श्राद्ध

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यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण
श्राद्ध कर्म करता एक श्रद्धालु

श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को श्राद्ध कहते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म में, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्घ्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे 'श्राद्ध' कहते हैं।

ब्रह्म पुराण ने श्राद्ध की परिभाषा यों दी है, 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।[1] मिताक्षरा[2] ने श्राद्ध को यों परिभाषित किया है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके कल्याण के लिए) श्राद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।' कल्पतरु की परिभाषा यों है, 'पितरों का उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।' रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने मिताक्षरा के समान ही कहा है, किन्तु इनमें परिभाषा कुछ उलझ सी गयी है। याज्ञवल्क्यस्मृति[3] का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं। यह वचन एवं मनु[4] की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, यथा–पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनकों पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए। कुछ लोगों के मत से श्राद्ध से इन बातों का निर्देश होता है; होम, पिण्डदान एवं ब्राह्मण तर्पण (ब्राह्मण संतुष्टि भोजन आदि से); किन्तु श्राद्ध शब्द का प्रयोग इन तीनों के साथ गोण अर्थ में उपयुक्त समझा जा सकता है।

श्राद्ध और पितर

श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट संबंध है। पितरों के बिना श्राद्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का माध्यम मात्र है। मृत व्यक्ति के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिण्ड, दानादि किया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है और जिस 'मृत व्यक्ति' के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया कर्म संपन्न हो जायें, उसी की 'पितर' संज्ञा हो जाती है।

'मेरे वे पितर जो प्रेतरूप हैं, तिलयुक्त जौं के पिण्डों से तृप्त हों।
साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक,
चर हो या अचर, मेरे द्वारा दिये जल से तृप्त हों।' - वायु पुराण

श्राद्ध क्या है?

श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई और इसके मूल में इसी श्लोक की भावना है। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मन्त्रों के साथ जो (दान-दक्षिणा आदि ) दिया जाय, वही श्राद्ध कहलाता है। 20 अंश रेतस (सोम) को 'पितृॠण' कहते हैं। 28 अंश रेतस के रूप में 'श्रद्धा' नामक मार्ग से भेजे जाने वाले 'पिण्ड' तथा 'जल' आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धावान मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।

श्राद्ध के देवता

वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं।

श्राद्ध क्यों?

हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करके और ठीक ढ़ग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे अपने वंशधर को सपरिवार सुख- समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।

श्राद्ध के प्रकार

श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-

  • नित्य- यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथी पर किया जाता है।
  • नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे-पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
  • काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृतिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।

श्राद्ध क्यों अनुपयोगी

नन्द पंण्डित कृत श्राद्धकल्प (लगभग 1600 ई.) ने विरोधियों (जिन्हें वे नास्तिक कहते हैं) को विस्तृत प्रत्युत्तर दिया है। विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, श्राद्ध सम्पादन कोई अर्थ नहीं रखता। नन्द पंण्डित ने पूछा है–'श्राद्ध क्यों अनुपयोगी है?' क्या इसीलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित विधान नहीं है? या इसीलिए की श्राद्ध से फलों की प्राप्ति नहीं होती? या इसीलिए की यह सिद्ध नहीं हुआ है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि पाते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि 'विज्ञ लोगों को पूरी शक्ति भर श्राद्ध अवश्य करना चाहिए'–ऐसे वचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं। इसी प्रकार से दूसरा विरोध भी अनुचित है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति[5] ने श्राद्ध के फल भी घोषित किये हैं, यथा दीर्घ जीवन आदि। इसी प्रकार तीसरा विकल्प भी स्वीकार करने योग्य नहीं है।

श्राद्ध कृत्यों में ऐसा नहीं है कि केवल 'देवदत्त' आदि नाम वाले पूर्वज ही प्राप्तिकर्ता हैं और वे पितृ, पितामह एवं प्रपितामह शब्दों से लक्षित होते हैं। प्रत्युत वे नाम वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों जैसे अधीक्षक देवताओं के साथ ही द्योतित होते हैं। जिस प्रकार देवदत्त आदि शब्दों से जो लक्षित होता है, वह न केवल शरीरों (जैसे की नाम दिये गये हैं) एवं आत्माओं का द्योतन करता है, प्रत्युत वह शरीरों से विशिष्टिकृत व्यक्तिगत आत्माओं का परिचायक है। इसी प्रकार पितृ आदि शब्द अधीक्षक देवताओं (वसु, रुद्र एवं आदित्य) के साथ 'देवदत्त' एवं अन्यों के सम्मिलित रूप का द्योतन करते हैं। अत: वसु आदि अधीक्षक देवतागण पुत्रों आदि द्वारा दिये गये भोजन-पान से संतुष्ट होकर उन्हें, अर्थात् देवदत्त आदि को संतुष्ट करते हैं और श्राद्धकर्ता को संतति, पुत्र, जीवन, सम्पत्ति आदि से फल देते हैं। जिस प्रकार गर्भवती माता देहाद (गर्भवती दशा में स्त्रियों की विशिष्ट इच्छा) रूप में अन्य लोगों से मधुर अन्न-पान आदि द्वारा स्वयं सन्तुष्टि प्राप्त करती है और गर्भस्थित बच्चे को भी संतुष्टि देती है तथा दोहद, अन्न आदि देने वाले को प्रत्युपकारक फल देती है, वैसे ही पितृ शब्द से द्योतित पिता, पितामह एवं प्रपितामह वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के रूप हैं, वे केवल मानव रूप में कहे जाने वाले देवदत्त आदि के समान नहीं हैं।

इसी से ये अधिष्ठाता देवतागण श्राद्ध में किये गये दानादि के प्राप्तिकर्ता होते हैं, श्राद्ध से तर्पित (संतुष्ट) होते हैं और मनुष्य के पितरों को संतुष्ट करते हैं।[6] श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेय पुराण से 18 श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें बहुत से अध्याय 28 में पाये जाते हैं। जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता को इतस्तत: फैली हुई अन्य गायों में से चुन लेता है, उसी प्रकार श्राद्ध में कहे गये मंत्र प्रदत्त भोजन को पितरों तक ले जाते हैं।[7]

श्राद्ध करने को उपयुक्त

साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत से भी लाभ पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य ( पिण्डदान, अग्निहोम ) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।[8]

श्राद्ध के लिए उचित बातें

  • श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं- तिल, माष (उड़द), चावल, जौ, जल, मूल, (जड़युक्त सब्जी) और फल
  • तीन चीज़ें शुद्धिकारक हैं - पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल या कुश।
  • तीन बातें प्रशंसनीय हैं - सफ़ाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता)) का न होना।
  • श्राद्ध में महत्त्वपूर्ण बातें - अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छ्ता, उदारता से भोजन आदि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मण की उपस्थिति।[8]

श्राद्ध के लिए अनुचित बातें

कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं प्रयुक्त होते- मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी, तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्रजल से बना नमक। भैंस, हिरिणी, उँटनी, भेड़ और एक खुरवाले पशु का दूध भी वर्जित है पर भैंस का घी वर्जित नहीं है। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने जाते हैं। श्राद्ध किसी दूसरे के घर में, दूसरे की भूमि में कभी नहीं किया जाता है। जिस भूमि पर किसी का स्वामित्व न हो, सार्वजनिक हो, ऐसी भूमि पर श्राद्ध किया जा सकता है।[8]

भाद्रपद में ही श्राद्ध क्यों

हमारा एक माह चंद्रमा का एक अहोरात्र होता है। इसीलिए ऊर्ध्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्यान है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी उनका दिन होता है। धार्मिक मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि व ऊर्जा प्रदान करते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार पृथ्वी लोक में देवता उत्तर गोल में विचरण करते हैं और दक्षिण गोल भाद्र मास की पूर्णिमा को चंद्रलोक के साथ-साथ पृथ्वी के नज़दीक से गुजरता है। इस मास की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच जाते है और वहाँ अपना सम्मान पाकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी नई पीढ़ी को आर्शीवाद देकर चले जाते हैं। ऐसा वर्णन श्राद्ध मीमांसा में मिलता है। इस तरह पितृ ॠण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध काल में पितरों का तर्पण और पूजन किया जाता है। भारतीय संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों एवं दिवंगत माता-पिता के स्मरण श्राद्ध पक्ष में करके उनके प्रति असीम श्रद्धा के साथ तर्पण, पिंडदान, यक्ष तथा ब्राह्मणों के लिए भोजन का प्रावधान किया गया है। पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं। प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और दूसरा पितृ पक्ष में। जिस मास और तिथि को पितृ की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उनका दाह संस्कार हुआ है, वर्ष में उम्र उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है।

एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिण्ड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। यदि किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथियाँ याद नहीं है, तो वह अमावस्या के दिन ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का विधि-विधान से पिंडदान तर्पण, श्राद्ध कर सकता है। इस दिन किया गया तर्पण करके 15 दिन के बराबर का पुण्य फल मिलता है और घर परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में विशेष उन्नति होती है। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई है, तो पितृदोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्मशांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करना चाहिए। सामर्थ्यनुसार किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ ब्राह्मण से श्रीमद भागवत पुराण की कथा अपने पितरों की आत्मशांति के लिए करवा सकते हैं। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन से बरकत न होना सारी सुख सुविधाओं के होते भी मन असंतुष्ट रहना आदि परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है।

मातामह श्राद्ध

  • मातामह श्राद्ध अपने आप में एक ऐसा श्राद्ध है जो एक पुत्री द्वारा अपने पिता को व एक नाती द्वारा अपने नाना को तर्पण किया जाता है।
  • इस श्राद्ध को सुख शांति का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह श्राद्ध करने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें है अगर वो पूरी न हो तो यह श्राद्ध नहीं निकाला जाता।
  • शर्त यह है कि मातामह श्राद्ध उसी औरत के पिता का निकाला जाता है जिसका पति व पुत्र जिन्दा हो अगर ऐसा नहीं है और दोनों में से किसी एक का निधन हो चुका है या है ही नहीं तो मातामह श्राद्ध का तर्पण नहीं किया जाता।

श्राद्ध में कुश और तिल का महत्त्व

दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि कुश और तिल दोंनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय हैं और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। मान्यता है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाये तो दुष्टात्मायें हवि को ग्रहण कर लेती हैं।[8]

कम ख़र्च में श्राद्ध

विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र व्यक्ति केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।

कौओं का महत्त्व

कौआ

ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति मर कर सबसे पहले कौए का जन्म लेता है और ऐसी मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से पितरों को खाना मिलता है। इसी कारण है कि श्राद्ध पक्ष में कौओं का विशेष महत्त्व है और प्रत्येक श्राद्ध के दौरान पितरों को खाना खिलाने के तौर पर सबसे पहले कौओं को खाना खिलाया जाता है। जो व्यक्ति श्राद्ध कर्म कर रहा है वह एक थाली में सारा खाना परोसकर अपने घर की छत पर जाता है और ज़ोर ज़ोर से कोबस कोबस कहते हुए कौओं को आवाज़ देता है। थोडी देर बाद जब कोई कौआ आ जाता है तो उसको वह खाना परोसा जाता है। पास में पानी से भरा पात्र भी रखा जाता है। जब कौआ घर की छत पर खाना खाने के लिए आता है तो यह माना जाता है कि जिस पूर्वज का श्राद्ध है वह प्रसन्न है और खाना खाने आ गया है। कौए की देरी व आकर खाना न खाने पर माना जाता है कि वह पितर नाराज़ है और फिर उसको राजी करने के उपाय किए जाते हैं। इस दौरान हाथ जोड़कर किसी भी ग़लती के लिए माफ़ी माँग ली जाती है और फिर कौए को खाना खाने के लिए कहा जाता है। जब तक कौआ खाना नहीं खाता व्यक्ति के मन को प्रसन्नता नहीं मिलती। इस तरह श्राद्ध पक्ष में कौओं की भी पौ बारह है और काफ़ी मान मनौव्वल का दौर चल रहा है।

पिण्ड का अर्थ

श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो पिण्ड बनाते हैं, उसे 'सपिण्डीकरण' कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है कि हर पीढी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा, परदादा और पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।

श्राद्ध पक्ष का वैज्ञानिक पहलू

श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो कि जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। इसलिए शास्त्र पूर्वजन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित करते हैं।

जन्म एवं मृत्यु का रहस्य अत्यन्त गूढ़ है। वेदों में, दर्शन शास्त्रों में, उपनिषदों एवं पुराणों आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों ने इस विषय पर विस्तृत विचार किया है। श्रीमदभागवत में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है। यह प्रकृति का नियम है। शरीर नष्ट होता है मगर आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती है। वह पुन: जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है। इस पुन: जन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धदि कर्म का विधान निर्मित किया गया है। अपने पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएँ सचमुच उन्हें प्राप्त होती हैं या नहीं, इस विषय में अधिकांश लोगों को संदेह है। हमारे पूर्वज अपने कर्मानुसार किस योनि में उत्पन्न हुए है, जब हमें इतना ही नहीं मालूम तो फिर उनके लिए दिए गए पदार्थ उन तक कैसे पहुँच सकते हैं? क्या एक ब्राह्मण को भोजन कराने से हमारे पूर्वजों का पेट भर सकता है? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते होंगे। वैसे इन प्रश्नों का सीधे-सीधे उत्तर देना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि वैज्ञानिक मापदण्डों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता। दुनिया में ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है।   अब श्राद्ध संस्कार को ही लीजिए। श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। यहाँ से दूसरे लोक में जाने और दूसरा शरीर प्राप्त करने में जीवात्मा की सहायता करके मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा कर देता है। इसलिए इस क्रिया को श्राद्ध कहते हैं, जो श्रृद्धा से बना है। श्राद्ध की क्रियाएँ दो भागों में बँटी हुई हैं। पहला प्रेत क्रिया और दूसरा पितृ क्रिया। ऐसा माना जाता है कि मरा हुआ व्यक्ति एक वर्ष में पितृ लोक पहुँचता है। अत: सपिंडीकरण का समय एक वर्ष के अन्त में होना चाहिए। परन्तु इतने दिनों तक अब लोग प्रतिक्षा नहीं कर पाते हैं। इस स्थिति में सपिंडीकरण की अवधि छह महीने से अब 12 दिन की हो गई है। इसके लिए गरुड़ पुराण का श्लोक आधार है-

