छितवन की छाँह -विद्यानिवास मिश्र

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छितवन की छाँह -विद्यानिवास मिश्र
छितवन की छाँह
छितवन की छाँह
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक छितवन की छाँह
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 21 अप्रैल, 2003
देश भारत
पृष्ठ: 123
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

छितवन की छाँह हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

पुस्तक के कुछ अंश

पृष्ठभूमि

अनजाने आदमी की अपनी अनजानी ग़लती के इतिहास को भी भूमिका कोई कहना चाहे तो मुझे आपत्ति नहीं है, वैसे भूमिका के स्वीकृत माने में यह भूमिका नहीं है। असल में लक्षणा की कृपा कहिये या अर्थ-विस्तार का जादू कि आज भूमिका का अर्थ है भूमि को छोड़कर आकाश-पाताल एक करते हुए अन्त में अन्तरिक्ष में ओझल हो जाना, पर लोगों की नम्रता है कि उसे आकाशिका, पातालिका या अन्तरिक्षिका न कहकर महज भूमिका कह देते हैं। सो मेरी वैसी क्षमता नहीं है, मैं तो अपने निबन्ध-लेखन की विशेषताओं का बयान करने जा रहा हूँ। उस बयान की यह लम्बी-चौड़ी भूमिका जरूर मैंने बाँधी है, पर बयान मेरा सीधा सपाट होगा इतना विश्वास रखिये।
संस्कृत के पठन-पाठन की ही मेरे कुल में परम्परा रही है, पर मैं रुद्री के ‘गणनां त्वां’ के आगे न जा सका और ए बी सी डी सीखने लगा। विश्वविद्यालय में पहुँचते-पहुँचते संस्कृत अध्ययन की ओर मेरा प्रत्यावर्त्तन हुआ और तभी एक ओर राबर्ट लुई स्टीवेंसन, टामस डिक्वेंसी, चार्ल्स लैम्ब और स्विफ्ट की कलमनवीसी से प्रभावित हुआ दूसरी ओर बाणभट्ट, भवभूति एवं अभिनवगुप्त पादाचार्य की भाषा शक्ति का भक्त बना। मेरी तबियत भी गुलेरी, पूर्णसिंह माधव मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त की डगर पर चलने के लिए मचलने लगी और काग़ज़-स्याही का मैंने काफ़ी दुरुपयोग किया भी। भाषाजडम्बर के पचीसों ठाठ बाँधें और उधेड़ दिये। यहाँ तक कि उन दिनों मित्रों के पास पत्र भी लिखता तो पन्ने रंग देता, बहुत से दाद भी देते और बहुतेरे तो चमत्कृत होकर रह जाते, कुछ जवाब ही नहीं देते। बाद में कुछ दिनों के लिए यह रसीला व्यापार जब केवल एक गँवई वाली तक सीमित रह गया था और उधर से प्रत्याशित प्रतिदान न मिलने से निराशा होने लगी थी, तब मेरी आँखें और संस्कृत के समास से भोजपुरी के व्यास की ओर एकदम खिंच आया। साहित्य का अधकचरा अध्ययन, मित्रों का प्रोत्साहन, पूरबी का स्नेहांचल वीजन और अपना बेकार जीवन...मेरे मध्य वित्तीय निबन्धों को यही दाय मिला है। पूर्वोक्त रससिद्ध लेखकों का ऋणी हूँ, यह कहकर उनको भी अपने साथ घसीटूँ, इतना दुस्साहस मुझमें नहीं है किन्तु जिन मित्रों ने मुझे इस ओर आने के लिए प्रोत्साहित क्यों दुरुत्साहित किया है, उनके नाम मैंने अपने आभार में गिना दिये हैं।

व्यक्तियों के प्रभाव की बात तो यह हुई, जिन विचारों की छाप मेरे ऊपर मेरी जानकारी में पड़ी है, उनका भी कुछ ब्यौरा दे दूँ। व्यक्तिप्रधान निबन्ध में कुछ लोग विचारत्व की ख़ास उपयोगिता नहीं देखते और वैसे लोगों को शायद मेरे निबन्धों में विचारत्व दिखे भी न, परन्तु मैं अपने आस्थाओं का अभिनिवेश रखे बिना कहीं भी नहीं रहना चाहता, निबन्धों में तो और भी नहीं। वैदिक सूक्तों के गरिमामय उद्गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्छिन्न प्रवाह की उपलब्धि होती है, उस भारतीय भावधारा का मैं स्नातक हूँ। मेरी मान्यताओं का वही शाश्वत आधार है मैं रेती में अपनी डेंगी नहीं चलाना चाहता और न जमीन के ऊपर बने रुँधे तालाबों में छपकोरी खेलना चाहता हूँ। इसलिए प्रचलित शब्दावली में अगर प्रगतिशील नहीं हूँ तो कम-से-कम प्रतिगामी भी नहीं ही हूँ। वैसे अगर भारत के राम और कृष्ण तथा सीता और राधा को प्रगति के दायरे से मतरूक़ न घोषित किया जाये तो मैं भी अच्छा ख़ासा प्रगतिशील अपने को कह सकता हूँ, और अगर राम और कृष्ण के नाम के साथ प्रतिगामिता लगी हुई हो तो मुझे प्रतिगामी कहलाने में सुख ही है।

