अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक इन्तिहा हर किसी की होती है दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक कोई जैसे कि अजनबी से मिले ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक जिसको आना है क्यूँ नहीं आता अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक