सुधा मल्होत्रा

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सुधा मल्होत्रा (अंग्रेज़ी: Sudha Malhotra, जन्म- 30 नवम्बर, 1936, दिल्ली ) भारतीय पार्श्व गायिका एवं अभिनेत्री हैं। उन्होंने बहुत कम समय में ही शोहरत हासिल कर ली। उनके गाये हुए गाने आज भी दर्शकों के पसंदीदा गानों में शामिल हैं। उन्होंने पार्श्वगायक के रूप में 1950 और 1960 के दशक में कुछ लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्मों जैसे- 'आरज़ू', 'धूल का फूल', 'काला पानी', 'बरसात की रात', 'अब दिल्ली दूर नहीं' और 'देख कबीरा रोया' में काम किया। आख़िरी बार उन्हें 1982 में राज कपूर की फ़िल्म 'प्रेम रोग' के गीत 'ये प्यार था या कुछ और था' में सुना गया था। हिंदी गीतों के अलावा, सुधा ने कई लोकप्रिय मराठी गीतों (भावजीत) को भी गाया था।

सुधा मल्होत्रा को 2013 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

परिचय

हिंदी फ़िल्मों की मशहूर गायिका सुधा मल्होत्रा का जन्म 30 नवम्बर, 1936 को दिल्ली में हुआ था। उन्होंने 'रेडिओ लाहौर' में एक बाल कलाकार गायिका के रूप में काम शुरू किया। उन्होंने 6 वर्ष की उम्र में कानन बाला के गाने से स्टेज पर गाना शुरू किया था। संगीतकार गुलाम हैदर जी ने उन्हें गाने के मंच पर पहला मौक़ा दिया था।[1]

विवाह

साहिर और सुधा ने बहुत से गाने एक साथ गाए, जोकि काफ़ी हिट रहे। इस बीच साहिर सुधा से प्रेम करने लगे थे। जब साहिर के जज्बात जब अफ़वाह और ख़बर बनकर फैले तो सुधा मल्होत्रा के जीवन पर भी इसका असर पड़ने लगा, तब सुधा महज 22 वर्ष की थीं। अब सुधा के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वो घरवालों को नाराज़ कर अपना कॅरियर जारी रखें या फिर घरवालों को खुश रखने के लिए [[विवाह] कर लें। सुधा ने दूसरा रास्ता चुना और 1960 में गिरधर मोटवानी के साथ विवाह कर लिया। विवाह के बाद सुधा ने फ़िल्मों से पूरी तरह नाता तोड़ लिया।

फ़िल्मी कॅरियर

सुधा मल्होत्रा जब 11 वर्ष की थीं, तब वह एक स्टूडियो में गाना गा रही थीं और गाना था 1950 में रिलीज हुई फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए, जिसके बोल थे 'मिला दे नैन'। जब रिकॉर्डिंग खत्म हुई तो संगीतकार अनिल बिस्वास ने ताली बजा कर इस नई आवाज़ का हौसला बढ़ाया। इस तरह फ़िल्म संगीत को मिलीं सुधा मल्होत्रा, जिन्होंने कम समय में ही फ़िल्म संगीत के इतिहास में अपना नाम सुरक्षित कर लिया। बचपन में सुधा को गाने का शौक था, उस समय उनका परिवार लाहौर में रह रहा था। वहां रेडक्रॉस का एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें सुधा ने पहली बार लोगों के सामने गाना गाया तब उनकी उम्र थी 6 साल। उस समारोह में संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर भी मौज़ूद थे उन्होंने इस आवाज़ को परख लिया। उनकी तारीफ ने नन्ही सुधा को आत्मविश्वास से भर दिया और जल्द ही वह 'ऑल इंडिया रेडियो लाहौर' में सफ़ल बाल कलाकार बन गईं।[1]

सुधा के नाना मुंबई में रहा करते थे और वह छुट्टियों में वहां जाती थीं। उनके एक रिश्तेदार का अनिल बिश्वास के परिवार से संबंध था। वही सुधा को अनिल दा के पास ले गईं। अनिल बिस्वास ने सुधा से एक गाना सुना और उनकी आवाज़ से इतने प्रभावित हुए कि इस आवाज़ को फ़िल्मों में आजमाने का फ़ैसला कर लिया और इस तरह फ़िल्म 'आरज़ू' से सुधा को पार्श्व गायन के क्षेत्र में पहला मौका मिला। लेकिन उन पर बच्चों जैसी आवाज़ वाली गायिका का ठप्पा लग गया ख़ासकर फ़िल्म 'दिल्ली दूर नहीं' में बच्चे के किरदार का प्लेबैक करने के बाद तो जैसे वह टाइप कास्ट सी हो गईं। इसमें सुधा का गाया एक गीत 'माता ओ माता जो तू आज होती मुझे यूं बिलखता अगर देखती' काफी पसंद किया गया। फिर कुछ समय बाद सुधा को 'घर घर में दीवाली' और फिर 'काला बाज़ार' फ़िल्म में भजन गाने का मौका मिला। 'काला बाज़ार' का भजन 'ना मैं धन चाहूं ना रतन चाहूं' सुधा के कॅरियर में मील का पत्थर बन गया। इसके बाद तो धार्मिक फ़िल्मों में सुधा के गाए भजन की बेहद मांग बढ़ गई।