"अनित्यात्कलिधर्माणांपुंसांचैवायुष: क्षयात्।
अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहे प्रशस्यते।।"

अर्थात् कलियुग में धर्म के अनित्य होने के कारण पुरुषों की आयु क्षीणता तथा शरीर के क्षण भंगुर होने से बारहवें दिन सपिंडी की जा सकती है। वर्णानुसार यह दिन आगे भी बढ़ जाता है। बारहवाँ दिन उनके लिए है, जिनकी शुद्धि दस दिन में हो जाती है।

जिस प्रकार सभी संस्कार प्रकृति के कार्य को सहायता पहुँचाने के लिए बने हैं, उसी प्रकार प्रेत क्रिया का भी उद्देश्य यही है कि वह प्राणमय कोश की, अन्नमय कोश के यथावत रहने के समय तक उस पर अवलंबित रहने की प्रकृति को नष्ट कर दे और जब तक प्रकृति अपनी साधारण प्रक्रिया में पहुँचाना चाहे, उस मनुष्य को भूलोक में इस प्रकार धारण किए रहे। इस विषय में सबसे पहला आवश्यक कार्य यह है कि अन्नमय कोश नष्ट कर दिया जाए और वह दाह करने से हो जाता है। छान्दोग्योपनिषद में उल्लेख है–'ते प्रेतं दिष्टमितो अग्नय ऐ हरन्ति यत एवेतो यत: संभूतो भवति।' अर्थात् जैसा निर्दिष्ट है, वे मृतात्मा को अग्नि के पास ले जाते हैं, जहाँ से वह आया था और जहाँ से वह उत्पन्न हुआ था। शव में आग लगाने से पूर्व दाहकर्ता चिता की परिक्रमा करता है और उस पर इस मंत्र के साथ जल छिड़कता है–'अयेत वीत वि च सर्पत अत:।' अर्थात् जाओ, अपसरण करो, विदा हो जाओ, जब तक दाह होता रहता है, तब तक कहा जाता है। बाद में बची हुई हड्डियों का संचय करके प्रवाह कर दिया जाता है। इसके बाद मनोमय कोष के विश्लेषण करने का काम आता है, जिससे प्रेत बदल कर पितृ हो जाता है। सभी संस्कारों विवाह को छोड़कर श्राद्ध ही ऐसा धार्मिक कृत्य है, जिसे लोग पर्याप्त धार्मिक उत्साह से करते हैं। विवाह में बहुत से लोग कुछ विधियों को छोड़ भी देते हैं, परन्तु श्राद्ध कर्म में नियमों की अनदेखी नहीं की जाती है। क्योंकि श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य परलोक की यात्रा की सुविधा करना है।

क्या हैं नियम

  • दैनिक पंच यज्ञों में पितृ यज्ञ को ख़ास बताया गया है। इसमें तर्पण और समय-समय पर पिण्डदान भी सम्मिलित है।
  • पूरे पितृपक्ष भर तर्पण आदि करना चाहिए।
  • इस दौरान कोई अन्य शुभ कार्य या नया कार्य अथवा पूजा-पाठ अनुष्ठान सम्बन्धी नया काम नहीं किया जाता। साथ ही श्राद्ध नियमों का विशेष पालन करना चाहिए।
  • परन्तु नित्य कर्म तथा देवताओं की नित्य पूजा जो पहले से होती आ रही है, उसको बन्द नहीं करना चाहिए।

अनुष्ठान का अर्थ

अपने दिवंगत बुजुर्गों को हम दो प्रकार से याद करते हैं-

  • स्थूल शरीर के रूप में
  • भावनात्मक रूप से।

स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि को या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति कर उनके भावनात्मक शरीर की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आर्शीवाद दें।

वेदान्त के अनुसार

श्राद्ध कर्म में स्नान करते ब्राह्मण

श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेयपुराण के आधार पर जो तर्क उपस्थित किये हैं, वे संतोषजनक नहीं हैं और उनमें बहुत खींचातानी है। मार्कण्डेय एवं मत्स्य, ऐसा लगता है, वेदान्त के इस कथन के साथ हैं कि आत्मा इस शरीर को छोड़कर देव या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाती है। जो अनुमान उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है।[9] इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि पितृगण विभिन्न स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूर ही स्थान पर किया जाता है। ऐसा मानना क्लिष्ट कल्पना है कि जहाँ दुष्कर्मों के कारण कोई पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, ऐसे स्थान विशेष में उगी हुई घास वही है, जो सैकड़ों कोस दूर श्राद्ध में किये गये द्रव्यों के कारण उत्पन्न हुई है। इतना ही नहीं, यदि एक या सभी पितर पशु आदि योनि में परिवर्तित हो गये हैं, तो किस प्रकार अपनी सन्तानों को आयु, धन आदि दे सकते हैं? यदि यह कार्य वसु, रुद्र एवं आदित्य करते हैं तो सीधे तौर पर यह कहना चाहिए कि पितर लोग अपनी सन्तति को कुछ भी नहीं दे सकते।

श्राद्ध में खीर-पूरी का महत्त्व

श्राद्ध के दौरान पंडितों को खीर-पूरी खिलाने का महत्त्व होता है। माना जाता है कि इससे स्वर्गीय पूर्वजों की आत्मा तृप्त होती है। पुरुष के श्राद्ध में ब्राह्मण को तथा स्त्री के श्राद्ध में ब्राह्मण महिला को भोजन कराया जाता है। लोग अपनी श्रद्धा अनुसार खीर-पूरी तथा सब्जियाँ बनाकर उन्हें भोजन कराते हैं तथा बाद में वस्त्र व दक्षिणा देकर व पान खिलाकर विदा करते हैं। सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने पूर्वज का चित्र रखकर पंडित नियमपूर्वक पूजा व संकल्प कराते हैं। इस दिन बिना प्याज व लहसुन का भोजन तैयार किया जाता है। बाद में पंडित व पंडिताइन के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर उन्हें भोजन कराते हैं। भोजन में खीर-पूरी व पनीर, सीताफल, अदरक व मूली का लच्छा तैयार किया जाता है। उड़द की दाल के बड़े बनाकर दही में डाले जाते हैं। पंडित सर्वप्रथम गाय का नैवेद्य निकलवाते हैं। इसके अलावा कौओं व चिड़िया, कुत्ते के लिए भी ग्रास निकालते हैं। पितृ अमावस्या को आख़िरी श्राद्ध करके पितृ विसर्जन किया जाता है तथा पितरों को विदा किया जाता है। कई जगहों पर अमावस्या के दिन पंडित बहुत कम मिलते हैं क्योंकि एक धारणा यह है कि श्राद्ध का भोजन या तो कुल पंडित या किसी ख़ास ब्राह्मण को कराया जाता है। कई जगह व्यस्त होने के चलते भी पंडितों की कमी रहती है। मान्यता है कि ब्राह्मणों को खीर-पूरी खिलाने से पितृ तृप्त होते हैं। यही वजह है कि इस दिन खीर-पूरी ही बनाई जाती है। [10]

श्राद्ध-कर्म की संक्षिप्त विधि

  • श्राद्ध दिवस से पूर्व दिवस को बुद्धिमान पुरुष श्रोत्रिय आदि से विहित ब्राह्मणों को 'पितृ-श्राद्ध' तथा ‘वैश्व-देव-श्राद्ध’ के लिए निमंत्रित करें।
  • पितृ-श्राद्ध के लिए सामर्थ्यानुसार अयुग्म तथा वैश्व-देव-श्राद्ध के लिए युग्म ब्राह्मणों को निमंत्रित करना चाहिए।
  • निमंत्रित तथा निमंत्रक क्रोध, स्त्रीगमन तथा परिश्रम आदि से दूर रहे।

प्राचीन प्रथा

प्रतीत होता है कि श्राद्ध द्वारा पूजा-अर्चना प्राचीन प्रथा है और पुनर्जन्म एवं कर्मविपाक के सिद्धान्त अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन हैं और हिन्दू धर्म ने, जो कि व्यापक है (अर्थात् अपने में सभी को समेट लेता है) पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्त ग्रहण करते हुए भी श्राद्धों की परम्परा को ज्यों कि त्यों रख लिया है। एक प्रकार से श्राऋ संस्था अति उत्तम हैं। इससे व्यक्ति अपने उन पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में अपने प्रिय थे। आर्यसमाज श्राद्ध प्रथा का विरोध करता है और ऋग्वेद में उल्लिखित पितरों को वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले जीवित लोगों के अर्थ में लेता है। यह ज्ञातव्य है कि वैदिक उक्तियाँ दोनों सिद्धान्तों का पालन करती है। शतपथ ब्राह्मण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यज्ञकर्ता के पिता को दिया गया भोजन इन शब्दों में कहा जाता है–'यह तुम्हारे लिये है'। विष्णु पुराण[11] में आया है–'वह, जिसका पिता मृत हो गया हो, अपने पिता के लिए पिण्ड रख सकता है।' मनु स्मृति[12] ने कहा है कि पिता वसु, पितामह रुद्र एवं आदित्य कहे गये हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति[13] ने यह व्यवस्था दी है कि वसु, रुद्र एवं आदित्य पित हैं और श्राद्ध के अधिष्ठाता देवता हैं। इस अन्तिम कथन का उद्देश्य है कि पितरों का ध्यान वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में करना चाहिए।

ग्रन्थों के अनुसार

पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं।[14] बौधायन धर्मसूत्र[15] ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं। यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु पुराण[16] में ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों, अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं।[17] मनु[18] एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण[19] ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। विष्णु धर्मसूत्र[20] में आया है–"मृतात्मा श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक में रसास्वादन करता है; चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास पहुँचता है; जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।[21]

पाँच भाग

ब्रह्म पुराण[22] के मत से श्राद्ध का वर्णन पाँच भागों में किया जाना चाहिए। कैसे, कहाँ, कब, किसके द्वारा एवं किन सामग्रियों द्वारा। किन्तु इन पाँच प्रकारों के विषय में लिखने के पूर्व में हमें 'पितर' शब्द की अन्तर्निहित आदकालीन विचारधारा पर प्रकाश डाल लेना चाहिए। हमें यह देखना है कि अत्यन्त प्राचीन काल में (जहाँ तक हमें साहित्य प्रकाश मिल पाता है) इस शब्द के विषय में क्या दृष्टिकोण था और इसकी क्या महत्ता थी।

पितृ का अर्थ

'पितृ' का अर्थ है 'पिता', किन्तु 'पितर' शब्द जो दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है:-

  1. व्यक्ति के आगे के तीन मृत पूर्वज एवं
  2. मानव जाति के प्रारम्भ या प्राचीन पूर्वज जो एक प्रथक लोक के अधिवासी के रूप में कल्पित हैं।[23]

दूसरे अर्थ के लिए ऋग्वेद[24] में उल्लेख है "वह सोम जो कि शक्तिशाली होता चला जाता है और दूसरों को भी शक्तिशाली बनाता है, जो तानने वाले से तान दिया जाता है, जो धारा में बहता है, प्रकाशमान (सूर्य) द्वारा जिसने हमारी रक्षा की–'वह सोम, जिसकी सहायता से हमारे पितर लोगों ने एक स्थान (जहाँ गोयें छिपाकर रखी हुई थीं) को एवं उच्चतर स्थलों को जानते हुए गौओं के लिए पर्वत को पीड़ित किया।" ऋग्वेद[25] में पितृगण निम्न, मध्यम एवं उच्च तीन श्रेणियों में व्यक्त हुए हैं। वे प्राचीन, पश्चात्यकालीन एवं उच्चतर कहे गये हैं।[26] वे सभी अग्नि को ज्ञात हैं, यद्यपि सभी पितृगण अपने वंशजों को ज्ञात नहीं हैं।[27] वे कई श्रेणियों में विभक्त हैं, यथा–अंगिरस्, वैरूप, भृगु, नवग्व एवं दशग्व[28]; अंगिरस् लोग यम से सम्बन्धित हैं, दोनों को यज्ञ में साथ ही बुलाया जाता है।[29] ऋग्वेद[30] में ऐसा कहा गया है–"जिसकी (इन्द्र की) सहायता से हमारे प्राचीन पितर अंगिरस्, जिन्होंने उसकी स्तुति-वन्दना की और जो स्थान को जानते थे, गौओं का पता लगा सके।" अंगिरस् पितर लोग स्वयं दो भागों में विभक्त थे; नवग्व एवं दशग्व।[31] कई स्थानों पर पितर लोग सप्त ऋषियों जैसे सम्बोधित किये गये हैं[32] और कभी-कभी नवग्व एवं दशग्व भी सप्त ऋषि कहे गये हैं।[33] अंगिरस् लोग अग्नि[34] एवं स्वर्ग[35] के पुत्र कहे गये हैं। पितृ लोग अधिकतर देवों, विशेषत: यम के साथ आनन्द मनाते हुए व्यक्त किये गये हैं।[36] वे सोमप्रेमी होते हैं[37], वे कुश पर बैठते हैं[38], वे अग्नि एवं इन्द्र के साथ आहुतियाँ लेने आते हैं[39] और अग्नि उनके पास आहुतियाँ ले जाती हैं।[40] जल जाने के उपरान्त मृतात्मा को अग्नि पितरों के पास ले जाती है।[41] पश्चात्कालीन ग्रन्थों में भी, यथा मार्कण्डेय पुराण[42] में ब्रह्मा को आरम्भ में चार प्रकार की श्रेणियाँ उत्पन्न करते हुए व्यक्त किया गया है, यथा–देव, असुर, पितर एवं मानव प्राणी।[43]

