नौटंकी

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नौटंकी की एक झलक

'स्वाँग' और 'लीला' के समान ही नौटंकी भी लोक-नाट्य का प्रमुख रूप है। इसका प्रारम्भ मुग़ल काल से पहले का है। रासलीला के समान इसका रंगमंच भी अस्थिर, कामचलाऊ और निजी होता है। नौटंकी अत्यंत ही लोकप्रिय और प्रभावशाली लोककला है। यह लोककला जनमानस के मन से भीतर तक जुड़ी हुई है। नौटंकी को गाँवों वालों के लिए जानकारी प्रदान करने, सामाजिक कुरीतियों से परिचित कराने और सस्ता किंतु स्वस्थ मनोरंजन का ज्ञानवर्धक और मनोरंजक साधन माना जाता है। उत्तर प्रदेश के लगभग सभी बड़े शहरों - लखनऊ, आगरा, मेरठ, वाराणसी, गाज़ीपुर, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर, गोरखपुर, बलिया, मथुरा आदि में दर्जनों नौटंकी और थियेटर कम्पनियाँ थीं।

नौटंकी का अर्थ

नौटंकी, स्वाँग, भगत प्राय: पर्यायवाची हैं।

भगत

वस्तुत:भगत शब्द बताता है कि यह कभी भक्ति की अभिव्यक्ति का माध्यम होगी, किन्तु आज भगत में भक्ति का अथवा धार्मिक तत्त्व का स्थान उसके आरम्भिक अनुष्ठानों में अथवा आरम्भिक मंगलाचरण में रह गया है। आरम्भिक अनुष्ठान में साधारणत: शक्तिपूजा के अवशेष दिखाई पड़ते हैं।

स्वाँग

स्वाँग के साथ वह अनुष्ठान भी नहीं, केवल आरम्भिक सरस्वती वन्दना मिलती है। शेष स्वाँग का धार्मिकता से सामान्यत: कोई सम्बन्ध नहीं रहता। स्वाँग या भगत मूलत: संगीतरूपक है। इसमें यों तो कोई भी प्रसिद्ध लोककथा खेली जा सकती है, पर श्रृंगार रस प्रधान अथवा प्रेमगाथा की कोटि की रचनाएँ ही प्रधानता पाती रही हैं। प्रेमलीला अथवा रोमांच का संस्पर्श किसी न किसी रूप में होना ही चाहिए।

नौटंकी

नौटंकी में यों तो कोई भी प्रसिद्ध लोककथा खेली जा सकती है किंतु श्रृंगार रस प्रधान अथवा प्रेमगाथा की कोटि की रचनाएँ ही प्रधानता पाती रही हैं। प्रेमलीला अथवा रोमांच का संस्पर्श किसी न किसी रूप में होना ही चाहिए। इसी को नौटंकी भी कहा जाता है। नौटंकी मूलत: किसी प्रेम कहानी केवल नौ टंक तौलवाली कोमलांगी नायिका होगी। वही संगीत-रूपक में प्रस्तुत की गयी और वह रूप ऐसा प्रचलित हुआ कि अब प्रत्येक संगीत-रूपक या स्वाँग ही नौटंकी कहा जाने लगा है। भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में जिस सट्टक को नाटक का एक भेद माना है, इसके विषय में जयशंकर प्रसाद और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि सट्टक नौटंकी के ढंग के ही एक तमाशे का नाम है।

स्वरूप

नौटंकी में छोटे-छोटे बालक स्त्रियों का वेश धारण करते हैं और उनका अभिनय किया करते हैं। दृश्यों के अभाव में सूत्रधार मंच पर आकर दृश्यों के घटित होने के स्थान एवं समय और पात्रों के विषय में दर्शकों को सूचना दिया करता है। इनकी कथाओं का सम्बन्ध पौराणिक आख्यानों से न होकर लौकिक वीर, प्रणयी, साहसिक, भक्त पुरुषों के कार्यों से होता है। उन्हीं का प्रदर्शन इनमें किया जाता है। पंजाब में 'गोपीचन्द', 'पूरन भक्त' और 'हकीकतराय' का संगीत अत्यधिक लोकप्रिय है। एक ओर सीमित मात्रा में नृत्य, गायन, काव्य पाठ, कथा-पाठ, मूक अभिनय एवं हास्य के धागों से बुनी ऐतिहासिक, पौराणिक अथवा समसामयिक विषय पर केन्द्रित कथा-वस्तु की लोकशैली में प्रस्तुति, नौटंकी की विशेषता रही, तो दूसरी ओर भाषा, संगीत, कास्टयूम एवं चरित्र की दृष्टि से हिन्दू एवं मुस्लिम संस्कृति का समन्वय इसका स्वरूप। नौटंकी एवं नकल का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष रहा तो रामलीला, रासलीला का धार्मिक।[1]

