तानसेन
तानसेन
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पूरा नाम | रामतनु पाण्डेय |
अन्य नाम | तन्ना उर्फ तनसुख उर्फ त्रिलोचन |
जन्म | 1504 से 1509 ई. के बीच |
जन्म भूमि | ग्राम बेहट, ग्वालियर |
मृत्यु | 1589 ई. |
कर्म-क्षेत्र | संगीत |
मुख्य रचनाएँ | 'संगीतसार', 'रागमाला' और 'श्रीगणेश स्तोत्र'। |
विषय | गायक |
संगीत सम्राट् तानसेन (जन्म- संवत 1563, बेहट ग्राम; मृत्यु- संवत 1646) की गणना भारत के महान गायकों एवं संगीतज्ञों में की जाती है। तानसेन का नाम अकबर के प्रमुख संगीतज्ञों की सूची में सर्वोपरि है। तानसेन दरबारी कलाकारों का मुखिया और समाट् के नवरत्नों में से एक था। इस पर भी उसका प्रामाणिक जीवन-वृत्तांत अज्ञात है। यद्यपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परंतु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। उसके जीवन की अधिकांश घटनाएँ किंवदंतियों एवं अनुश्रुतियों पर आधारित हैं। प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त स्वामी हरिदास इनके दीक्षा-गुरू कहे जाते हैं। चौरासी वैष्णवन की वार्ता में सूर से इनके भेंट का उल्लेख हुआ है। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता" में गोसाई विट्ठलनाथ से भी इनके भेंट करने की चर्चा मिलती है।
जीवन परिचय
तानसेन की जीवनी के सम्बन्ध में बहुत कम ऐसा वृत्त ज्ञात है, जिसे पूर्ण प्रामाणिक कहा जा सके। भारतीय संगीत के प्रसिद्ध गायक तानसेन का जन्म ग्वालियर के निकटवर्ती बेहट ग्राम संवत 1563 में वहाँ के एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। उसके पिता का नाम मकरंद पांडे था। उसका मूल नाम क्या था, यह निश्चय पूर्वक कहना कठिन है, किंवदंतियों के अनुसार उसे तन्ना, त्रिलोचन, तनसुख, अथवा रामतनु बतालाया जाता है। तानसेन उसका नाम नहीं उसकी उपाधि थी, जो उसे बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र से प्राप्त हुई थी। वह उपाधि इतनी प्रसिद्ध हुई कि उसने उसके मूल नाम को ही लुप्त कर दिया। उसका जन्म-संवत् भी विवादग्रस्त है। हिन्दी साहित्य में संवत 1588 की प्रसिद्धि है किंतु कुछ विद्वानों ने संवत 1563 माना है।[1] तानसेन के मधुर कंठ और गायन शैली की ख्याति सुनकर 1562 ई. के लगभग अकबर ने उन्हें अपने दरबार में बुला लिया। अबुल फजल ने 'आइने अकबरी' में लिखा है कि अकबर ने जब पहली बार तानसेन का गाना सुना तो प्रसन्न होकर पुरस्कार में दो लाख टके दिए। तानसेन के कई पुत्र थे, और एक पुत्री थी। पुत्रों में तानतरंग खाँ, सुरतिसेन और विलास खाँ के नाम प्रसिद्ध हैं। उनके पुत्रों एवं शिष्यों के द्वारा "हिन्दुस्तानी संगीत" की बड़ी उन्नति हुई थी।
शिक्षा
तानसेन के आरंभिक काल में ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। उनके प्रोत्साहन से ग्वालियर संगीत कला का विख्यात केन्द्र था, जहाँ पर बैजूबावरा, कर्ण और महमूद जैसे महान संगीताचार्य और गायक गण एकत्र थे, और इन्हीं के सहयोग से राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की ध्रुपद गायकी का आविष्कार और प्रचार किया था। तानसेन को संगीत की शिक्षा ग्वालियर में वहाँ के कलाविद् राजा मानसिंह तोमर के किसी विख्यात संगीताचार्य से प्राप्त हुई थी। गौस मुहम्मद को उसका संगीत-गुरू बतलाना अप्रमाणित सिद्ध हो गया है। उस सूफी संत के प्रति उसकी श्रद्धा भावना रही हो, यह संभव जान पड़ता है।
ग्वालियर राज्य का पतन हो जाने पर वहाँ के संगीताचार्यों की मंडली बिखरने लगी थी। उस परिस्थिति में तानसेन को ग्वालियर में उच्च शिक्षा प्राप्त करना संभव ज्ञात नहीं हुआ। अतएव वह किसी समय वृंदावन चला गया था, जहाँ उसने संभवतः स्वामी हरिदास जी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। बल्लभ संप्रदायी वार्ता के अनुसार उसने अपने उत्तर जीवन में अष्टछाप के संगीताचार्या गोविंदस्वामी से भी कीर्तन पद्धति का गायन सीखा था।[2]
जीविकोपार्जन
संगीत कला में पारंगत होने पर तानसेन को जीविकोपार्जन की चिंता हुई। ऐसा ज्ञात होता है, वह सर्वप्रथम सुलतान इस्लामशाह सूर के स्नेह-पात्र दौलतखां के आश्रय रहा था। उसी समय वह मुहम्मद आदिलशाह (अदली) सूर के संपर्क में आया था, जिसकी संगीतज्ञता के कारण उसे वह गुरुवत् मानता था। सूरी सल्तनत की समाप्ति होने पर वह बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र की संगीत-प्रियता और गुण-ग्राहकता की ख्याति सुन कर उसके दरबार में चला गया था। बांधव-नरेश ने उसे बड़े आदर पूर्वक रखा। वहाँ पर उसे विपुल धन-वैभव तथा आदर-सम्मान प्राप्त हुआ, और उसकी व्यापक प्रसिद्धि हुई। संवत 1620 में उसे सम्राट अकबर ने अपने दरबार में बुला लिया था। उस समय उसकी आयु 50 वर्ष से कुछ अधिक थी। फिर वह अपने देहावसान काल तक अकबर के आश्रय में ही रहा था।
मुसलमान होने की किंवदंती
हिन्दू कुल में जन्म लेने पर भी बाद में उसके मुसलमान होने की किंवदंती प्रचलित है। किंतु इसका समर्थन किसी भी समकालीन इतिहासकार के ग्रंथ से नहीं होता है। ऐसा जान पड़ता है, उसका मुसलमानों के साथ अधिक संपर्क और सहवास तथा उसके खान-पान की स्वच्छता के कारण उस समय रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उसका वहिष्कार कर उसे मुसलमान घोषित कर दिया था। वह कभी मुसलमान हुआ हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। उसकी मृत्यु होने पर उसकी शवयात्रा का जैसा वर्णन अबुलफ़जल ने किया है, उससे सिद्ध होता है कि वह अपने अंतिम काल तक भी हिन्दू रहा था।
उसके वंशजों ने अवश्य मुसलमानी मज़हब स्वीकार कर लिया था। उसकी वंश-परंपरा में कुछ नाम हिन्दुओं के से मिलते हैं और उनमें हिन्दुओं की सी कई रीतिरिवाजें प्रचलित हैं। इनसे समझा जा सकता है कि मुसलमान हो जाने पर भी वे अपने पूर्वजों की हिन्दू परंपरा का पूर्णतया परित्याग नहीं कर सके थे।
अकबरनामा के अनुसार
'अकबरनामा' के अनुसार तानसेन की मृत्यु अकबरी शासन में 34वें वर्ष अर्थात संवत 1646 में आगरा में हुई थी। उसका संस्कार भी संभवतः वहीं पर यमुना तट पर किया गया होगा। कालांतर में उसके जन्मस्थान ग्वालियर में स्मारक स्वरूप उसकी समाधि उसके श्रद्धा-भाजन गौस मुहम्मद के मक़बरे के समीप बनाई गई, जो अब भी विद्यमान है। तानसेन की आयु उसकी मृत्यु के समय 83 वर्ष के लगभग थी। और वह प्रायः 26 वर्ष तक अकबरी दरबार में संबद्ध रहा था। उसके कई पुत्र थे, एक पुत्री थी और अनेक शिष्य थे। पुत्रों में तानतरंग ख़ाँ, सुरतसंन और विलास ख़ाँ, के नाम से प्रसिद्ध हैं। पुत्रों में तानतरंग ख़ाँ, और शिष्यों में मियाँ चाँद के नाम अकबर के प्रमुख दरबारी संगीतज्ञों में मिलते हैं।
रचनाएँ
नये रागों का आविष्कार
तानसेन ग्वालियर परंपरा की मूर्च्छना पद्धति का भी एवं ध्रुपद शैली का विख्यात गायक और कई रागों का विशेषज्ञ था। उसे ब्रज की कीर्तन पद्धति का भी पर्याप्त ज्ञात था। साथ ही वह ईरानी संगीत की मुकाम पद्धति से भी परिचित था। उन सब के समंवय से उसने अनेक नये रागों का आविष्कार किया था, जिनमें "मियाँ की मलार" अधिक प्रसिद्ध है। उसके गायन की प्रशंसा में कई चमत्कारपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, किंतु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