भाद्रपद की प्रतीक्षा हमारे पूर्वज पूरे वर्ष भर करते हैं। वे चंद्रलोक के माध्यम से दक्षिण दिशा में अपनी मृत्यु तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर जाते हैं और सम्मान पाकर अपनी नई पीढ़ी को आशीर्वाद देते हैं।

ऐसा माना गया है कि शरीर के दाह के उपरान्त मृतात्मा को वायव्य शरीर प्राप्त होता है और वह मनुष्यों को एकत्र करने वाले यम एवं पितरों के साथ हो लेता है।[44] मृतात्मा पितृलोक में चला जाता है और अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह उसे सत् कर्म वाले पितरों एवं विष्णु के पाद-न्यास (विक्रम) की ओर ले जाए।[45] यद्यपि ऋग्वेद[46] में यम की दिवि (स्वर्ग में) निवास करने वाला लिखा गया है, किन्तु निरुक्त[47] के मत से वह मध्यम लोक में रहने वाला देव कहा गया है। अथर्ववेद[48] का कथन है–"हम श्रद्धापूर्वक पिता के पिता एवं पितामह की, जो बृहत् मध्यम लोक में रहते हैं और जो पृथ्वी एवं स्वर्ग में रहते हैं, पूजा करें।" ऋग्वेद[49] में आया है–'तीन लोक हैं; दो (अर्थात् स्वर्ग एवं पृथ्वी) सविता की गोद में हैं, एक (अर्थात् मध्यम लोक) यमलोक है, जहाँ मृतात्मा एकत्र होते हैं।' 'महान प्रकाशमान (सूर्य) उदित हो गया है, (वह) पितरों का दान है।[50]' तैत्तिरीय ब्राह्मण[51] में ऐसा आया है कि पितर इससे आगे तीसरे लोक में निवास करते हैं। इसका अर्थ यह है कि भुलोक एवं अंतरिक्ष के उपरान्त पितृलोक आता है। बृहदारण्यकोपनिषद्[52] में मनुष्यों, पितरों एवं देवों के तीन लोक पृथक-पृथक वर्णित हैं। ऋग्वेद[53] में यम कुछ भिन्न भाषा में उल्लिखित है, वह स्वयं एक देव कहा गया है, न कि प्रथम मनुष्य जिसने मार्ग बनाया[54], या वह मनुष्यों को एकत्र करने वाला है[55] या पितरों की संगति में रहता है। कुछ स्थलों पर वह निसन्देह राजा कहा जाता है और वरुण के साथ ही प्रशंसित है।[56] किन्तु ऐसी स्थिति बहुत ही कम वर्णित है।[57]

पितरों की अन्य श्रेणियाँ

  • पितरों की अन्य श्रेणियाँ भी हैं, यथा–पितर: सोमवन्त:, पितर: बर्हिषद: एवं पितर: अग्निष्वात्ता:।
  • अन्तिम दो के नाम ऋग्वेद[58] में आये हैं। शतपथ ब्राह्मण ने इनकी परिभाषा यों की है–"जिन्होंने एक सोमयज्ञ किया, वे पितर सोमवन्त: कहे गये हैं; जिन्होंने पक्व आहुतियाँ (चरु एवं पुरोडास के समान) दीं और एक लोक प्राप्त किया, वे पितर बर्हिषद: कहे गये हैं; जिन्होंने इन दोनों में कोई कृत्य नहीं सम्पादित किया और जिन्हें जलाते समय अग्नि ने समाप्त कर दिया, उन्हें अग्निष्वात्ता: कहा गया है; केवल ये ही पितर हैं।"[59]
  • पाश्चात्कालीन लेखकों ने पितरों की श्रेणियों के नामों के अर्थों में परिवर्तन कर दिया है।
  • उदाहरणार्थ, नान्दीपुराण (हेमाद्रि) में आया है- ब्राह्मणों के पितर अग्निष्वात्त, क्षत्रियों के पितर बर्हिषद्, वैश्यों के पितर काव्य, शूद्रों के पितर सुकालिन: तथा म्लेच्छों एवं अस्पृश्यों के पितर व्याम हैं।[60]
  • यहाँ तक की मनु[61] ने भी पितरों की कई कोटियाँ दी हैं और चारों वर्णों के लिए क्रम से सोमपा:, हविर्भुज:, आज्यपा: एवं सुकालिन: पितरों के नाम बतला दिये गये हैं। आगे चलकर मनु[62] ने कहा है कि ब्राह्मणों के पितर अनग्निदग्ध, अग्निदग्ध, काव्य बर्हिषद्, अग्निष्वात्त एवं सौम्य नामों से पुकारे जाते हैं। इन नामों से पता चलता है कि मनु ने पितरों की कोटियों के विषय में कतिपय परम्पराओं को मान्यता दी है।
  • इन नामों एवं इनकी परिभाषा के लिए मत्स्य पुराण[63] में भी उल्लेख है।
  • शातातपस्मृति[64] में पितरों की 12 कोटियों या विभागों के नाम आये हैं, यथा–पिण्डभाज: (3), लेपभाज: (3), नान्दीमुख (3) एवं अश्रुमुख (3)। यह पितृविभाजन दो दृष्टियों से हुआ है।
  • वायु पुराण[65], ब्रह्माण्ड पुराण[66], पद्म पुराण[67], विष्णुधर्मोत्तर[68] एवं अन्य पुराणों में पितरों के सात प्रकार आये हैं, जिनमें तीन अमूर्तिमान् हैं और चार मूर्तिमान्; वहाँ पर उनका और उनकी संतति का विशद वर्णन हुआ हैं इन पर हम विचार नहीं करेंगे।
  • स्कन्द पुराण[69] ने पितरों की नौ कोटियाँ दी हैं; अग्निष्वात्ता:, बर्हिषद:, आज्यपात्, सोमपा:, रश्मिपा:, उपहूता:, आयन्तुन:, श्राद्धभुज: एवं नान्दीमुखा:। इस सूची में नये एवं पुराने नाम सम्मिलित हैं।
  • भारतीय लोग भागों, उपविभागों, विभाजनों आदि में बड़ी अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं और सम्भवत: यह उसी भावना का एक दिग्दर्शन है।
  • मनु[70] ने कहा है कि ऋषियों से पितरों की उदभूति हुई, पितरों से देवों एवं मानवों की तथा देवों से स्थावर एवं जंगम के सम्पूर्ण लोक की उदभूति हुई।
  • यह द्रष्टव्य है कि यहाँ देवगण पितरों से उदभूत माने गये हैं। यह केवल पितरों की प्रशस्ति है (अर्थात् यह एक अर्थवाद है)।

देवों से भिन्न

पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद[71] के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना:' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण[72] ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ, देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है[73] और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेद[74] में देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं। तैत्तिरीय संहिता[75] में आया है–'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।' सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में।[76] शतपथ ब्राह्मण[77] ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- 'तुम लोगों को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा विचार की ते­ज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।' देवों से उसने कहा- 'यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।' तैत्तिरीय ब्राह्मण[78] ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।

देव-कृत्य एवं पितृ कृत्य

कौशिकसुत्र[79] ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीर बार या शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं, किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र[80] ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है।[81] स्वयं ॠग्वेद[82] ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण[83] ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।

देव एवं पितर की पृथक कोटियाँ

यद्यपि देव एवं पितर पृथक कोटियों में रखे गये हैं, तथापि पितर लोग देवों की कुछ विशेषताओं को अपने में रखते हैं। ऋग्वेद[84] ने कहा है कि पितर सोम पीते हैं। ऋग्वेद[85] में ऐसा कहा गया है कि पितरों ने आकाश को नक्षत्रों से सुशोभित किया (नक्षत्रेभि: पितरो द्यामपिंशन्) और अंधकार रात्रि में एवं प्रकाश दिन में रखा। पितरों को गुप्त प्रकाश प्राप्त करने वाले कहा गया है और उन्हें 'उषा' को उत्पन्न करने वाले द्योतित किया गया है।[86] यहाँ पितरों को उच्चतम देवों की शक्तियों से समन्वित माना गया है। भाँति-भाँति के वरदानों की प्राप्ति के लिए पितरों को श्रद्धापूर्वक बुलाया गया है और उनका अनुग्रह कई प्रकार से प्राप्य कहा गया है।[87] में पितरों से सुमति एवं सौमनस (अनुग्रह) प्राप्त करने की बात कही गयी है। उनसे कष्टरहित आनन्द देने[88] एवं यजमान (यज्ञकर्ता) को एवं उसके पुत्र को सम्पत्ति देने के लिए प्रार्थना की गयी है।[89] ऋग्वेद[90] एवं अथर्ववेद[91] ने सम्पत्ति एवं शूर पुत्र देने को कहा है। अथर्ववेद[92] ने कहा है–'वे पितर जो वधु को देखने के लिए एकत्र होते हैं, उसे सन्ततियुक्त आनन्द दें।' वाजसनेयी संहिता[93] में प्रसिद्ध मंत्र यह है–"हे पितरो, (इस पत्नी के) गर्भ में (आगे चलकर) कमलों की माला पहनने वाला बच्चा रखो, जिससे वह कुमार (पूर्ण विकसित) हो जाए", जो इस समय कहा जाता है, जब कि श्राद्धकर्ता की पत्नी तीन पिण्डों में बीच का पिण्ड खा लेती है।[94]

भय-तत्त्व

इन शब्दों से यह नहीं समझना चाहिए कि पितरों के प्रति लोगों में भय-तत्त्व का सर्वथा अभाव था।[95] उदाहरणार्थ ॠग्वेद[96] में आया है–'(त्रुटि करने वाले) मनुष्य होने के नाते यदि हम आप के प्रति कोई अपराध करें तो हमें उसके लिए दण्डित न करें।' ॠग्वेद[97] में हम पढ़ते हैं–"वे देव एवं प्राचीन पितर, जो इस स्थल (गौओं या मार्ग) को जानते हैं, हमें यहाँ हानि न पहुँचायें।" ॠग्वेद[98] में ऐसा आया है कि–'वसिष्ठों ने देवों की स्तुति करते हुए पितरों एवं ऋषियों के सदृश वाणी (मंत्र) परिमार्जित की या गढ़ी।" यहाँ पितृ एवं ऋषि दो पृथक कोटियाँ हैं और वसिष्ठों की तुलना दोनों से की गई है।[99]

आवाहन

वैदिक साहित्य की बहुत सी उक्तियों में पितर शब्द व्यक्ति के समीपवर्ती, मृत पुरुष पूर्वजों के लिए प्रयुक्त हुआ है। अत: तीन पीढ़ियों तक वे (पूर्वजों को) नाम से विशिष्ट रूप से व्यंजित करते हैं, क्योंकि ऐसे बहुत से पितर हैं, जिन्हें आहुति दी जाती है।'[100] शतपथ ब्राह्मण[101] ने पिता, पितामह एवं प्रपितामह को पुरोडाश (रोटी) देते समय के सूक्तों का उल्लेख किया है और कहा है कि कर्ता इन शब्दों को कहता है–"हे पितर लोग, यहाँ आकर आनन्द लो, बैलों के समान अपने-अपने भाग पर स्वयं आओ'।[102] कुछ[103] ने यह सूक्त दिया है–"यह (भात का पिण्ड) तुम्हारे लिये और उनके लिये है जो तुम्हारे पीछे आते हैं।" किन्तु शतपथब्राह्मण ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि यह सूक्त नहीं करना चाहिए, प्रत्युत यह विधि अपनानी चाहिए–"यहाँ यह तुम्हारे लिये है।" शतपथब्राह्मण[104] में तीन पूर्व पुरुषों को स्वधाप्रेमी कहा गया है। इन वैदिक उक्तियों एवं मनु[105] तथा विष्णु पुराण[106] की इस व्यवस्था पर कि नाम एवं गोत्र बोलकर ही पितरों का आवाहन करना चाहिए, निर्भर रहते हुए श्राद्धप्रकाश[107] ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पिता एवं अन्य पूर्वजों को ही श्राद्ध का देवता कहा जाता है, न कि वसु, रुद्र एवं आदित्य को, क्योंकि इनके गोत्र नहीं होते और पिता आदि वसु, रुद्र एवं आदित्य के रूप में कवल ध्यान के लिए वर्णित हैं। श्राद्धप्रकाश[108] ब्रह्म पुराण ने इस कथन, जो यह व्यवस्था देता है कि कर्ता को ब्राह्मणों से यह कहना चाहिए की मैं कृत्यों के लिए पितरों को बुलाऊँगा और जब ब्राह्मण ऐसी अनुमति दे देते हैं, तो उसे वैसा करना चाहिए, (अर्थात् पितरों का आहावान करना चाहिए), यह निर्देश देता है कि यहाँ पर पितरों का तात्पर्य है देवों से, अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्यों से तथा मानवों से, यथा–कर्ता के पिता एवं अन्यों से। वायु पुराण[109], ब्रह्माण्ड पुराण एवं अनुशासन पर्व ने उपर्युक्त पितरों एवं लौकिक पितरों (पिता, पितामह एवं प्रपितामह) में अन्दर दर्शाया हैं।[110]

तपर्ण

आवाहन, पूजन, नमस्कार के उपरान्त तर्पण किया जाता है। जल में दूध, जौ, चावल, चन्दन डाल कर तर्पण कार्य में प्रयुक्त करते हैं। मिल सके, तो गंगा जल भी डाल देना चाहिए। तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। स्वगर्स्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तु से नहीं होती, क्योंकि स्थूल शरीर के लिए ही भौतिक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त होकर, केवल सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है। सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं रहती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-मांस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते। सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है, इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्तःकरण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है।

