राजस्थान
राजस्थान
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नाम | राजस्थान |
राजधानी | जयपुर |
राजभाषा(एँ) | हिन्दी भाषा, राजस्थानी भाषा |
स्थापना | 1956/11/01 |
जनसंख्या | 56,473,122 |
· घनत्व | 165 /वर्ग किमी |
क्षेत्रफल | 342239 sqkm |
भौगोलिक निर्देशांक | 26°34′22″N 73°50′20″E |
· ग्रीष्म | 46 °C |
· शरद | 8 °C |
ज़िले | 33 |
सबसे बड़ा नगर | जयपुर |
बड़े नगर | जयपुर, अजमेर, उदयपुर |
मुख्य ऐतिहासिक स्थल | जयपुर, भरतपुर, जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर, बीकानेर |
मुख्य पर्यटन स्थल | जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, माउण्ट आबू |
लिंग अनुपात | 1000:921 ♂/♀ |
साक्षरता | 61.03% |
राज्यपाल | प्रभु राव |
मुख्यमंत्री | अशोक गहलोत |
विधानसभा सदस्य | 200 |
बाहरी कड़ियाँ | अधिकारिक वेबसाइट |
अद्यतन | 2010/03/29 |
राजस्थान भारत का एक प्रान्त है। यहाँ की राजधानी जयपुर है। राजस्थान भारत गणराज्य के क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़ा राज्य है। इसके पश्चिम में पाकिस्तान, दक्षिण-पश्चिम में गुजरात, दक्षिण-पूर्व में मध्यप्रदेश, उत्तर में पंजाब, उत्तर-पूर्व में उत्तर प्रदेश और हरियाणा है। राज्य का क्षेत्रफल 3,42,239 वर्ग कि.मी. (1,32,139 वर्ग मील) है। जयपुर राज्य की राजधानी है। भौगोलिक विशेषताओं में पश्चिम में थार मरूस्थल और घग्गर नदी का अंतिम छोर है। विश्व की पुरातन श्रेणियों में प्रमुख अरावली श्रेणी राजस्थान की एकमात्र पहाड़ी है, जो कि पर्यटन का केन्द्र है, माउंट आबू और विश्वविख्यात दिलवाड़ा मंदिर को सम्मिलित करती है। पूर्वी राजस्थान में दो बाघ अभयारण्य, रणथम्भौर एवम् सरिस्का हैं और भरतपुर के समीप केवलादेव राष्ट्रीय उध्यान है, जो पक्षियों की रक्षार्थ निर्मित किया गया है। राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी, जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी।
इतिहास
भारत की आजादी से पहले यह क्षेत्र राजपूताना (राजपूतों का स्थान) कहलाता था। रणबांकुरे राजपूतों ने कई सदियों तक इस क्षेत्र पर राज्य किया। राजस्थान का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से शुरू होता है। ईसा पूर्व 3000 से 1000 के बीच यहाँ की संस्कृति सिंधु घाटी सभ्यता जैसी थी। 7वीं शताब्दी में यहाँ चौहान राजपूतों का प्रभुत्व बढने लगा और 12वीं शताब्दी तक उन्होंने एक साम्राज्य स्थापित कर लिया था। चौहान के बाद इस योद्धा जाति का नेतृत्व मेवाड़ के गहलोतों ने सँभाला। मेवाड़ के अलावा जो अन्य रियासतें ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमुख रहीं, वे हैं - भरतपुर, जयपुर, बूंदी, मारवाड़, कोटा, और अलवर। अन्य सभी रियासतें इन्हीं रियासतों से बनी। इन सभी रियासतों ने 1818 में अधीनस्थ गठबंधन की ब्रिटिश संधि स्वीकार कर ली जिसमें राजाओं के हितों की रक्षा की व्यवस्था थी, लेकिन इस संधि से आम जनता स्वाभाविक रूप से असंतुष्ट थी।
वर्ष 1857 के विद्रोह के बाद लोग स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए महात्मा गाँधी के नेतृत्व में एकजुट हुए। सन 1935 में अंग्रेज़ी शासन वाले भारत में प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने के बाद राजस्थान में नागरिक स्वतंत्रता तथा राजनीतिक अधिकारों के लिए आंदोलन और तेज हो गया। 1948 में इन बिखरी हुई रियासतों को एक करने की प्रक्रिया शुरू हुई, जो 1956 में राज्य में पुनर्गठन क़ानून लागू होने तक जारी रही। सबसे पहले 1948 में मत्स्य संघ बना, जिसमें कुछ ही रियासतें शामिल हुई। धीरे-धीरे बाकी रियासतें भी इसमें मिलती गई। सन 1949 तक बीकानेर, जयपुर, जोधपुर और जैसलमेर जैसी मुख्य रियासतें इसमें शामिल हो चुकी थीं और इसे बृहत्तर राजस्थान संयुक्त राज्य का नाम दिया गया। सन 1958 में अजमेर, आबू रोड तालुका और सुनेल टप्पा के भी शामिल हो जाने के बाद वर्तमान राजस्थान राज्य विधिवत अस्तित्व में आया। राजस्थान की समूची पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान पडता है जबकि उत्तर में पंजाब, उत्तर पूर्व में हरियाणा, पूर्व में उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में मध्य प्रदेश और दक्षिण-पश्चिम में गुजरात है।
कृषि
राज्य में वर्ष 2006-07 में कुल कृषि योग्य क्षेत्र 217 लाख हेक्टेयर था और वर्ष (2007-08) में अनुमानित खाद्यान उत्पादन 155.10 लाख टन रहा। राज्य की मुख्य फ़सलें हैं। चावल, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का, चना, गेहूं, तिलहन, दालें कपास और तंबाकू। इसके अलावा पिछले कुछ वर्षो में सब्जियों और संतरा तथा माल्टा जैसे नींबू प्रजाति के फलों के उत्पादन में काफ़ी वृद्धि हुई है। यहाँ की अन्य फ़सलें है लाल मिर्च, सरसों, मेथी, ज़ीरा, और हींग।
उद्योग और खनिज