कुछ दिनों तक सम्मेलन की राजनैतिक गोलबन्दी में ज़रूर पड़ गया था, पर किसी साहित्यिक गोलबन्दी में मैं शरीक नहीं रहा हूँ। इसलिए न मुझको किसी का वरद हस्त प्राप्त है, न किसी के पूर्वग्रह की कड़वी घूँट ही। मानवता की समानभूमि पर मुझे सभी मिल जाते हैं। यों तो ‘सहस नयन’ ‘सहस दस काना’ और ‘दो सहस’ रसना वाले प्रणम्य महानुभाव जो न देख-सुन-कह सकें, उनसे मैं पनाह माँगता हूँ। इतना मैं और कह दूँ कि विलायती चीजों के आदान से मुझे विरोध नहीं है, बशर्ते कि उतनी मात्रा में प्रदान करने की अपने में क्षमता भी हो। इस सिलसिले में मुझे काशी के एक व्युत्पन्न पंडित के बारे में सुनी कहानी याद आ रही है। उन पंडित के पास जर्मनी से कुछ विद्वान आये (शायद उन दिनों जो विद्वान संस्कृत सीखने आते थे, उनका घर जर्मनी ही मान लिया जाता था, खैर) और उनके पास टिक गये। स्वागत-सत्कार करते-करते पंडित जी को एक दिन सूझ आयी कि इन लोगों को भारतीय भोजन भारतीय ढंग से कराया जाये। सो वह इन्हें गंगा जी में नौका-विहार के लिए ले गये और गरमा-गरम कचालू बनवाकर भी लेते गये। नाव पर कचालू दोने में परसा गया, पंडित जी ने भर मुँह-कौर कचालू झोंक लिया, इसलिए उनकी देखादेखी जर्मन साहबों ने भी काफ़ी कचालू एक साथ मुँह में डाला, और बस मुँह में जाने की देरी थी, लाल मिर्च का उनके संवेदनशील सुकंठ से संस्पर्श होते ही, वे नाच उठे और कोट-पैंट डाले ही एकदम गंगा जी में कूद पड़े। किसी तरह मल्लाहों ने उन्हें बचाया। पर इसके बाद उनका ‘अदर्शनं लोपः’ हो गया। दूसरे लोगों ने पंडित जी को ऐसी अभद्रता के लिए भलाबुरा कहा तो उधर से जवाब मिला...‘इन लोगें ने हमें अंडा-शराब जैसी महँगी और निशिद्ध चीजें खानी सिखलायीं तो ठीक और मैंने शुद्ध चरपरे भारतीय भोजन की दीक्षा एक दिन इन लोगों को देने की कोशिश की तो मैं अभद्र हो गया ?’’ लोग इस उत्तर से निरुत्तर हो गये। तो कहने का मतलब यह कि आदन-प्रदान का यह भी एक तरीका है और शास्त्रसम्मत तरीका है, काशीधाम की इस पर मुहर लगी हुई है। परन्तु मैं साहित्य में ऐसे आदान-प्रदान का पक्षपाती नहीं हूँ। सूफियों और वेदान्तियों के जैसे आदान-प्रदान का मैं स्वागत करने को तैयार हूँ, नहीं तो अपनी बपौती बची रहे, यही बहुत है।

इस प्रसंग में आज नाम आता है मार्क्स और फ़ायड का। अर्थ और काम के विवेचन में इनकी देन महनीय है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु जब भारत में इनके अनुकूलन (एडाप्टेशन की बात आती है तो बरबस हमारा ध्यान अपने धर्म की ओर चला जाता है।) ‘रेलीजन’ से ‘धर्म’ में कितना भेद है, यह जो नहीं जानता वह भारतीय संस्कृति की समन्विति का ठीक-ठीक साक्षात्कार कर ही नहीं सकता। जन संस्कृति की बात भी जो लोग आज बहुत करते हैं, वे ‘जन’ का इतिहास परखे बिना ही। भारत का धर्म किसी शासन-व्यवस्था का कवच या आवरण नहीं है, वह स्वयं भारतीय जीवन का अन्तर्मर्म है। उस धर्म के जितने लक्षण कहे गये हैं, सबमें से यही ध्वनि निकलती है

‘चोदना लक्षणो धर्मः, आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, ‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयःसंसिद्धि स धर्मः’

जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। उस धर्म पर बेंठन जरूर पड़ता गया, पर इन खोलों को चीरने के बजाय भारतीय जीवन के मूल को उखाड़ फेंकना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए मार्क्स और फ्रायड की स्थापनाओं के शीर्ष पर व्यास का यह वाक्य मुझे झिलमिलाता मिलता है :

ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते।।

अर्थ और काम की आधार-रेखा के लिए धर्म ही शीर्षबिन्दु है और सुघटित समाज के लिए तीनों का समत्रिकोण अत्यावश्यक है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छितवन की छाँह (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 7 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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