मूल एवं प्रकार

वैदिक साहित्य के उपरान्त की रचना में, विशेषत: पुराणों में पितरों के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, वायुपुराण[111] ने पितरों की तीन कोटियाँ बताई हैं; काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। पुन: वायु पुराण[112] ने तथा वराह पुराण[113], पद्म पुराण[114] एवं ब्रह्मण्ड पुराण[115] ने सात प्रकार के पितरों के मूल पर प्रकाश डाला है, जो कि स्वर्ग में रहते हैं, जिनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन अमूर्तिमान्। शतातपस्मृति[116] ने 12 पितरों के नाम दिये हैं; पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा:।

श्राद्ध की महत्ता

सूत्रकाल (लगभग ई. पू. 600) से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[117] ने अधोलिखित सूचना दी है- 'पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव लोग यज्ञों के कारण (पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये, किन्तु मनुष्य यहीं पर रह गये। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य को आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर लोग देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवानीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं।"

श्राद्ध की प्रशस्तियाँ

श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। बौधायन धर्मसूत्र[118] का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। हरिवंश पुराण[119] में आया है–श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु[120] का कथन है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।[121] वायुपुराण[122] का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है।[123] श्राद्धसार[124] एवं श्राद्धप्रकाश[125] द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। शान्तिपर्व[126] में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। कूर्म पुराण में आया है कि "अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।"

श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध

'श्राद्ध' शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द "श्रद्धा" से बना है। ब्रह्मपुराण (उपर्युक्त उद्धृत), मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। स्कन्द पुराण[127] का कथन है कि 'श्राद्ध' नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद[128] में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान ही सम्बोधित हैं।[129] कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के पृथक्-पृथक् रखे गये हैं।[130] तैत्तिरीय संहिता[131] में आया है–"बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की; देव मुझमें विश्वास (श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त करूँ।"[132] निरुक्त[133] में 'श्रत्' एवं 'श्रद्धा' का 'सत्य' के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. सं.[134] में कहा गया है कि प्रजापति ने 'श्रद्धा' को सत्य में और 'अश्रद्धा' को झूठ में रख दिया है, और वाज. सं.[135] में कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है। वैदिकोत्तरकालीन साहित्य में पाणिनी[136] ने 'श्राद्धिन्' एवं 'श्राद्धिक' को 'वह जिसने श्राद्ध भोजन कर लिया हो' के अर्थ में निश्चित किया गया है। 'श्राद्ध' शब्द 'श्रद्धा' से निकाला जा सकता है।[137] योगसूत्र[138] के भाष्य में 'श्रद्धा' शब्द कई प्रकार से परिभाषित है-'श्रद्धा चेत्तस: संप्रसाद:। सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति', अर्थात् श्रद्धा को मन का प्रसाद या अक्षोभ (स्थैर्य) कहा गया है। देवल ने श्रद्धा की परिभाषा यों की है-'प्रत्ययो धर्मकार्येषु तथा श्रद्धेत्युदाह्रता। नास्ति ह्यश्रद्धधानस्य धर्मकृत्ये प्रयोजनम्।।'[139] अर्थात् धार्मिक कृत्यों में जो प्रत्यय (या विश्वास) होता है, वही श्रद्धा है, जिसे प्रत्यय नहीं है, उसे धार्मिक कर्म करने का प्रयोजन नहीं है। कात्यायन के श्राद्धसूत्र[140] में व्यवस्था है- 'श्रद्धायुक्त व्यक्ति शाक से भी श्राद्ध करे (भले ही उसके पास अन्य भोज्य पदार्थ न हों)।' मनु[141] जहाँ पर पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध पर बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण[142] में श्राद्ध का सम्बन्ध श्रद्धा से घोषित किया गया है और कहा गया है कि श्राद्ध में जो कुछ भी दिया जाता है, वह पितरों के द्वारा प्रयुक्त होने वाले उस भोजन में परिवर्तित हो जाता है, जिसे वे कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार नये शरीर के रूप में पाते हैं। इस पुराण में यह भी आया है कि अनुचित एवं अन्यायपूर्ण ढंग से प्राप्त धन से जो श्राद्ध किया जाता है, वह चाण्डाल, पुक्कस तथा अन्य नीच योनियों में उत्पन्न लोगों की सन्तुष्टि का साधन होता है।[143]

यज्ञ

हिन्दू धर्म-ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक गृहस्थ हिन्दू को पाँच यज्ञों को अवश्य करना चाहिए-

  1. ब्रह्म-यज्ञ - प्रतिदिन अध्ययन और अध्यापन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है।
  2. देव-यज्ञ - देवताओं की प्रसन्नता हेतु पूजन-हवन आदि करना।
  3. पितृ-यज्ञ - 'श्राद्ध' और 'तर्पण' करना ही पितृ-यज्ञ है।
  4. भूत-यज्ञ - 'बलि' और 'वैश्व देव' की प्रसन्नता हेतु जो पूजा की जाती है, उसे 'भूत-यज्ञ' कहते हैं तथा,
  5. मनुष्य-यज्ञ - इसके अन्तर्गत 'अतिथि-सत्कार' आता है।

उक्त पाँचों यज्ञों को नित्य करने का निर्देश है।

आहुति के मत मतान्तर

आहुतियों के विषय में भी मत मतान्तर हैं। काठक गृह्यसूत्र[144], जैमिनिय गृह्यसूत्र[145] एवं शांखायन गृह्यसूत्र[146] ने कहा है कि तीन विभिन्न अष्टकाओं में सिद्ध (पके हुए) शाक, मांस एवं अपूप (पूआ या रोटी) की आहुतियाँ दी जाती हैं। किन्तु पार. गृह्यसूत्र[147] एवं खादिरगृह्यसूत्र[148] ने प्रथम अष्टका के लिए अपूपों (पूओं) की[149] एवं अन्तिम के लिए सिद्ध शाकों की व्यवस्था दी है। खादिरगृह्यसूत्र[150] से गाय की बलि होती हैं आश्वलायन गृह्यसूत्र[151], गोभिलगृह्यसूत्र[152], कौशिक[153] एवं बौधायन गृह्यसूत्र[154] के मत से इसके कई विकल्प भी हैं–गाय या भेंड़ या बकरे की बलि देना; सुलभ जंगली मांस या मुध-तिल युक्त मांस या गेंडा, हिरन, भैंसा, सूअर, शशक, चित्ती वाले हिरन, रोहित हिरन, कबूतर या तीतर, सारंग एवं अन्य पक्षियों का मांस या किसी बूढ़े लाल बकरे का मांस; मछलियाँ; दूघ में पका हुआ चावल (लपसी के समान), या बिना पके हुए अन्न या फल या मूल, या सोना भी दिया जा सकता है, अथवा गायों या साँड़ों के लिए केवल घास खिलायी जा सकती है। या वेदज्ञ को पानी रखने के लिए घड़े दिये जा सकते हैं, या 'यह मैं अष्टका का सम्पादन करता हूँ' ऐसा कहकर श्राद्धसम्बन्धी मंत्रों का उच्चारण किया जा सकता है।

मृत पूर्वजों के कृत्य

अति प्राचीन काल में मृत पूर्वजों के लिए केवल तीन कृत्य किये जाते थे:-

  1. पिण्डपितृयज्ञ (उनके द्वारा किया गया जो श्रौताग्नियों में यज्ञ करते थे) या मासिक श्राद्ध (उनके द्वारा जो श्रौताग्नियों में यज्ञ नहीं करते थे)[155],
  2. महापितृयज्ञ एवं
  3. अष्टकाश्राद्ध।

प्रथम दो का वर्णन इस ग्रन्थ के खण्ड 2, अध्याया 30 एवं 31 में हो चुका है। अष्टका श्राद्धों के विषय में अभी तक कुछ नहीं बताया गया है। इनका विशिष्ट महत्त्व है, किन्तु इनके सम्पादन के दिनों एवं मासों, अधिष्ठाता देवों, आहुतियों एवं विधि के विषय में लेखकों में मतैक्य नहीं है।

गौतम.[156] ने अष्टका को सात पाकयज्ञों एवं चालीस संस्कारों में परिगणित किया है। लगता है, 'अष्टका' पूर्णिमा के पश्चात् किसी मास की अष्टमी तिथि का द्योतक है।[157] शतपथ ब्राह्मण[158] में आया है–'पूर्णिमा के पश्चात् आठवें दिन वह (अग्निचयनकर्ता) अग्नि-स्थान (चुल्लि या चुल्ली, चूल्ही या चूल्हे) के लिए सामग्री एकत्र करता है, क्योंकि प्रजापति के लिए (पूर्णिमा के पश्चात्) अष्टमी पवित्र है और प्रजापति के लिए यह कृत्य पवित्र है।' जैमिनिय[159] के भाष्य में शबर ने अथर्ववेद[160] एवं आपस्तम्ब मंत्र पाठ [161] में आये हुए मंत्र को अष्टका का द्योतक माना है। मंत्र यह है–'वह (अष्टका) रात्रि हमारे लिए मंगलकारी हो, जिसका लोग किसी की ओर आती हुई गौ के समान स्वागत करते हैं, और जो वर्ष की पत्नी है।'[162] अथर्ववेद[163] में संवत्सर को एकाष्टका का पति कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता[164] में आया है कि 'जो लोग संवत्सर सत्र के लिए दीक्षा लेने वाले हैं उन्हें एकाष्टका के दिन दीक्षा लेनी चाहिए, जो एकाष्टका कहलाती है। वह वर्ष की पत्नी है।' जैमिनिय[165] ने एकाष्टका को माघ की पूर्णिमा के पश्चात् की अष्टमी कहा है। आपस्तम्ब गृह्यसूत्र[166] ने भी यही कहा है। किन्तु इतना जोड़ दिया है कि उस तिथि (अष्टमी) में चन्द्र ज्येष्ठा नक्षत्र में होता है।[167] इसकी अर्थ यह हुआ कि यदि अष्टमी दो दिनों की हो गयी तो वह दिन जब चन्द्र ज्येष्ठा में है, एकाष्टका कहलायेगा। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र[168] ने भी एकाष्टका को वर्ष की पत्नी कहा है।'[169]

अष्टका कृत्य

आश्वलायन गृह्यसूत्र[170] के मत से अष्टका के दिन (अर्थात् कृत्य) चार थे, हेमन्त एवं शिशिर (अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष, माघ एवं फाल्गुन) की दो ऋतुओं के चार मासों के कृष्ण पक्षों की आठवीं तिथियाँ। अधिकांश में सभी गृह्यसूत्र, यथा–मानवगृह्यसुत्र[171], शांखायन गृह्यसूत्र[172], खादिरगृह्यसूत्र[173], काठकगृह्यसूत्र[174], कौषितकि गृह्यसूत्र[175] एवं पार. गृह्यसूत्र[176] कहते हैं कि केवल तीन ही अष्टका कृत्य होते हैं; मार्गशीर्ष (आग्रहायण) की पूर्णिमा के पश्चात् आठवीं तिथि (इसे आग्रहायणी कहा जाता था); अर्थात् मार्गशीर्ष, पौष (तैष) एवं माघ के कृष्ण पक्षों में। गोभिलगृह्यसूत्र[177] ने लिखा है कि कौत्स के मत से अष्टकाएँ चार हैं और सभी में मास दिया जाता है, किन्तु गौतम, औदगाहमानि एवं वार्कखण्डि ने केवल तीन की व्यवस्था दी है। बौधायन गृह्यसूत्र[178] के मत से तैष, माघ एवं फाल्गुन में तीन अष्टकाहोम किये जाते हैं।

अन्वष्टका कृत्य

यद्यपि आपस्तम्बगृह्यसूत्र[179] एवं शांखायन गृह्यसूत्र[180] का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य में पिण्डपितृयज्ञ की विधि मानी जाती है, किन्तु कुछ गृह्यसूत्र[181] इस कृत्य का विशद वर्णन करते हैं। आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं विष्णु धर्मसूत्र[182] ने मध्यम मार्ग अपनाया है। आश्वलायन गृह्यसूत्र का वर्णन अपेक्षाकृत संक्षिप्त है। यह ज्ञातव्य है कि कुछ गृह्यसूत्रों का कथन है कि अन्वष्टका कृत्य कृष्ण पक्ष की नवमी या दशमी को किया जाता है।[183] इसे पारस्कर गृह्यसूत्र[184], मनु[185] एवं विष्णु धर्मसूत्र[186]0 ने अन्वष्टका की संज्ञा दी है। अत्यन्त विशिष्ट बात यह है कि इस कृत्य में स्त्री पितरों का आहावान किया जाता है और इसमें जो आहुतियाँ दी जाती हैं, उनमें सुरा, माँड़, अंजन, लेप एवं मालाएँ भी सम्मिलित रहती हैं। यद्यपि आश्वलायन गृह्यसूत्र[187] आदि ने घोषित किया है कि अष्टका एवं अन्वष्टक्य मासिक श्राद्ध या पिण्डपितृयज्ञ पर आधारित हैं तथापि बौधायन गृह्यसूत्र[188], गोभिलगृह्यसूत्र[189] एवं खादिर गृह्यसूत्र[190] ने कहा है कि अष्टका या अन्वष्टक्य के आधार पर ही पिण्डपितृयज्ञ एवं अन्य श्राद्ध किये जाते हैं। काठक गृह्यसूत्र[191] का कथन है कि प्रथम श्राद्ध, सपिण्डिकरण जैसे अन्य श्राद्ध, पशुश्राद्ध (जिसमें पशु का मांस अर्पित किया जाता है) एवं मासिक श्राद्ध अष्टका की विधि का ही अनुसरण करते हैं।

माध्यावर्ष कृत्य

आश्वलायन गृह्यसूत्र[192] में माध्यावर्ष नामक कृत्य के विषय में दो मत प्रकाशित किये गये हैं। नारायण के मत से यह कृत्य भाद्रपद कृष्ण पक्ष की तीन तिथियों में, अर्थात् सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी को किया जाता है। दूसरा मत यह है कि यह कृत्य अष्टकाओं के समान ही है जो भाद्रपद की त्रयोदशी को सम्पादित होता है। जबकि सामान्यत: चन्द्र मघा नक्षत्र में होता है। इस कृत्य के नाम में संदेह है, क्योंकि पाण्डुलिपियों में बहुत से रूप प्रस्तुत किये गये हैं।