राजस्थान सांस्कृतिक रूप में समृद्ध होने के साथ-साथ खनिजों के मामले में भी समृद्ध रहा है और अब वह देश के औद्योगिक परिदृश्य में भी तेजी से उभर रहा है। राज्य के प्रमुख केंद्रीय प्रतिष्ठानों में देबरी (उदयपुर) में जस्ता गलाने का संयंत्र, खेतडी (झुंझनूं) में तांबा परियोजना और कोटा में सूक्ष्म उपकरणों का कारखाना शामिल है। मार्च, 2006 तक राज्य में लघु उद्योगों की 2,75,400 इकाइयां थी। जिनमें 4,336.70 करोड़ रुपये की पूँजी लगी थी और लगभग 10.55 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था। मुख्य उद्योग हैं :वस्त्र, ऊनी कपडे, चीनी, सीमेंट, काँच, सोडियम संयंत्र, आक्सीजन, वनस्पति रंग, कीटनाशक, जस्ता, उर्वरक, रेल के डिब्बे, बॉल बियरिंग, पानी व बिजली के मीटर, टेलीवीजन सेट, सल्फ्यूरिक एसिड, सिंथेटिक धागे तथा तापरोधी ईंटें आदि। बहुमूल्य और कम मूल्य के रत्नों के अलावा कास्टिक सोडा, कैलशियम कार्बाइड, नाइलोन तथा टायर आदि अन्य महत्वपूर्ण औद्योगिक इकाइयां हैं। राज्य में जिंक कंसंट्रेट, पन्ना, गार्नेट, जिप्सम, खनिज चांदी, एस्बेस्टस, फैल्सपार तथा अभ्रक के प्रचुर भंडार हैं। राज्य में नमक, रॉक फास्फेट, मारबल तथा लाल पत्थर भी काफ़ी मात्रा में मिलता है। सीतापुर (जयपुर) में देश पहला निर्यात संवर्द्धन पार्क बनाया गया है जिसने काम करना प्रारंभ कर दिया है।
सिंचाई और बिजली
- मार्च 2007 के अंत तक राज्य में विभिन्न प्रमुख, मध्यम और छोटी सिचाई परियोजनाओं के माध्यम से 34.85 लाख हेक्टेयर की सिंचाई संभाव्यता का सृजन किया गया (2007-08) और 92,200 हेक्टेयर (आईजीएनपी और सीएडी के अलावा) की अतिरिक्त सिंचाई संभाव्यता का सृजन मार्च 2007 तक किया गया है।
- राज्य में संस्थापित विद्युत क्षमता दिसम्बर 2007 तक 6335.33 मेगावॉट हो गई है, जिसमें से 4000 मेगावॉट राज्य की अपनी परियोजनाओं द्वारा उत्पन्न की जाती है, 521.85 मेगावॉट सहयोगी परियोजनाओं से तथा 1813.18 मेगावॉट केन्द्रीय विद्युत उत्पादन स्टेशनों से आबंटित की जाती है।
परिवहन
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- सडकें: मार्च 2006 में राजस्थान में सड़को की कुल लंबाई 1,58,250 कि.मी. है।
- रेलवे: जोधपुर, बीकानेर, सवाई माधोपुर, कोटा और भरतपुर राज्य के प्रमुख रेलवे जंक्शन है।
उड्डयन
दिल्ली और मुंबई से जयपुर, जोधपुर तथा उदयपुर के लिए नियमित विमान सेवाएं हैं।
त्योहार
राजस्थान मेलों और उत्सवों की धरती है। होली, दीपावली, विजयदशमी, क्रिसमस जैसे प्रमख राष्ट्रीय त्योहारों के अलावा अनेक देवी-देवताओं, संतो और लोकनायकों तथा नायिकाओं के जन्मदिन मनाए जाते है। यहाँ के महत्वपूर्ण मेले हैं तीज, गणगौर(जयपुर), अजमेर शरीफ और गलियाकोट के वार्षिक उर्स, बेनेश्वर (डूंगरपुर) का जनजातीय कुंभ, श्री महावीर जी (सवाई माधोपुर मेला), रामदेउरा (जैसलमेर), जंभेश्वर जी मेला(मुकाम-बीकानेर), कार्तिक पूर्णिमा और पशु-मेला (पुष्कर-अजमेर) और श्याम जी मेला (सीकर) आदि।
पर्यटन स्थल
राज्य में पर्यटन के प्रमुख केंद्र हैं:
- जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, माउंट आबू,
- अलवर में सरिस्का बाघ विहार,
- भरतपुर में केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी विहार,
- अजमेर, जैसलमेर, पाली, चित्तौडगढ़ आदि।
राजस्थानी कला
इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।
स्थापत्य कला
राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दू, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मक़बरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, 36 फुट और नीचे से 14 फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला 'गरुड़ स्तम्भ' यहाँ भी देखा जा सकता है। 1567 ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन 'सूर्य मन्दिर' इसी ज़िले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में,
बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियाँ तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ ज़िले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर ज़िले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।
सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर ज़िले में स्थित आभानेरी का मन्दिर (हर्षत माता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं। उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सुरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है।
मुद्रा कला
राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है।