ध्रुपदों की रचना
तानसेन गायक होने के साथ ही कवि भी था। उसने अपने गान के लिए स्वयं बहुसंख्यक ध्रुपदों की रचना की थी। उनमें से अनेक ध्रुपद संगीत के विविध ग्रंथों में और कलावंतों के पुराने घरानों में सुरक्षित हैं। उसके नाम से "संगीत-सार और "राग-माला" नामक दो ग्रंथ भी मिलते हैं [3]।
ग्रंथ "संगीत-सम्राट तानसेन" में उसके रचे हुए 288 ध्रुपदों का संकलन है। ये ध्रुपद विविध विषयों से संबंधित है। उनके अतिरिक्त उसके ग्रंथ "संगतिदार" और "रागमाला" भी संकलित हैं। यहाँ पर तानसेन कृत "कृष्ण लीला" के कुछ ध्रुपद उदाहरणार्था प्रस्तुत हैं-
- पलना-झूलन-
हमारे लला के सुरंग खिलौना, खेलत, खेलत कृष्ण कन्हैया।
अगर-चंदन कौ पलना बन्यौ है, हीरा-लाल-जवाहर जड़ैया॥
भँवरी-भँवरा, चट्टा-बट्टा, हंस-चकोर, अरू मोर-चिरैया॥
तानसेन प्रभु जसोमति झुलावै, दोऊ कर लेत बलैया।
- गो-चारन-
धौरी-ध्रुमर, पीयरी-काजर कहि-कहि टेंरै।
मोर मुकट सीस, स्त्रवन कुंडल कटि में पीतांबर पहिरै॥
ग्वाल-बाल सब सखा संग के, लै आवत ब्रज नैरै।
"तानसेन" प्रभु मुख रज लपटानी जसुमति निरखि मुख हैरै।
आजु हरि लियै अनहिली गैया, एक ही लकुटि सों हाँकी॥
ज्यों-ज्यों रोकी मोहन तुम सोई, त्यों-त्यों अनुराग हियं देखत मुखां की।
हम जो मनावत कहूँ तूम मानत, वे बतियाँ गढ़ि बॉकी॥
तृन नहीं चरत, बछरा नहीं चौखत की,
हम कहा जानै, को है कहाँ की।
तानसेन प्रभु वेगि दरस दीजै सब मंतर पढ़ि आँकी
[4]॥
प्रथम उठ भोरही राधे-किस्न कहो मन, जासों होवै सब सिद्ध काज।
इहि लोक परलोक के स्वामी, ध्यान धरौ ब्रजराज॥
पतित उद्धारन जन प्रतिपालन, दीनदयाल नाम लेत जाय दुख भाज।
"तानसेन" प्रभु कों सुमरों प्रातहिं, जग में रहै तेरी लाज॥
मुरली बजावै, आपन गावै, नैन न्यारे नंचावै, तियन के मन कों रिझावै।
दूर-दूर आवै पनघट,काहु के धटन दुरावै,रसना प्रेम जनावै॥
मोहिनी मूरत, सांवती सूरत, देखत ही मन ललचावै।
"तानसेन" के प्रभु तुम बहुनायक, सबहिंन के मन भावै॥
अकबर के नवरत्न
अकबर के नवरत्नों तथा मुग़लकालीन संगीतकारों में तानसेन का नाम परम-प्रसिद्ध है। यद्धपि काव्य-रचना की दृष्टि से तानसेन का योगदान विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता, परन्तु संगीत और काव्य के संयोग की दृष्टि से, जो भक्तिकालीन काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता थी, तानसेन साहित्य के इतिहास में अवश्य उल्लेखनीय हैं। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया कि जहांपनाह हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फ़र्क़ तो होगा न।
रचनाएँ
तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-
- 'संगीतसार',
- 'रागमाला' और
- 'श्रीगणेश स्तोत्र'।
मृत्यु
भारतीय संगीत के प्रसिद्ध गायक तानसेन की मृत्यु 1589 ई. में हुई। भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।
सहायक ग्रंथ
संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा: हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं. रामचन्द्र शुक्ल, अकबरी दरबार के हिन्दी कवि: डॉ. सरयू प्रसाद अग्रवाल।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(सहायक ग्रन्थ-
- संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा;
- हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं. रामचन्द्र शुक्ल:
- अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा. सरयू प्रसाद अग्रवाल।)
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