अन्वाहार्य श्राद्ध

  • गोभिलगृह्यसूत्र[193] में अन्वाहार्य नामक एक अन्य श्राद्ध का उल्लेख हुआ है जो कि पिण्डपितृयज्ञ उपरान्त उसी दिन सम्पादित होता है।
  • शांखायन गृह्यसूत्र[194] ने पिण्डपितृयज्ञ से पृथक् मासिक श्राद्ध की चर्चा की है।
  • मनु[195] का कथन है–'पितृयज्ञ (अर्थात् पिण्डपितृयज्ञ) के सम्पादन के उपरान्त वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्री अर्थात् आहिताग्नि है, प्रति मास उसे अमावास्या के दिन पिण्डान्वाहार्यक श्राद्ध करना चाहिए।

विशद वर्णन

श्राद्ध सम्बन्धि साहित्य विशाल है। वैदिक संहिताओं से लेकर आधुनिक टीकाओं एवं निबन्धों तक में श्राद्ध के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में श्राद्ध के विषय में सहस्रों श्लोक हैं। वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मण ग्रन्थों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों से लेकर आरम्भिक स्मृतिग्रन्थों यथा मनु एवं याज्ञवल्क्य की स्मृतियों तक, तदनन्तर प्रतिनिधि पुराण एवं मेधातिथि, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क की टीकाओं द्वारा उपस्थित विवेचनों से लेकर मध्यकालिक निबन्धों तक का वर्णन है। पौराणिक काल में कतिपय शाखाओं की ओर संकेत मिलते हैं।[196] स्मृतियों एवं महाभारत[197] के वचनों तथा सूत्रों, मनु, याज्ञवल्क्य एवं अन्य स्मृतियों की टीकाओं के अतिरिक्त श्राद्ध सम्बन्धी निबन्धों की संख्या अपार है। इस विषय में केवल निम्नलिखित निबन्धों की (काल के अनुसार व्यवस्थित) चर्चा होगी–श्राद्धकल्पतरु, अनिरुद्ध की हारलता एवं पितृदयिता, स्मृत्यर्थसार, स्मृतिचन्द्रिका, चतुर्वर्गचिन्तामणि (श्राद्ध प्रकरण), हेमाद्रि[198], रुद्रधर का श्राद्धविवेक, मदनपारिजात, श्राद्धसार (नृसिंहप्रसाद का एक भाग), गोविन्दानन्द की श्राद्धक्रियाकौमुदी, रघुनन्दन का श्राद्धतत्व, श्राद्धसौख्य[199], विनायक उर्फ नन्द पण्डित की श्राद्धकल्पलता, निर्णयसिन्धु, नीलकण्ठ का श्राद्धमयूख, श्राद्धप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक भाग), दिवाकर भट्ट की श्राद्धचन्द्रिका, स्मृतिमुक्ताफल (श्राद्ध पर), धर्मसिन्धु एवं मिताक्षरा की टीका–बालभट्टी। श्राद्धसम्बन्धी विशद वर्णन उपस्थित करते समय, कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार सामान्य विचार भी उपस्थित किये जायेंगे।

श्राद्ध करने की योग्यता

उपनयन
Upanayana

यह ज्ञातव्य है कि कुछ धर्मशास्त्र ग्रन्थों (यथा–विष्णुधर्मोत्तर) ने व्यवस्था दी है कि जो कोई मृतक की सम्पत्ति ले लेता है, उसे उसके लिए श्राद्ध करना चाहिए, और कुछ ने ऐसा कहा है कि जो भी कोई श्राद्ध करने की योग्यता रखता है अथवा श्राद्ध का अधिकारी है, वह मृतक की सम्पत्ति ग्रहण कर सकता है। शान्तिपर्व[200] में वर्णन आया है कि इन्द्र ने सम्राट मान्धाता से कहा कि किस प्रकार यवन, किरात आदि आनार्यों (जिन्हें महाभारत में दस्यु कहा गया है) को आचरण करना चाहिए और यह भी कहा गया है कि सभी दस्यु पितृयज्ञ (जिससे उन्हें अपनी जाति वालों को धन देना चाहिए) कर सकते हैं और ब्राह्मणों को धन भी दे सकते हैं।[201] वायु पुराण[202] ने भी म्लेच्छों को पितरों के लिए श्राद्ध करते हुए वर्णित किया है। गोभिलस्मृति[203] ने एक सामान्य नियम दिया है कि पुत्रहीन पत्नी को (मरने पर) पति द्वारा पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिए, पिता द्वारा पुत्र को तथा बड़े भाई के द्वारा छोटे भाई को भी पिण्ड नहीं दिया जाना चाहिएं निमि ने अपने मृत पुत्र का श्राद्ध किया था, किन्तु उन्होंने आगे चलकर पश्चाताप किया, क्योंकि वह कार्य धर्मसंकट था। यह बात भी गोभिलस्मृति के समान ही है।[204] अपरार्क[205] ने षटत्रिशन्मत का एक श्लोक उद्धृत कर कहा है कि पिता को पुत्र का एवं बड़े भाई को छोटे भाई का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। किन्तु बृहत्पराशर[206] ने कहा है कि कभी-कभी यह सामान्य नियम भी नहीं माना जा सकता। बौधायन एवं वृद्धशातातप[207] ने किसी को स्नेहवश किसी के लिए भी श्राद्ध करने की, विशेषत: गया, में अनुमति दी है। ऐसा कहा गया है कि केवल वही पुत्र कहलाने योग्य है, जो पिता की जीवितावस्था में उसके वचनों का पालन करता है, प्रति वर्ष (पिता की मृत्यु के उपरान्त) पर्याप्त भोजन, (ब्राह्मणों) को देता है और जो गया में (पूर्वजों) को पिण्ड देता है।[208] एक सामान्य नियम यह था कि उपनयनविहीन बच्चा शूद्र के समान है और वह वैदिक मंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकता।[209] किन्तु इसका एक अपवाद स्वीकृत था, उपनयनविहीन पुत्र अन्त्येष्टि कर्म से सम्बन्धित वैदिक मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। मेधातिथि[210] ने व्याख्या की है कि अल्पवयस्क पुत्र भी, यद्यपि अभी वह उपनयनविहीन होने के कारण वेदाध्ययनरहित है, अपने पिता को जल तर्पण कर सकता है, नवश्राद्ध कर सकता है और 'शुन्धन्तां पितर:' जैसे मंत्रों का उच्चारण कर सकता है, किन्तु श्रौताग्नियों या गृह्यग्नियों के अभाव में वह पार्वण जैसे श्राद्ध नहीं कर सकता। स्मृत्यर्थसार[211] ने लिखा है कि अनुपनीत (जिनका अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ है) बच्चों, स्त्रियों तथा शूद्रों को पुरोहित द्वारा श्राद्धकर्म कराना चाहिए या वे स्वयं भी बिना मंत्रों के श्राद्ध कर सकते हैं किन्तु वे केवल मृत के नाम एवं गोत्र या दो मंत्रों, यथा–'देवेभ्यो नम:' एवं 'पितृभ्य: स्वधा नम:' का उच्चारण कर सकते हैं। उपर्युक्त विवेचन स्पष्ट करता है कि पुरुषों, स्त्रियों एवं उपनीत तथा अनुपनीत बच्चों को श्राद्ध करना पड़ता है।

प्रपौत्र को श्राद्ध करने का अधिकार

तैत्तिरीय संहिता[212] एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण[213] से प्रकट होता है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह तीन स्व-सम्बन्धी पूर्वपुरुषों का श्राद्ध किया जाता है। बौधायन धर्मसूत्र[214] का कथन है कि सात प्रकार के व्यक्ति एक-दूसरे से अति सम्बन्धित हैं, और वे अविभक्तदाय सपिण्ड कहे जाते हैं–प्रपितामह, पिता, स्वयं व्यक्ति (जो अपने से पूर्व से तीन को पिण्ड देता है), उसके सहोदर भाई, उसका पुत्र (उसी की जाति वाली पत्नी से उत्पन्न) पौत्र एवं प्रपौत्र। सकुल्य वे हैं जो विभक्तदायाद हैं, मृत की सम्पत्ति उसे मिलती है जो मृत के शरीर से उत्पन्न हुआ है।[215] मनु[216] ने लिखा है–पुत्र के जन्म से व्यक्ति लोकों (स्वर्ग) आदि की प्राप्ति करता है, पौत्र से अमरता प्राप्त करता है और प्रपौत्र से वह सूर्यलोक पहुँच जाता है। इससे प्रकट होता है कि व्यक्ति के तीन वंशज समान रूप से व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाते हैं।

आह्विक यज्ञ

शतपथ ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय आरण्यक[217] ने आगे कहा है कि वह आह्विक यज्ञ जिसमें पितरों को स्वधा (भोजन) एवं जल दिया जाता है, पितृयज्ञ कहलाता है। मनु[218] ने पितृयज्ञ को तर्पण (जल से पूर्वजों की संतुष्टि) करना कहा है। मनु[219] ने व्यवस्था दी है कि प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन भोजन या जल या दूध, मूल एवं फल के साथ श्राद्ध करना चाहिए और पितरों को संतोष देना चाहिए। प्रारम्भिक रूप में श्राद्ध पितरों के लिए अमावस्या के दिन किया जाता था।[220] अमावस्या दो प्रकार की होती है; विनोवाली एवं कुहू। आहिताग्नि (अग्निहोत्री) सिनीवाली में श्राद्ध करते हैं, तथा इनसे भिन्न एवं शूद्र लोग कुहू अमावस्या में श्राद्ध करते हैं।

श्राद्धपक्ष में गया श्राद्ध

गया में आश्विन-कृष्णपक्ष में बहुत अधिक लोग श्राद्ध करने जाते हैं। पूरे श्राद्ध पक्ष वे यहां रहते हैं। श्राद्धपक्ष के लिए पिंडदान आदि का क्रम इस प्रकार है-[221]

हिन्दू तिथियाँ पिंडदान विवरण
भाद्रप्रद शुक्ल चतुर्दशी पुनपुन तट पर श्राद्ध।
भाद्रपद पूर्णिमा फल्गु नदी में स्नान और नदी पर खीर के पिंड से श्राद्ध।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा ब्रह्मकुंड, प्रेतशिला, राम कुंड एवं रामशिला पर श्राद्ध और काकबलि।
आश्विन कृष्ण द्वितीया उत्तरमानस, उदीची, कनखल, दक्षिणमानस और जिह्वालोल तीर्थों पर पिंडदान।
आश्विन कृष्ण तृतीया सरस्वती स्नान, मतंगवापी, धर्मारण्य और बोधगया में श्राद्ध।
आश्विन कृष्ण चतुर्थी ब्रह्मसरोवर पर श्राद्ध, आम्रसेचन और काकबलि।
आश्विन कृष्ण पंचमी विष्णुपद मंदिर में रुद्रपद, ब्रह्मपद और विष्णुपद पर खीर के पिंड से श्राद्ध।
आश्विन कृष्ण षष्ठी से अष्टमी तक विष्णुपद के सोलह वेदी नामक मंडप में 14 स्थानों पर और पास के मंडप में दो स्थानों पर पिंडदान होता है।
आश्विन कृष्ण नवमी रामगया में श्राद्ध और सीता कुंड पर माता, पितामही को बालू के पिंड दिए जाते हैं।
आश्विन कृष्ण दशमी गय सिर और गय कूप के पास पिंड दान किया जाता है।
आश्विन कृष्ण एकादशी मुंडपृष्ठ, आदिगया और धौतपाद में खोवे या तिल-गुड़ से पिंडदान।
आश्विन कृष्ण द्वादशी भीमगया, गोप्रचार और गदालोल में पिंडदान।
आश्विन कृष्ण त्रियोदशी फल्गु में स्नान करके दूध का तर्पण, गायत्री, सावित्री तथा सरस्वती तीर्थ पर क्रमशः प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल स्नान और संध्या।
आश्विन कृष्ण चतुर्दशी वैतरणी स्नान और तर्पण।
आश्विन अमावस्या अक्षय वट के नीचे श्राद्ध और ब्राह्मण-भोजन।
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा गायत्री घाट पर दही-अक्षत का पिंड देकर गया श्राद्ध समाप्त किया जाता है।

तीन कोटियाँ

श्राद्ध (या सभी कृत्य) तीन कोटियों में विभाजित किये गये हैं; नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य।

  • वह श्राद्ध नित्य कहलाता है, जिसके लिए ऐसी व्यवस्था दी हुई हो कि वह किसी निश्चित अवसर पर किया जाए (यथा–आह्विक, अमावास्या के दिन वाला या अष्टका के दिन वाला)।
  • जो ऐसे अवसर पर किया जाए जो कि अनिश्चित सा हो, यथा–पुत्रोत्पत्ति आदि पर, उसे नैमित्तिक कहा जाता है।
  • जो किसी विशिष्ट फल के लिए किया जाए उसे काम्य कहते हैं; यथा–स्वर्ग, संतति आदि की प्राप्ति के लिए। कृत्तिका या रोहिणी पर किया गया श्राद्ध।