आधुनिक स्वरूप

आज नौटंकी का रूप बदला हुआ है। इसका रंगमंच प्राय: उठाऊ और साधारण होता है, जिसका निर्माण खुले मैदान में लट्ठों, बाँसों और कपड़ों की चादरों से किया जाता है। दर्शकों के लिए दूर तक चाँदनी तान दी जाती है और रंगभूमि बड़े-बड़े तख्तों से बनायी जाती है। प्राय: एक परदे का व्यवहार किया जाता है, जो अभिनेताओं के रंग-भूमि में आने पर उठता है और उनके चले जाने पर गिरता है। कभी-कभी कार्य व्यापार चलते समय पात्रों का प्रवेश नेपथ्य अथवा मैदान से दर्शकों के बीच से होकर हो जाता है। इसका प्रेक्षागृह इतना बड़ा बनाया जाता है कि चाँदनी के नीचे सैकड़ों दर्शक बैठ जाएँ और न बैठ सकने पर पास के खुले मैदान को उपयोग में लाया जाता है। अब इसमें अनेक दृश्य होने लगे हैं, किन्तु प्रत्येक दृश्य की कार्य की सूचना सूत्रधार ही देता है। वही प्रारम्भ में लीला या कहानी के लेखक, पात्र तथा कथा आदि के विषय में दर्शकों को सूचना देता है और उनमें उनके प्रति उत्सुकता तथा जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है।

इतिहास

16वीं शताब्दी के प्रसिध्द इतिहासकार अबुल फज़ल की आइने अकबरी में नौटंकी का उल्लेख मिलता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि नौटंकी नामक शहजादी के नाम पर, एक गीत नाटय शहजादी नौटंकी की अपार लोकप्रियता ने इस विधा को नौटंकी नाम दिया। कुछ विद्वान् यह मानते हैं कि नाटक से नाटकी एवं नाटकी से नौटंकी नाम पड़ा। एक दृष्टिकोण यह भी है कि इसका टिकट नौटंकी होने के कारण इसका नाम नौटंकी नाम पड़ गया। कुछ विद्वान् यह मानते है कि मथुरा-वृन्दावन के भगत एवं रास एवं राजस्थान की ख्याल लोक विधा से ही नौटंकी का जन्म हुआ। स्वांग या संगीत एवं उत्तर भारत की रामलीला जैसी अन्य लोक विधाओं की लोकप्रियता कम नहीं रही, लेकिन अपने विविध आयामी स्वरूप के कारण नौटंकी ने जो लोकप्रियता प्राप्त की, वह अकल्पनीय है। ऐतिहासिक दृष्टि से नौटंकी विधा के 5 अखाड़े हैं। मुज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, कासगंज, कानपुर एवं हाथरस, किंतु नौटंकी के दो विशेष अखाड़े ही महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। हाथरस, मथुरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एवं कानपुर, लखनऊ मध्य उत्तर प्रदेश में।[2]

  • प्रसिद्ध नाटककार और कवि जयशंकर प्रसाद और हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि 'सट्टक' नौटंकी के भाँति एक तमाशे का नाम है। प्रसाद ने अपने निबंध 'रंगमंच' में नौटंकी को नाटक का अपभ्रंश माना है। प्रसाद का कहना है कि 'नौटंकी प्राचीन रागकाव्य या गीतिकाव्य की ही स्मृति है।'
  • हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, 'नौटंकी का वर्तमान रूप चाहे जितना आधुनिक हो, उसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं।'
  • रामबाबू सक्सेना ने अपनी पुस्तक 'तारीख़-ए-अदब-ए-उर्दू' में लिखा है कि 'नौटंकी लोकगीतों और उर्दू कविता के मिश्रण से पनपी है।'
  • कालिका प्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर' का मानना है कि 'नौटंकी का जन्म संभवतः ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुआ था।' 13वीं शताब्दी में अमीर खुसरो के प्रयत्न से नौटंकी को आगे बढ़ने का अवसर मिला। खुसरो ने अपनी रचनाओं में जिस भाषा का प्रयोग किया है, वैसी ही भाषा और उन्हीं के छंदों से मिलते-जुलते छंदों का प्रयोग नौटंकी में बढ़ने लगा।

