आलोचना (साहित्य)

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आलोचना शब्द 'लुच' धातु से बना है। 'लुच' का अर्थ होता है- 'देखना'। इसीलिए किसी वस्तु या कृतिकी सम्यक् व्याख्या, उसका मूल्यांकन आदि करना ही 'आलोचना' है- "आ समंतात् लोचनम् अवलोकनम् इति आलोचनम्। समीक्षा और समालोचना शब्दों का भी यही अर्थ है। अंग्रेज़ी के 'क्रिटिसिज्म' शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है। भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और काव्य-सिद्धांत आदि के निरूपण के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है, किन्तु आचार्य रामचंद्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि "आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धांत निरूपण से स्वतंत्र चीज़ है।

आलोचना का कार्य

आलोचक किसी कवि या लेखक की कृति को देखता है या परखता है। आलोचना कवि या लेखक और पाठक के बीच की श्रृंखला है। राजशेखर ने कविकर्म को प्रकाश में लाना ही भावयित्री प्रतिभा अथवा आलोचक की प्रतिभा कहा है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना। बाबू श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है-


"यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"

यानी कि 'आलोचना का कर्त्तव्य साहित्यिक कृति की विश्लेषणपरक व्याख्या है। साहित्यकार जीवन और अनुभव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य की रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है, वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शक्तियों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रूचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रूचि-अरूचि से तभी बच सकता है, जब वह पद्धति का अनुसरण करे। वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।


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