जैसे जैसे सुधा जवान हुईं उनकी आवाज़ के साथ साथ उनकी सुंदरता भी चर्चा का विषय बनने लगी। सुधा की आवाज़ का सफर आगे बढ़ ही रहा था कि इस सफर में शामिल हो गए गीतकार साहिर लुधियानवी1959 में आयी फ़िल्म 'भाई बहन' में सुधा ने साहिर के लिखे गीतों को पहली बार आवाज़ दी। इसके बाद साहिर जहां सुधा की असरदार शख्सियत से बहुत प्रभावित हुए वहीं सुधा साहिर की कलम की मुरीद हो गई। साहिर और सुधा के दोस्ताना रिश्ते मज़बूत होते रहे और नतीज़े में सिनेमा के इतिहास में एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत दर्ज होते चले गए। साहिर का लिखा फ़िल्म 'कभी कभी' का गीत 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' आज भी बेहद लोकप्रिय है। इसे चेतन आनंद ने अपनी एक फ़िल्म के लिए सुधा से ही गवाया था, जिसमें ख़य्याम का संगीत था, लेकिन वह फ़िल्म नहीं बन सकी। बाद में यश चोपड़ा ने जब 'कभी कभी' बनाई तो साहिर की इस नज़्म को फ़िल्म में शामिल कर साहिर के जजबातों को अमर कर दिया।

सुधा, साहिर और रोशन की तिकड़ी

सुधा की आवाज़ जब अपनी पहचान बना चुकी तब साहिर, सुधा और रोशन की तिकड़ी ने धमाका कर दिया। फ़िल्म थी 'बरसात की रात'। ये फ़िल्म हिन्दी सिनेमा की लाजवाब म्यूजिकल हिट फ़िल्मों में आज भी शुमार की जाती है। इसके गीत 'ना तो कारवां की तलाश है', 'ये इश्क इश्क है इश्क इश्क' ने ना सिर्फ अपने दौर में हंगामा मचा दिया बल्कि कव्वाली आधारित फ़िल्में बनाने का ट्रेंड शुरू कर दिया। फ़िल्म 'बरसात की रात' ने सुधा मल्होत्रा को बहुत शोहरत दी, लेकिन अभी तो सुधा को एक ऐसा गीत गाना था जो उनकी पहचान से जुड़ गया। और उन्होंने 'दीदी' फ़िल्म का ना सिर्फ वो यादगार गीत गाया बल्कि उसका संगीत भी दिया, हांलाकि 'दीदी' के संगीतकार थे एन दत्ता लेकिन उनकी तबियत ख़राब हो गई और साहिर के सुझाव पर सुधा ने इस गाने की धुन भी बनाई और गाया भी। ये गीत था 'तुम मझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको' यह गीत भी साहिर ने ही लिखा था।

साहिर के जज्बात जब अफ़वाह और ख़बर बनकर फैले तो सुधा मल्होत्रा के जीवन पर भी इसका असर पड़ने लगा, तब सुधा की उम्र थी महज 22 साल। अब सुधा के सामने दो ही विकल्प थे। या तो वो घरवालों को नाराज़ कर अपना कॅरियर जारी रखें या फिर घरवालों को खुश रखने के लिए विवाह कर लें। सुधा ने दूसरा रास्ता चुना और उन्होंने विवाह कर ली। विवाह के बाद सुधा ने फ़िल्मों से पूरी तरह नाता तोड़ लिया। वह वर्ष था 1962। इस तरह एक आवाज़ जिसे अभी बहुत आगे जाना था थम गई।

आख़िरी गीत

बरसों बाद अचानक एक दिन किसी निजी समारोह में राजकपूर ने सुधा को ग़ज़ल गाते हुए सुना। फिर क्या था राजकपूर ने फ़ैसला कर लिया कि उनकी फ़िल्म 'प्रेम रोग' के लिए सुधा गीत गाएंगी। लंबे अर्से के बाद सुधा फिर स्टूडियो में पहुंचीं, लेकिन इस बार वो काफ़ी नर्वस थीं। वह गीत 'ये प्यार था या कुछ और था' आज भी सुधा की आवाज़ की मधुरता और सुरीलेपन की याद दिलता है। सुधा ने फ़िल्मों के लिए यह आखिरी गीत गाया। क्योंकि तब तक समय बहुत आगे बढ़ चुका था मैदान की कमान युवाओं के हाथ में थीं। सुधा अब अपने परिवार में व्यस्त हैं। भजन गायकी में उनकी दिलचस्पी बनी हुई है। भले ही उन्होंने फ़िल्मों में गाना छोड़ दिया, लेकिन इस उम्र में भी उनका रियाज करना जारी है।[1]

सम्मान और पुरस्कार

2013 में भारत सरकार ने सुधा मल्होत्रा को हिंदी फ़िल्म संगीत के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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