पंचमहायज्ञ कृत्य, जिनमें पितृयज्ञ भी सम्मिलित है, नित्य कहे जाते हैं, अर्थात् उन्हें बिना किसी फल की आशा के करना चाहिए, उनके न करने से पाप लगता है। नित्य कर्मों को करने से प्राप्त फल की जो चर्चा धर्मशास्त्रों में मिलती है, वह केवल प्रशंसा मात्र ही है। उससे केवल यही व्यक्त होता है कि कर्मों के सम्पादन से व्यक्ति पवित्र हो जाता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि वे अपरिहार्य नहीं है और उनका सम्पादन तभी होता है, जब व्यक्ति किसी विशिष्ट फल की आशा रखता है (अर्थात् इन कर्मों का सम्पादन काम्य अथवा इच्छाजनित नहीं है)। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[222] ने श्राद्ध के लिए निश्चित कालों की व्यवस्था दी है, यथा–इसका सम्पादन प्रत्येक मास के अन्तिम पक्ष में होना चाहिए, दोपहर को श्रेष्ठता मिलनी चाहिए और पक्ष के आरम्भिक दिनों की अपेक्षा अन्तिम दिनों को अधिक महत्त्व देना चाहिए। गौतम[223] एवं वसिष्ठ[224] का कथन है कि श्राद्ध प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में चतुर्थी को छोड़कर किसी भी दिन किया जा सकता है और गौतम[225] ने पुन: कहा है कि यदि विशिष्ट रूप में उचित सामग्रियों या पवित्र ब्राह्मण उपलब्ध हो या कर्ता किसी पवित्र स्थान (यथा–गया) में हो तो श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है। यही बात कूर्म पुराण[226] ने भी कही है। अग्नि पुराण[227] का कथन है कि गया में किसी भी दिन श्राद्ध किया जा सकता है (न कालादि गया तीर्थे दद्यात् पिण्डाश्च नित्यश:)।

श्राद्धों की फलसूचियाँ

संक्रान्ति पर किया गया श्राद्ध अनन्त काल तक के लिए स्थायी होता है, इसी प्रकार जन्म के दिन एवं कतिपय नक्षत्रों में श्राद्ध करना चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[228], अनुशासन पर्व[229], वायु पुराण[230], याज्ञवल्क्य[231], ब्रह्म पुराण[232], विष्णु धर्मसूत्र[233], कूर्म पुराण[234], ब्रह्मण्ड पुराण[235] ने कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक किये गये श्राद्धों के फलों का उल्लेख किया है।

वर्णित दिनों में होने वाले श्राद्ध

विष्णुधर्मसूत्र[236] द्वारा वर्णित दिनों में किये जाने वाले श्राद्ध नैमित्तिक हैं और जो विशिष्ट तिथियों एवं सप्ताह के दिनों में कुछ निश्चित इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, वे काम्य श्राद्ध कहे जाते हैं। परा. मा.[237] के मत से नित्य कर्मों का सम्पादन संस्कारक (जो कि मन को पवित्र बना दे और उसे शुभ कर्मों की ओर प्रेरित करे) कहा जाता है, किन्तु कुछ परिस्थितियों में यह अप्रत्यक्ष अन्तर्हित रहस्य (परम तत्त्व) की जानकारी की अभिकांक्षा भी उत्पन्न करता है।[238] जैमिनिय[239] ने सिद्ध किया है कि नित्य कर्म (यथा, अग्निहोत्र, दर्श पूर्णमास याग) अवश्य करने चाहिए, भले ही कर्ता उनके कुछ उपकृत्यों को करने में असमर्थ हो; उन्होंने[240] पुन: व्यवस्था दी है कि काम्य कृत्यों के सभी भाग सम्पादित होने चाहिए और यदि कर्ता सोचता है कि वह सबका सम्पादन करने में असमर्थ है तो उसे काम्य कृत्य करने ही नहीं चाहिए।

सप्ताह का श्राद्ध

विष्णुधर्मसूत्र[241] का कथन है कि रविवार को श्राद्ध करने वाला रोगों से सदा के लिए छुटकारा पा जाता है और वे जो सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र एवं शनि को श्राद्ध करते हैं, क्रम से सौख्य (या प्रशंसा), युद्ध में विजय, सभी इच्छाओं की पूर्ति, अभीष्ट ज्ञान, धन एवं लम्बी आयु प्राप्त करते हैं। कूर्म पुराण[242] ने भी सप्ताह के कतिपय दिनों में सम्पादित श्रोद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है। विष्णुधर्मसूत्र[243] ने कृत्तिका से भरणी (अभिजित को भी सम्मिलित करते हुए) तक के 28 नक्षत्रों में सम्पादित श्राद्धों से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।[244]

युगादि एवं मन्वादि

अग्नि पुराण[245] में आया है कि वे श्राद्ध जो किसी तीर्थ या युगादि एवं मन्वादि दिनों में किये जाते हैं (पितरों को) अक्षय संतुष्टि देते हैं। विष्णुपुराण[246], मत्स्य पुराण[247], पद्म पुराण[248], वराह पुराण[249], प्रजापतिस्मृति[250] एवं स्कन्द पुराण[251] का कथन है कि वैशाख शुक्ल तृतीया, कार्तिक शुक्ल नवमी, भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी एवं माघ की अमावास्या युगादि तिथियाँ (अर्थात् चारों युगों के प्रथम दिन) कही जाती है। मत्स्य पुराण[252], अग्नि पुराण[253], सौरपुराण[254], पद्म पुराण[255] ने 14 मनुओं (या मन्वन्तरों) की प्रथम तिथियाँ इस प्रकार दी हैं–आश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक शुक्ल द्वादशी, चैत्र एवं भाद्रपद शुक्ल तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष शुक्ल एकादशी, आषाढ़ शुक्ल दशमी एवं माघ शुक्ल सप्तमी, श्रावण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र एवं ज्येष्ठ की पूर्णिमा। मत्स्यपुराण की सूची स्मृतिच.[256], कृत्यरत्नाकर[257], परा. मा.[258] एवं मदनपारिजात[259] में उद्धृत हैं। स्कन्द पुराण[260] एवं स्मृत्यर्थसार[261] में क्रम कुछ भिन्न है। स्कन्दपुराण (नागर खण्ड) में श्वेत से लेकर तीन कल्पों की प्रथम तिथियाँ श्राद्ध के लिए उपयुक्त ठहरायी गयी हैं।

ग्रहण के समय छूट

आपस्तम्ब धर्मसूत्र[262], मनु[263], विष्णुधर्मसूत्र[264], कूर्म पुराण[265], ब्रह्माण्ड पुराण[266], भविष्य पुराण[267] ने रात्रि, सन्ध्या (गोधूलि काल) या जब सूर्य का तुरत उदय हुआ हो तब–ऐसे कालों में श्राद्ध सम्पादन मना किया है। किन्तु चन्द्रग्रहण के समय छूट दी है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र ने इतना जोड़ दिया है कि यदि श्राद्ध सम्पादन अपरान्ह्न में आरम्भ हुआ हो और किसी कारण से देर हो जाए तथा सूर्य डूब जाए तो कर्ता को श्राद्ध सम्पादन के शेष कृत्य दूसरे दिन ही करने चाहिए और उसे दर्भों पर पिण्ड रखने तक उपवास करना चाहिए।

अपरान्ह्न का अर्थ

श्राद्धकाल के लिए मनु[268] द्वारा व्यवस्थित अपरान्ह्न के अर्थ के विषय में अपरार्क[269], हेमाद्रि[270] एवं अन्य लेखकों तथा निबन्धों में विद्वत्तापूर्ण विवेचन उपस्थित किया गया है। कई मत प्रकाशित किये गये हैं। कुछ लोगों के मत से मध्यान्ह्न के उपरान्त दिन का शेषान्त अपरान्ह्न है। पूर्वाह्न शब्द ऋग्वेद[271] में आया है। इस कथन के आधार पर कहा है कि दिन को तीन भागों में बांट देने पर अन्तिम भाग अपरान्ह्न कहा जाता है। तीसरा मत यह है कि पाँच भागों में विभक्त दिन का चौथा भाग अपरान्ह्न है। इस मत को मानने वाले शतपथ ब्राह्मण[272] पर निर्भर हैं। दिन के पाँच भाग ये हैं–प्रात:, संगव, मध्यन्दिन (मध्यान्ह्न), अपरान्ह्न एवं सायाह्न (सांय या अस्तगमन)। इनमें प्रथम तीन स्पष्ट रूप से ऋग्वेद[273] में उल्लिखित हैं। प्रजापतिस्मृति[274] में आया है कि इनमें प्रत्येक भाग तीन मुहूर्तों तक रहता है।[275] इसने आगे कहा है कि कुतप सूर्योदय के उपरान्त आठवाँ मुहूर्त है और श्राद्ध को कुतप में आरम्भ करना चाहिए तथा उसे रौहिण मुहूर्त के आगे नहीं ले जाना चाहिए। श्राद्ध के लिए पाँच मुहूर्त (आठवें से बारहवें तक) अधिकतम योग्य काल हैं।

कुतप

कुतप शब्द के आठ अर्थ हैं, जैसा कि स्मृतिच.[276] एवं हेमाद्रि[277] ने कहा है। यह शब्द 'कु' (निन्दित अर्थात् पाप) एवं 'तप' (जलाना) से बना है। 'कुतप' के आठ अर्थ ये हैं–मध्याह्न, खड्गपात्र (गेंडे के सींग का बना पात्र), नेपाल का कम्बल, रूपा (चाँदी), दर्भ, तिल, गाय एवं दौहित्र (कन्या का पुत्र)। सामान्य नियम यह है कि श्राद्ध अपरान्ह्न में किया जाता है (किन्तु यह नियम अमावास्या, महालय, अष्टका एवं अन्वष्टका के श्राद्धों के लिए प्रयुक्त होता है), किन्तु वृद्धिश्राद्ध और आमश्राद्ध (जिनमें केवल अन्न का ही अर्पण होता है) प्रात: काल में किये जाते हैं। इस विषय में मेधा तिथि[278] ने एक स्मृतिवचन उद्धृत किया है।[279] त्रिकाण्डमण्डन[280] में आया है कि यदि मुख्य काल में श्राद्ध करना सम्भव: न हो तो उसके पश्चात् वाले गौण काल में उसे करना चाहिए, किन्तु कृत्य के मुख्य काल एवं सामग्री संग्रहण के काम में प्रथम को ही वरीयता देनी चाहिए और सभी मुख्य द्रव्यों को एकत्र करने के लिए गौण काल के अतिरिक्त अन्य कार्यों में उसकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

श्राद्ध करने का स्थान

मनु[281] ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को प्रयास करके दक्षिण की ओर ढालू भूमि खोजनी चाहिए, जो कि पवित्र हो और जहाँ पर मनुष्य अधिकतर न जाते हों। उस भूमि को गोबर से लीप देना चाहिए, क्योंकि पितर लोग वास्तविक स्वच्छ स्थलों, नदी-तटों एवं उस स्थान पर किये गए श्राद्ध से प्रसन्न होते हैं, जहाँ पर लोग बहुधा कम ही जाते हैं। याज्ञवल्क्य[282] ने संक्षिप्त रूप से कहा है कि श्राद्ध स्थल चतुर्दिक से आवृत, पवित्र एवं दक्षिण की ओर ढालू होना चाहिए। शंख[283] का कथन है–'बैलों, हाथियों एवं घोड़ों की पाठ पर, ऊँची भूमि या दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए।' कूर्म पुराण[284] में आया है–वन, पुण्य पर्वत, तीर्थस्थान, मन्दिर–इनके निश्चित स्वामी नहीं होते और ये किसी की वैयक्तिक सम्पत्ति नहीं हैं।

श्राद्ध वर्जना

विष्णुधर्मसूत्र[285] ने व्यवस्था दी है कि म्लेच्छदेश में न तो श्राद्ध करना चाहिए और न ही जाना चाहिए; उसमें पुन: कहा गया है कि म्लेच्छदेश वह है जिसमें चार वर्णों की परम्परा नहीं पायी जाती है। वायु पुराण ने व्यवस्था दी है कि त्रिशंकु देश, जिसका बारह योजन विस्तार है, जो कि महानदी के उत्तर और कीकट (मगध) के दक्षिण में है, श्राद्ध के लिए योग्य नहीं हैं। इसी प्रकार कारस्कर, कलिंग, सिंधु के उत्तर का देश और वे सभी देश जहाँ वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं पायी जाती है, श्राद्ध के लिए यथासाध्य त्याग देने चाहिए। ब्रह्मपुराण[286] ने कुछ सीमा तक एक विचित्र बात कही है कि निम्नलिखित देशों में श्राद्ध कर्म का यथासम्भव परिहार करना चाहिए–किरात देश, कलिंग, कोंकण, क्रिमि (क्रिवि?), दशार्ण, कुमार्य (कुमारी अन्तरीप), तंगण, क्रथ, सिंधु नदी के उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट एवं करतोया का पूर्वी भाग।

