परन्तु यह वचन मांगा कि वह उसके सिर को ऐसी जगह रखेंगे जहां से वह महाभारत का युद्ध देख सके। कृष्ण ने बब्बरावाहन को दिये वचन के अनुसार उसका सिर छेकुर के पेड़ पर रख दिया, जहां से युद्ध का मैदान दिखता था। परन्तु जब भी कौरवों पाण्डवों की सेनाएं युद्ध के लिये पास आती थी तो बब्बरावाहन का सिर यह सोचकर कि हाय कैसे-कैसे योद्धा मैदान में है पर मैं इन से लड़ न सका, जोर से हंसता था। कहते है उसकी हंसी से भयभीत होकर दोनों सेनाएं मीलों तक पीछे हट जाती थीं। इस प्रकार यह युद्ध कभी भी नहीं हो पायेगा यह सोचकर कृष्ण ने जिस डाल पर बब्बरावाहन का सिर रखा हुआ था उसमें दीमक लगा दी। दीमक के कारण सिर नीचे गिर पड़ा और उसका मुख दूसरी ओर होने के कारण उसे युद्ध दिखाई देना बन्द हो गया। तब कहीं जाकर महाभारत का युद्ध आरम्भ हो सका।

कथा
टेसू और झाँझी

बहुत साल पहले किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार में लगभग सत्तर साठ व्यक्ति थे जो सभी प्रकार से सम्पन्न थे। इनमें से छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियां बहुत परेशान करती थी इससे दुखी होकर वह अपनी पुत्री को लेकर घर छोड़ कर दूसरे गांव चला गया यह गांव जंगल के किनारे एक सुन्दर गांव था। उस जंगल में एक राक्षस रहता था। ब्राह्मण की रूपवान कन्या जब एक दिन पानी भरने गई तब उस राक्षस ने उसे देख लिया और उस पर मोहित हो गया। उसने लड़की से उसका परिचय लिया और उसके पिता से मिलने की इच्छा प्रकट की तब लड़की ने कहा कि उसके पिता शाम के समय घर मिलते है। राक्षस शाम को ब्राह्मण से मिलने गया। ब्राह्मण बहुत घबराया उसने सोचा यह राक्षस मना करने पर मानने वाला नहीं इससे उसने राक्षस से कहा कि विवाह तो हो जायेगा। परन्तु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी इसलिये सोलह दिन का समय लगेगा। इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिये बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वांर माह के यह सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन माने जाते है। और इन दिनों ब्राह्मण की लड़की जो खेल गोबर की थपलियों से खेली वह सांझी या चन्दा तरैयां कहलाया और तभी से सांझी खेलने की परम्परा का आरंभ हुआ। सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परन्तु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाये इसलिये उसने फिर बहाना कि अब उसकी लड़की नौ दिन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद फिर वापिस आने का कह कर चला गया। तभी से यह नौ दिन नौरता कहलाये और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरु हुई। नौ दिन भी खत्म हो गये इस पर ब्राह्मण ने उससे कहा अब केवल आखिरी रात रह गई है। अब पांच दिन तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगोगे तब शरद पूर्णिमा के दिन तुम्हारी शादी हो सकेगी, राक्षस इस बात के लिये भी मान गया और तभी से दशहरे से पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम पर टेसू और ब्राह्मण की लड़की पर झांझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ। इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गये और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आये तो ब्राह्मण निराश हो गया और उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निश्चित कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गये और उन्होंने उस राक्षस को मार डाला। चूंकि उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिये उसे भ्रष्ट मान कर उन्होंने उसे भी मार डाला इसलिये टेसू और झांझी का पूरा विवाह नहीं होने दिया जाता है। उन्हें बीच में फोड़ दिया जाता है। ब्राह्मण के भाइयों ने ब्राह्मण को भी मार डाला। इसीलिये नौरता में मिट्टी के गौर बनाकर खेला जाने वाला सुआटा टेसू के विवाह के बाद उस ब्राह्मण पिता के प्रतीक सुअटा के रुप में फोड़ दिया जाता है।

दुकान पर बिकते टेसू और झाँझी

टेसू के प्रचलित गीत

1- टेसू के भई टेसू के
पान पसेरी के
उड़ गए तीतर रह गए मोर
सड़ी डुकरिया लै गए चोर
चोरन के जब खेती भई
खाय डुकटटो मोटी भई।

2-मेरा टेसू झंई अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में पन्नी
घर दो बेटा अठन्नी
अठन्नी अच्छी होती तो ढोलकी बनवाते
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाते
यार का दुपट्टा साड़े सात की निशानी
देखो रे लोगे वो हो गई दिवानी।


3- आगरे की गैल में छोकरी सुनार की
भूरे भूरे बाल उसकी नथनी हज़ार की
अपने महल में ढोलकी बजाती
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाती
यार का दुपटटा साड़े सात की निशानी
दखो रे लोगो वो हो गई दिवानी।


4- सेलखड़ी भई सेलखड़ी
नौ सौ डिब्बा रेल खड़ी
एक डिब्बा आरम्पार
उसमें बैठे मियांसाब
मियां साब की काली टोपी
काले हैं कलयान जी
गौरे हैं गुरयान जी
कूद पड़े हनुमान जी
लंका जीते राम जी।


5- टेसू भैया बड़े कसाई
आंख फोड़ बन्दूक चलाई
सब बच्चन से भीख मंगाई
दौनों मर गए लोग लुगाई।


6- टेसू रे टेसू
घंटार बजईयो
दस नगरी दस गाँव बसईयो
बस गये तीतर बस गये मोर
सड़ी डुकरिया ए लै गये चोर
चोरन के घर खेती
खाय डुकरिया मोटी
मोटी है के दिल्ली गयी
दिल्ली ते दो बिल्ली लाई
एक बिल्ली कानी
सब बच्चों की नानी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 266।

बाहरी कड़ियाँ

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