राणा कुम्भाकालीन (1433-1468 ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण विक्रम सम्वत् 1510, 1512, 1523 आदि तिथियों 'श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य', 'श्री एकलिंगस्य प्रसादात' और 'श्री' के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें 'टका' पुकारा जाता था। यह प्रभाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुग़लकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (1509-1528 ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर 'सुल्तान विन सुल्तान' का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुग़ल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड़ में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का 'कलदार' भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में 'पंचमार्क' मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहाँ बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा 'द्रम' का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बाँसवाड़ा ज़िले के सरवानियां गाँव से 1911 ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में 'फदका' या 'फदिया' मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।
राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुग़लकाल या उसके पश्चात् स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुग़ल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा - 'डोडिया' अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं। मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।
मूर्ति कला
राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर ज़िले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर 'बनजारे की छतरी' नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।
गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया। 15वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियाँ है। सोलहवीं शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियाँ बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरुप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।
धातु मूर्ति कला
धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहाँ बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही ज़िले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के ज़िले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है। अठाहरवीं शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यावसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।
चित्रकला
राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं। कोटा के जलवाड़ा गाँव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में 'मांडला' नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।
कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है। सर्वप्रथम वि.सं. 1117/1080 ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।
बारहवीं शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। 1260-1317 ई. में लिखा गया 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं। ग्याहरवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (1483/1426 ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (1485-1428 ई.) रसिकाष्टक (1435/1492 ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। 15वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।
मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (1421-1528 ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (1531-1462 ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण 1591 ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं। राजस्थान में मुग़ल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुग़ल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है।
मुग़ल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियाँ, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध 'पंचतंत्र' तथा 'शुकनासिक चरित्र' में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झाँकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।
मुग़ल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। 1671 ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहाँ के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं। चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।
सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की क़ब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, ग़लता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेख़ावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं।
कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चाँदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।
धातु एवं काष्ठ कला
इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएँ प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियाँ, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबल, कुर्सियाँ, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।
लोककला
अन्तत: लोककला के अन्तर्गत वाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।
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