विसजर्न

विसर्जन में तीन प्रकार के विसर्जन किये जाते हैं, जिनके नाम इस प्रकार है:-

  • पिण्ड विसर्जन,
  • पितृ विसर्जन,
  • देव विसर्जन।

उदककर्म

  • मृतक के लिए जल दान की क्रिया को उदककर्म कहते हैं।
  • यह कई प्रकार से सम्पन्न होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रभ्यों दत्तं श्राद्धमुदाह्रतम्।। ब्रह्मपुराण (श्राद्धप्रकाश, पृ. 3 एवं 6; श्राद्धकल्पलता, पृ. 3; परा. मा. 1|2, पृ. 299)। मिता. (याज्ञ. 1|217) में आया है–'श्राद्धं नाम्तदनीयस्य तत्स्यानीयसय वा द्रव्यस्य प्रेतोद्देशेन श्रद्धया त्याग:।' श्राद्धकल्पतरु (पृ. 4) में ऐसा कहा गया है–'एतेन पितृनुद्दिश्य द्रव्योत्यागो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्तं श्राद्धस्वरूपं प्रधानम्।' श्राद्धक्रियाकौमुदी (पृ. 3-4) का कथन है–'कल्पतरुलक्षणमय्यनुर्वादय सन्यासिनामात्मश्राद्धे देवश्राद्धे सनकादिश्राद्धे चाव्याप्ते:।' श्रीदत्तकृत पितृभक्ति में आया है–'अत्र कल्पतरुकार: पितृनुद्दिश्य द्रव्यपातो ब्राह्मणस्वीकरणपर्यन्ती हि श्राद्धमित्याह तदयुक्तम्।' दीपकलिका (याज्ञवल्क्यस्मृति 1|128) ने कल्पतरु की बात मानी है। श्राद्धविवेक (पृ. 1) ने इस प्रकार कहा है–'श्राद्धं नाम वेदवोधितपात्रम्भनपूर्वकप्रमीतपित्रादिदेवतोद्देश्यको द्रव्यत्यागविशेष:।' श्राद्धप्रकाश (पृ. 4) ने इस प्रकार कहा है–'अत्रापस्तम्बादिसकलवचनपर्यालोचनया प्रमीतमात्रोद्देश्यकान्नत्यागविशेषस्य ब्राह्मणद्यधिककरण प्रतिपत्त्ययंगकस्य श्राद्धपदार्थत्वं प्रतीययते।' श्राद्धविवेक का कथन है कि 'द्रव्यत्याग' वेद के शब्दों द्वारा विहित (वेदबोधत) है और त्यागी हुई वस्तु सुपात्र ब्राह्मण को (पात्रालम्भनपूर्वक) दी जाती है। श्राद्धप्रकाश में 'प्रतिपत्ति' का अर्थ है यज्ञ में प्रयुक्त किसी वस्तु की अन्तिम परिणति, जैसा कि दर्शपूर्णमास यज्ञ में 'सह शाखया प्रस्तरं प्रहरति' नामक वाक्य आया है। यहाँ 'शाखाप्रहरण' 'प्रतिपत्तिकर्म' है (जैमिनि. 4|2|10-13) न कि अर्थकर्म। इसी प्रकार आहिताग्नि के साथ उसके यज्ञपात्रों का दाह प्रतिपत्तिकर्म है (जहाँ तक यज्ञपात्रों का सम्बन्ध है)।
  2. (याज्ञवल्क्यस्मृति 1|217
  3. याज्ञवल्क्यस्मृति (1|268=अग्निपुराण 163|40-41
  4. मनु (3|284
  5. याज्ञवल्क्यस्मृति (1|269
  6. श्राद्धकल्पलता, पृ. 3-4)।
  7. यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा श्राद्धेषु दृष्टान्तो (दत्रान्नं) मंत्र: प्रापयते तु तम्।। मत्स्यपुराण (141|76); वायु पुराण (56|85 एवं 83|119-120); ब्रह्मण्ड, अनुर्षगपाद (218-90|91), उपोद्वातपाद (20|12-13); जैसा कि स्मृतिच. (श्रा. पृ. 448) ने उदधृत किया है। और देखिए श्रा. क. ल. (पृ. 5)।
  8. 8.0 8.1 8.2 8.3 Error on call to Template:cite web: Parameters url and title must be specified (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 16 सितंबर, 2011।
  9. मत्स्यपुराण 144|74-75
  10. श्राद्ध (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 3 अक्टूबर, 2010।
  11. विष्णु पुराण (75|4
  12. मनु स्मृति(3|284
  13. याज्ञवल्क्यस्मृति (1|269
  14. वयसा पिण्डं दद्यात्। वयसां हि पितर: प्रतिमया चरन्तीति विज्ञायते। बौधायन धर्मसूत्र (2|8|14);
    न च पश्यत काकादीन् पक्षिणस्तु न वारयेत्। तद्रूपा पितरस्तत्र समायान्ति बुभुत्सव:।।
    औशनस; न चात्र श्येनाकाकादीन् पक्षिण: प्रतिषेधयेत्। तद्रूपा पितरस्तत्र समायान्तीति वैदिकम्।।
    देवल (कल्पतरु, श्राद्ध, पृ. 17)।

  15. बौधायन धर्मसूत्र (2|8|14
  16. वायु पुराण (75|13-15=उत्तरार्ध 13|13-15
  17. श्राद्धकाले तु सततं वायुभूता: पितामहा:। आविशन्ति द्विजान् दृष्टवा तस्मादेतद् ब्रवीमि ते।।
    वस्त्रैरन्नै: प्रदानैस्तैर्भक्ष्यपेयैस्तथैव च। गोभिरश्वैस्तथा ग्रामै: पूजयित्वा द्विजोत्तमान।।
    भवन्ति पितर: प्रीता: पूजितेषु द्विजातिषु। तस्मादन्नेन विधिवत् पूजयेद् द्विजसत्तमान्।। वायृ. (75|13-15);
    ब्राह्मणांस्ते समायान्ति पितरो ह्यन्तरिक्षगा:। वायुभूताश्च विष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम्।। औशनसस्मृति।

  18. मनु (3219
  19. मत्स्यपुराण (18|5-7
  20. विष्णु धर्मसूत्र (20|34-36
  21. पितृलोकगतश्चान्नं श्राद्धे भुंक्ते स्वधासमम्। पितृलोकगतस्यास्य प्रयच्छत।।
    देवत्वे यातनास्थाने तिर्यग्योनी तथैव च। मानुष्ये च तथाप्नोति श्राद्धं दत्तं स्वबान्ध:।।
    प्रेतस्य श्राद्धकर्तुश्च पुष्टि: श्राद्धे कृते ध्रुवम्। तस्माच्छाद्धं सदा कार्य शोकं त्यक्तवा निरर्थकम्।।
    विष्णुधर्मसूत्र (20|34-36) और देखिए मार्कण्डेयपुराण (23|49-51)।

  22. ब्रह्म पुराण (220|2
  23. यह दृष्टिकोण यदि भारोपीय (इण्डो यूरोपीयन) नहीं है तो कम से कम भारत पारस्य (इण्डो ईरानिययन) तो है ही। प्राचीन पारसी शास्त्र फ्रवशियों (फ्रवशीस=अंग्रेज़ी बहुवचन) के विषय में चर्चा करते हैं, जो आरम्भिक रूप में प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में प्रयुक्त 'पितृ' या प्राचीन रोमकों (रोमवासियों) का 'मेनस' शब्द है। वे मृत लोगों के अमर एवं अधिष्ठाता देवता थे। क्रमश: 'फ्रवशी' का अर्थ विस्तृत हो गया और उसमें देवता तथा पृथ्वी एवं आकाश जैसी वस्तुएँ भी सम्मिलित हो गयीं, अर्थात् प्रत्येक में फ्रवशी पाया जाने लगा।
  24. ऋग्वेद (10|14|2 एवं 7; 1015|2 एवं 9|97|39
  25. ऋग्वेद (10|15|1
  26. ऋग्वेद 10|15|2
  27. ऋग्वेद 10|15|13
  28. ऋग्वेद (10|14|5-6
  29. ऋग्वेद 10|14|3-5
  30. ऋग्वेद (1|62|2
  31. ऋग्वेद 1|62|4; 5|39|12 एवं 10|62|6
  32. ऋग्वेद 4|42|8 एवं 6|22|2
  33. ऋग्वेद (1|62|4
  34. ऋग्वेद 10|62|5
  35. ऋग्वेद (4|2|15
  36. ऋग्वेद 7|76|4, 10|14|10 एवं 10|15|8-10
  37. ऋग्वेद 10|15|1 एवं 5, 9|97|39
  38. ऋग्वेद 10215|5
  39. ऋग्वेद 10|15|10 एवं 10|16|12
  40. ऋग्वेद 10|15|12
  41. ऋग्वेद 10|16|1-2 एवं 5=अथर्ववेद 18|2|10; ऋग्वेद 10|17|3
  42. मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 45
  43. और देखिए ब्रह्मापुराण (प्रक्रिया, अध्याय 8, उपोद्घात, अध्याय 9|10)–'इत्येते पितरो देवा देवाश्च पितर: पुन:। अन्योन्यपितरो होते।'
  44. ऋग्वेद 10|14|1 एवं 8, 10|1625)।
  45. ऋग्वेद 10|14|9 एवं 10|16|4
  46. ऋग्वेद (10|64|3
  47. निरुक्त (10|18
  48. अथर्ववेद (18|2|49
  49. ऋग्वेद (1|35|6
  50. ऋग्वेद 10|107|1
  51. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|2|10|5
  52. बृहदारण्यकोपनिषद् (1|5|16
  53. ऋग्वेद (10|138|1-7
  54. ऋग्वेद 10|14|2
  55. ऋग्वेद (10|14|1
  56. ऋग्वेद 10|14|7)।
  57. इस विषय में अधिक जानकारी के लिए देखिए इस खण्ड का अध्याय 6।
  58. ऋग्वेद (10|15|4 एवं 11=तैत्तरीय संहिता 2|6|12|2
  59. देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|6|9|5) एवं काठकसंहिता (9|6|17)।
  60. मिलाइए मनु 3|117)।
  61. मनु(3|193-198
  62. मनु(3|199
  63. मत्स्य पुराण(141|4, 141|15-18
  64. शातातपस्मृति (625-6
  65. वायुपुराण (72|1 एवं 73|6
  66. ब्रह्माण्ड पुराण (उपोदघात् 9|53
  67. पद्म पुराण (5|9|2-3
  68. विष्णुधर्मोत्तर (1|138|2-3
  69. स्कन्द पुराण (6|216|9-10
  70. मनु (3|201
  71. ऋग्वेद (10|53|4
  72. ऐतरेयब्राह्मण (13|7 या 3|31
  73. निरुक्त (3|8
  74. अथर्ववेद (10|6|62
  75. तैत्तिरीय संहिता (6|1|1|1
  76. शांखायन ब्राह्मण 5|6
  77. शतपथ ब्राह्मण(2|4|2|2
  78. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|3|10|4
  79. कौशिकसुत्र (1|9-23
  80. बौधायन श्रौतसूत्र (2|2
  81. प्रागपवर्गाण्युदगपवर्गाणि वा प्राडमुख: प्रदक्षिणं यज्ञोपवीती दैवानि कर्माणि करोति। दक्षिणा मुख: प्रसव्यं प्राचीनावीती पित्र्याणि। बौधायन श्रौतसूत्र (2|2
  82. ऋग्वेद (10|14|3 'स्वाहयान्ये स्वधयान्ये मदन्ति'
  83. शतपथब्राह्मण (2|1|3|4 एवं 2|1|4|9
  84. ऋग्वेद (10|15|8
  85. ऋग्वेद (10|68|11
  86. ऋग्वेद 7|76|3
  87. ऋग्वेद (10|14|6
  88. ऋग्वेद 10|15|4
  89. ऋग्वेद 10|15|7 एवं11
  90. ऋग्वेद (10|15|11
  91. अथर्ववेद (18|3|14
  92. अथर्ववेद (14|2|73
  93. वाजसनेयी संहिता (2|33
  94. आधत्त पितरो गर्भ कुमारं पुष्करस्रजम्। यथेह पुरुषोऽसत्।। वाज. सं. (2|33)। खादिरगृह्य. (3|5|30) ने व्यवस्था दी है–'मध्यमं पिण्डं पुत्रकामा प्राशयेदाधत्तेति'; और देखिए गोभिलगृह्य (4|3|27) एवं कौशिकसूत्र (89|6)। आश्वलायन श्रौतसूत्र (2|7|13) में आया है–'पत्नीं प्राशयेदाधत्त पितरो....स्रजम्।' अश्विनौ को पुष्करस्रजौ कहा गया है, अत: 'पुष्करस्रज' शब्द में भावना यह है की पुत्र लम्बी आयु वाला एवं सुन्दर हो। 'यथेह....असत्' को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है–'येन प्रकारेण इहैव क्षितौ पुरुषो देवपितृमनुष्याणमभीष्टपूरयिता भूपात् तथा गर्भमाधत्त।' देखिए हलायुध का ब्राह्मणसर्वस्व। कात्यायन श्रौतसूत्र (4|1|22) ने भी कहा है–'आधत्तेति मध्यमपिण्डं पत्नी प्राश्नाति पुत्रकामा।
  95. मिलाइए वुलियामीकृत 'इम्मॉर्टल मैन' (पृ. 24-25), जहाँ आदिम अवस्था एवं सुसंस्कृत काल के लोगों के मृतक सम्बन्धी भय स्नेह के भावों के विषय में प्रकाश डाला गया है।
  96. ऋग्वेद (10|15|6
  97. ऋग्वेद (3|55|2
  98. ऋग्वेद (10|66214
  99. देवा: सौम्याश्च काव्याश्च अयज्वानो ह्ययोनिजा:।
    देवास्ते पितर: सर्वे देवास्तान्वादयन्त्युत।।
    मनुष्यपित रश्चैव तेभ्योऽन्ये लौकिका: स्मृता:।
    पिता पितामहश्चैव तथा य: प्रपितामह:।। ब्रह्माण्ड पुराण (2|28|70-71);
    अंगीराश्च ऋतुश्चैव कश्यपश्च महानृषि:।
    एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायेगेश्वरा: स्मृता।।
    एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधि: पर:।
    प्रेतास्तु पिण्डसम्बन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा। अनुशासनपर्व (92|21-22)।
    इस उद्धरण से प्रकट होता है कि अंगिरा, ऋतु एवं कश्यप पितर हैं, जिन्हें जल दिया जाता है (पिण्ड नहीं), किन्तु समीपवर्ती मृत पूर्वजों को पिण्ड दिये जाते हैं।

