सरस्वतीचन्द्र
सरस्वतीचन्द्र
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लेखक | गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी |
मूल शीर्षक | 'सरस्वतीचन्द्र' |
मुख्य पात्र | सरस्वतीचन्द्र, कुमुद, कुसुम |
प्रकाशक | साहित्य अकादमी |
प्रकाशन तिथि | 1998 |
ISBN | 81-7201-495-3 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 406 |
भाषा | गुजराती |
भाग | चार |
पुस्तक क्रमांक | 518 |
सरस्वतीचन्द्र प्रसिद्ध गुजराती उपन्यास है, जिसकी रचना गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी द्वारा की गई थी। यह उपन्यास 19वीं सदी की पृष्ठभूमि में लिखा गया था। यह उपन्यास गुजरात में काफ़ी लोकप्रिय है। सरस्वतीचन्द्र 15 वर्ष की अवधि में लिखा गया था और 1887 से 1902 तक यह चार भागों में प्रसिद्ध हुआ।
विषयवस्तु
‘सरस्वतीचन्द्र’ गुजरात का गरिमामय ग्रन्थ-रत्न है। इसमें सन 1885 के आसपास के संक्रान्तिकाल का, विशेष रूप से गुजरात और सामान्यतः समग्र भारत का विस्तृत, तत्त्वस्पर्शी और आर्षदृष्टि-युक्त चित्रण है। भारत के छोटे-बड़े राज्य, अंग्रेज़ी शासन और उसका देश पर छाया हुआ प्रभुत्व, अज्ञान और दारिद्रय इन दो चक्की के पाटों के बीच पिसती, सत्ताधीशों से शोषित और जिसे राजा की सत्ता को पूज्य समझना चाहिए, ऐसी ‘कामधेनु’ के समान पराधीन प्रजा, अपना परिवर्तित होता हुआ पारिवारिक जीवन, खंडित जीवन को सुवासित करने वाले स्नेह की सुगंध, अंग्रेज़ी शिक्षा का आरंभ और भारत के युवक वर्ग पर पड़ने वाला उसका अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव, संधि-काल में बदलते हुए जीवन-मूल्य, न केवल समाज के योगक्षेम वरन् इसके वास्तविक एवं पूर्ण विकास के लिए स्त्री-जाति के उत्थान की आवश्यकता, धर्म के नाम पर पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण निर्जीव और निष्क्रिय सामाजिक जीवन, नूतन विज्ञान और उद्योग से समृद्ध पाश्चात्य संस्कृति का प्रादुर्भाव और भारत में व्याप्त होता हुआ उसका प्रभाव, लोक-कल्याण की यज्ञ-भावना और उसमें कुमुद, सरस्वतीचन्द्र तथा कुसुम की बलि, देश के सर्वांगीण उन्नति के लिए कल्याण-ग्राम की योजना, लोक-कल्याण के पोषण में ही साधुओं और उनके संन्यास की सार्थकता - ये और ऐसी ही अनेक धाराएँ इस कृति में चक्र की नाभि से निकलती अराओं की भांति दिखाई देती हैं। लेकिन इन सब में लेखक का केन्द्रीय भाव तो भारत के पुनरुत्थान और जन-कल्याण का ही है। सरस्वतीचन्द्र की अस्थिरचित्तता और वैराग्य-भावना के मूल में भी लेखक का लोक-चित्रण तथा लोक-कल्याण का दृष्टिकोण ही निहित है।[1]
सरस्वतीचन्द्र गुजरात का गरिमामय ग्रन्थ-रत्न है। भारत के छोटे-बड़े राज्य, अंग्रेज़ी शासन और उसका देश पर छाया प्रभुत्व, अज्ञान और दारिद्रय इन दो चक्कों के पाटों के बीच पिसती, सत्ताधीशों से शोषित और दासत्व के बोझ से दबी जनता के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई एक कालजयी प्रेमकथा है, जिसमें गृहस्थी और संन्यास के बीच में झूलता नायक अपने भौतिक प्रेम का बलिदान कर व्यक्ति और समाज का उत्थान करने का मार्ग अपनाता है।
यह उपन्यास न सिर्फ 19वीं शताब्दी के ब्रिटिशकाल के दौरान गुजराती समुदाय के सामाजिक दृष्टिकोण को दिखाता है, बल्कि आदर्शवाद की पूर्ण अवस्था के मानक भी सामने रखता है। सुहरद के मुताबिक, यह उपन्यास न केवल पात्रों कुमुद, कुसुम और सरस्वतीचंद्र के बीच प्रेम कहानी को गढ़ता है बल्कि इसका प्रत्येक भाग चारों पुरुषार्थों को बता सकने की क्षमता रखता है। इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इसमें प्राचीन और आधुनिक साहित्यकारों द्वारा रचित पंक्तियों का उद्धरण दिया गया है। इसमें जहां भृतहरि, कालिदास, भवभूति, भगवतगीता, महाभारत और पंचतंत्र के कथन लिए गए हैं तो वहीं वर्ड्सवर्थ, शेली, गोल्डस्मिथ, कीट्स और शेक्सपियर के कथनों के माध्यम से भी बातें कही गईं हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'सरस्वतीचन्द्र' गोवर्धनराम त्रिपाठी (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 02 मई, 2017।
- ↑ 128 साल बाद प्रसिद्ध उपन्यास 'सरस्वतीचन्द्र' अंग्रेज़ी में (हिंदी) navbharattimes.indiatimes.com। अभिगमन तिथि: 02 मई, 2017।