  100. तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|6|9|5
  101. शतपथब्राह्मण (2|4|2|19
  102. वाज. सं. 2|31, प्रथम पाद
  103. तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1
  104. शतपथब्राह्मण (12|8|1|7
  105. मनु (3|221
  106. विष्णु पुराण (21|3 एवं 75|4
  107. पृ. 12
  108. श्राद्धप्रकाश (पृ. 204
  109. वायु पुराण (56|65-66
  110. देखिए वायु. (70|34), यहाँ पितर लोग देवता कहे गये हैं।
  111. वायुपुराण (56|18
  112. वायुपुराण(अध्याय 73
  113. वराह पुराण (13|16
  114. पद्म पुराण (सृष्टि 9|2-4
  115. ब्रह्मण्ड पुराण (3|10|1
  116. शतातपस्मृति (6|5|6
  117. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|1-3
  118. बौधायन धर्मसूत्र (2|8|1
  119. हरिवंश (1|21|1
  120. स्मृतिच., श्राद्ध, पृ. 333
  121. पित्र्यमायुष्यं स्वर्ग्य यशस्यं पुष्टकिर्म च। बौधायन धर्मसूत्र (2|8|1) श्राद्धे प्रतिष्ठितो लोक: श्राद्धे योग: प्रवर्तते।। हरिवंश (1|21|11)। श्राद्धत्परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाह्रतम्। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:।। सुमन्तु (स्मृतिच., श्राद्ध, 333)।
  122. वायुपुराण (3|14|1-4
  123. आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रिय:। पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। यम (स्मृतिच., श्राद्ध, पृ. 333 एवं श्राद्धसार पृ. 5)। ऐसा ही श्लोक याज्ञ. (1|270, मार्कण्डपुराण 32|38) एवं शंख (14|33) में भी है। और देखिए याज्ञ. (1|270)।
  124. श्राद्धसार (पृ. 6
  125. श्राद्धप्रकाश (पृ. 11-12
  126. शान्तिपर्व (345|21
  127. स्कन्दपुराण (6|218|3
  128. ऋग्वेद (10|151|1-5
  129. ऋग्वेद (2|26|3; 7|32|14; 8|1|31 एवं 9|113|4)।
  130. ऋग्वेद (2|12|5), अथर्ववेद (20|34|5) एवं ऋ. (10|147|1=श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे)।
  131. तैत्तिरीय संहिता (7|4|1|1
  132. ऋग्वेद (1|103|5)।
  133. निरुक्त (3|10
  134. वाज. सं. (19|77
  135. वाज. सं. (19|30
  136. पाणिनी (5|2|85
  137. पा. 5|1|109
  138. योगसूत्र (1|20
  139. कृत्यरत्नाकर, पृ. 16 एवं श्राद्धतत्त्व, पृ. 189
  140. श्राद्धसूत्र (हेमाद्रि, पृ. 152
  141. मनु (3|275
  142. मार्कण्डेय पुराण (29|27
  143. श्रद्धया परया दत्तं पितृणां नामगोत्रत:। यदाहारास्तु ते जातास्तदाहारत्वमेति तत्।। मार्कण्डेयपुराण (29|27); अन्यायोपार्जितैरर्थेर्यच्छ्राद्धं क्रियते नरै:। तृप्यन्ते तेन चाण्डालपुक्कसाद्यासु योनिषु।। मार्कण्डेय. (28|16) एवं स्कन्द. (7|1|205|22)।
  144. काठक गृह्यसूत्र (61|3
  145. जैमिनिय गृह्यसूत्र (2|3
  146. शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|2
  147. पार. गृह्यसूत्र (3|3
  148. खादिरगृह्यसूत्र (3|3|29-30
  149. इसी से गोभिलगृ. 3|10|9 ने इसे अपूपाष्टका कहा है
  150. खादिरगृह्यसूत्र (3|4|1
  151. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|7-10
  152. गोभिलगृह्यसूत्र (4|1|18-22
  153. कौशिक (138|2
  154. बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|51|61
  155. देखिए आश्वलायन गृह्यसूत्र 2|5|10, हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र 2|10|17, आपस्तम्ब गृह्यसूत्र 8|21|1, विष्णुपुराण 3|14|3, आदि
  156. गौतम. (8|19
  157. शतपथ ब्राह्मण 6|4|2|40
  158. शतपथ ब्राह्मण (6|2|2|23
  159. जैमिनिय (1|3|2
  160. अथर्ववेद (3|10|2
  161. आपस्तम्ब (20|27
  162. अष्टकालिंगाश्च मंत्रा वेदे दृश्यन्ते यां जना: प्रतिनन्दतीत्येवमादय:। शबर (जैमिनि. 1|3|2)। शबर ने इसे जैमिनि. (6|5|35) में इस प्रकार से पढ़ा है–'यां जना: प्रतिनन्दन्ति रात्रि धेनुमिवायतीम्। संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमंगली।।' और उन्होंने जोड़ दिया है–'अष्टकार्य सुराधसे स्वाहा'। अथर्ववेद (3|10|2) में 'जना:' के स्थान पर 'देवा:' एवं धेनुमिवायतीम्' के स्थान पर धेनुमुपायतीम् आया है।
  163. अथर्ववेद (3|10|8
  164. तैत्तिरीय संहिता (7|4|8|1
  165. जैमिनिय (6|5|32-37
  166. आपस्तम्ब गृह्यसूत्र (हरदत्त, गौतम. 8|19
  167. पाणिनि (7|3|85) के एक वार्तिक के अनुसार 'अष्टका' शब्द 'अष्टन' से बना है। पा. (7|3|45) का 9वाँ वार्तिक हमें बताता है कि 'अष्टन' से 'अष्टका' व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है कि वह कृत्य जिसके अधिष्ठाता देवता पितर लोग हैं, और 'अष्टिका' शब्द का अर्थ कुछ और है, यथा 'अष्टिका खारी'।
  168. हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र (2|15|9
  169. माघ की पूर्णिमा वर्ष का मुख कहलाती है। अर्थात् प्राचीन काल में उसी से वर्ष का आरम्भ माना जाता था। पूर्णिमा के पश्चात् अष्टका दिन पूर्णिमा के उपरान्त का प्रथम एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पर्व था और यह वर्षारम्भ (वर्ष आरम्भ होने) से छोटा माना जाता था। सम्भवत: इसी कारण यह वर्ष की पत्नी कहा गया है।
  170. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|4|1
  171. मानवगृह्यसुत्र (218
  172. शांखायन गृह्यसूत्र (3|12|1
  173. खादिरगृह्यसूत्र (3|2|27
  174. काठकगृह्यसूत्र (61|1
  175. कौषितकि गृह्यसूत्र (3|15|1
  176. पार. गृह्यसूत्र (3|3
  177. गोभिलगृह्यसूत्र (3|10|48
  178. बौधायन गृह्यसूत्र (2|11|1
  179. आपस्तम्बगृह्यसूत्र (2|5|3
  180. शांखायन गृह्यसूत्र (3|13|7
  181. यथा खादिरगृह्यसूत्र 3|5 एवं गोभिलगृह्यसूत्र 4|2-3
  182. आश्वलायन गृह्यसूत्र एवं विष्णु धर्मसूत्र (74
  183. खादिरगृह्यसूत्र 3|5|1
  184. पारस्कर गृह्यसूत्र (3|3|30
  185. मनु (4|150
  186. विष्णु धर्मसूत्र (74|1 एवं 76|1
  187. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|5
  188. बौधायन गृह्यसूत्र (3|12|1
  189. गोभिलगृह्यसूत्र (4|4
  190. खादिर गृह्यसूत्र (3|5|35
  191. काठक गृह्यसूत्र (66|1|68, 68|1 एवं 69|1
  192. आश्वलायन गृह्यसूत्र (2|5|9
  193. गोभिलगृह्यसूत्र (4|4|3
  194. शांखायन गृह्यसूत्र (4|1|13
  195. मनु (3|122-123
  196. स्कन्दपुराण (नागरखण्ड, 215|24-25) में आया है–दृश्यन्ते बहवो भेदा द्विजानां श्राद्धकर्मणि। श्राद्धस्य बहवो भेदा: शाखाभेदैर्व्यवस्थिता:।।
  197. यथा–अनुशासनपर्व, अध्याय 87-92
  198. बिब्लिओथिका इण्डिका माला, 1716 पृष्ठों में
  199. टोडरानन्द का एक भाग
  200. शान्तिपर्व (65|13-21
  201. यवना: किराता गान्धाराश्चीना: शबरबर्बरा:। शकास्तुषारा: ककाश्च पल्लवाश्चान्ध्रमद्रका:।।...
    कथं धर्माश्चरिष्यन्ति सर्वे विषयवासिन:। मद्विधैश्च कथं स्थाप्या: सर्वे वै दस्युजीविन:।।....
    मातापित्रोहि शुश्रुषा कर्तव्या सर्वदस्युभि:।....पितृयज्ञास्तया कूपा:प्रपाश्च शयनानि च। दानानि च कथाकालं द्विजेभ्यो विसृजेत्सदा।।....
    पाकयज्ञा महाहश्चि दातव्या: सर्वदस्युभि:। शान्तिपर्व (65|13-21)।
    इस पर शूद्रकमलाकर (पृ. 55) ने टिप्पणी की है–'इति म्लेच्छादीनां श्राद्धविधानं तदपि सजातीयभोजनद्रव्यदानादिपरम्।'

  202. वायु पुराण (83|112
  203. गोभिलस्मृति (3|70 एवं 2|104
  204. और देखिए अनुशानपर्व (91)।
  205. अपरार्क (पृ. 538
  206. बृहत्पराशर (पृ. 153
  207. स्मृतिच., श्राद्ध, पृ. 337
  208. जीवतो वाक्यकरणात् प्रत्यब्दं भूरिभोजनात्। गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभि: पुत्रस्य पुत्रता।। त्रिस्थलीसेतु (पृ. 319)।
  209. आपस्तम्ब धर्मसू्त्र 2|6|15219; गौतम 2|4-5; वसिष्ठ 2|6; विष्णु. 28|40 एवं मनु 2|172
  210. मनु 2|172
  211. स्मृत्यर्थसार (पृ. 46
  212. तैत्तिरीय संहिता (1|8|5|1
  213. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1|6|9
  214. बौधायन धर्मसूत्र (1|5|113-115
  215. अपि च प्रपितामह: पितामह: पिता स्वयं सोदर्या भ्रातर: पुत्र: पौत्र: प्रपौत्र एतानविभक्तदायादान् सपिण्डानाचक्षते। विभक्तदायादान् सकुल्यानाचक्षते। सत्स्वगंजेषु तदगामी ह्यथों भवति। बौधायन धर्मसूत्र (1|5|113-115) इसे दायभाग (11|37) ने उद्धघृत किया है और (11|38) में व्याख्यापित किया है। और देखिए दायतत्त्व (पृ. 189)।
  216. मनु (9|137=वसिष्ठ 17|5=विष्णु. 15|16
  217. तैत्तिरीय आरण्यक (2|10
  218. मनु (3|70
  219. मनु (3|83
  220. गौतम 15|1-2
  221. अमर उजाला (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 3 अक्टूबर, 2010।
  222. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|4-7
  223. गौतम (15|3
  224. वसिष्ठ (11|16
  225. गौतम (15|5
  226. कूर्म पुराण (2|20|23
  227. अग्नि पुराण (115|8
  228. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|8-22
  229. अनुशासन पर्व (87
  230. वायु पुराण (99|10-19
  231. याज्ञवल्क्य (1|262-263
  232. ब्रह्म पुराण (220|15|21
  233. विष्णु धर्मसूत्र (78|36-50
  234. कूर्म पुराण (2|20|17-22
  235. ब्रह्मण्डपुराण (3|17|10-22
  236. विष्णुधर्मसूत्र (77|1-6
  237. परा. मा. (1|1, पृ. 63
  238. अर्थात् यह 'विविदिषाजनक' है, जैसा की गीता 9|27 में संकेत किया गया है
  239. जैमिनिय (6|3|1-7
  240. जैमिनिय 6|3|8-10
  241. विष्णुधर्मसूत्र (78|1-7
  242. कूर्म पुराण (2|20, 16-17
  243. विष्णुधर्मसूत्र (78|8-15
  244. और देखिए याज्ञ. (1|265-268), वायु. (82), मार्कण्डेय. (30|8-16), कूर्म. (2|20|9-15), ब्रह्म. (220|33-42) एवं ब्रह्माण्ड. (उपोदघातपाद 18|1)।
  245. अग्नि पुराण (117|61
  246. विष्णुपुराण (3|14|12-13
  247. मत्स्य पुराण (17|4-5
  248. पद्म पुराण (5|9|130-131
  249. वराह पुराण (13|40-41
  250. प्रजापतिस्मृति (22
  251. स्कन्द पुराण (7|2|205|33-34
  252. मत्स्य पुराण (17|6-8
  253. अग्नि पुराण (117|162-164 एवं 209|16-18
  254. सौरपुराण (51|33-36
  255. पद्म पुराण (सृष्टि. 9|132-136
  256. 1, पृ. 58
  257. कृत्यरत्नाकर (पृ. 543
  258. परा. मा. (1|1, पृ. 156 एवं 1|2, पृ. 311
  259. मदनपारिजात (पृ. 540
  260. स्कन्द पुराण (7|1|205-36-39
  261. स्मृत्यर्थसार (पृ. 9
  262. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (7|17|23-25
  263. मनु (3|280
  264. विष्णुधर्मसूत्र (77|8-9
  265. कूर्म पुराण (2|16|3-4
  266. ब्रह्माण्ड पुराण (3|14|3
  267. भविष्य पुराण (1|185|1
  268. मनु (3|278
  269. पृ. 465
  270. हेमाद्रि (पृ. 313
  271. ऋग्वेद (10|34|11
  272. शतपथ ब्राह्मण (2|2|3|9
  273. ऋग्वेद (5|76|3
  274. प्रजापतिस्मृति (156-157
  275. दिन 15 मुहूर्तों में बाँटा जाता है
  276. स्मृतिच. (श्राद्ध पृ. 433
  277. हेमाद्रि (श्राद्ध, पृ. 320
  278. मनु 3|254
  279. पूर्वाह्ने दैविकं कार्यमपराह्ने तु पैतृकम्। एकोद्दिष्टं तु मध्याह्ने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम्।। मेधातिथि (मनु 3|243)। दीपकलिका (याज्ञ. 1|226) ने इस श्लोक को वायुपुराण के एक श्लोक के रूप में उद्धृत किया है।
  280. त्रिकाण्डमण्डन (2|150 एवं 162
  281. मनु (2|206-207
  282. याज्ञवल्क्य (1|227
  283. शंख (परा. मा. 1|2, पृ. 303; श्रा. प्र. पृ. 140; स्मृतिच., श्रा., पृ. 385
  284. कूर्म पुराण (2|22|17
  285. विष्णुधर्मसूत्र (अध्याय 84
  286. ब्रह्मपुराण (220|8-10

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