कथानक

नौटंकी का कथानक प्रणय, वीरता, साहसपूर्ण घटनाओं से भरा रहता है। वह किसी लोकप्रसिद्ध वीर या साहसी या भागवत पुरुष की जीवन कथा पर अवलम्बित रहता है।

संबंधित लोककथा

नौटंकी, बेंगलोर

संगीत प्रधान लोकनाट्य के नौटंकी नाम के विषय में एक लोक प्रेमकथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि पंजाब के स्यालकोट के राजा राजोसिंह के छोटे बेटे फूलसिंह ने शिकार खेलकर लौटने पर भाभी से पीने के लिए पानी माँगा। भाभी ने पानी देने के स्थान पर व्यंग्य किया - 'जाओ, मुल्तान की राजकुमारी नौटंकी से शादी कर लो।' फूलसिंह मुल्तान पहुँच गया और शाही मालिन के द्वारा नौटंकी के पास एक हार भेज दिया। नौटंकी के पूछने पर मालिन ने कह दिया- 'मेरे भाँजे की वधू ने यह हार बनाया है।' नौटंकी ने जब उसे भाँजे की वधू को भेजने के लिए कहा, तो फूलसिंह स्त्री के वेश में नौटंकी के शयनकक्ष में पहुँच गया। रात में साथ सोने के क्रम में फूलसिंह का यह भेद खुल गया और अंततः दोनों की शादी हो गई।

पात्र चित्रण

नौटंकी में अनेक स्त्री-पुरुष पात्र होते हैं। स्त्री-पात्रों का अभिनय या तो विवाहिता या कुमारी स्त्रियाँ करती हैं अथवा वेश्याएँ करती हैं। वेश्याएँ दृश्यान्त में मंच पर आकर अपने नृत्य-गान, हाव-भाव, मुद्राओं से जनता का मनोरंजन करती हैं और नेपथ्य में अभिनेताओं को रूपसज्जा आदि करने का अवकाश देती हैं।

संगीत

रंगभूमि में एक ओर गायकों, वाद्य वादकों का समूह भी रहता है, जो अभिनय, संवाद, नृत्य की तीव्रता, उत्कटता बढ़ाता रहता है। तबला और नगाड़े का विशेष प्रयोग होता है। तबले के तालों और नगाड़े की चोबों की गूँज रात में मीलों सुनाई पड़ती है, जिसके आकर्षण से सोते हुए ग्रामीण भी नौटंकी देखने पहुँच जाते हैं।

हास्य और संवाद संयोजन

रुचि-वैचित्र्य के समाधान, स्वाद के परिवर्तन और शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए हास्यपूर्ण प्रसंगों की योजना रहती है, जिसमें नारी-पुरुष के रूप में पात्र प्रहसन प्रस्तुत करते हैं। प्राय: संवाद पद्यप्रधान होते हैं। अभिनेता मंच पर दर्शकों की ओर जा-जाकर उत्तर-प्रत्युत्तर देतें हैं और प्रश्न करते हैं। इस प्रकार संवाद प्राय: प्रश्नोत्तरात्मक होते हैं। उनमें उत्तेजना, साहस और दर्पपूर्ण उक्ति का बाहुल्य और प्रेम-प्रसंगों का आधिक्य रहता है। अधिकतर किसी वीर नायक को प्यार के फाँस में फँसा दिखाया जाता है, जिसके कारण उसका पतन हो जाता है।

उपदेशपूर्ण अंत

अन्त में परिणाम उपदेशपूर्ण दिखाया जाता है। 'सुल्तान डाकू' की नौटंकी उदाहरण के रूप में ली जा सकती है। जहाँ भक्तचरित को दिखाया जाता है, वहाँ भक्त के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ दिखाई जाती हैं। अन्त में उसकी विजय प्रदर्शित की जाती है। यद्यपि नौटंकी के समाप्त होने तक उद्देश्य प्रकट कर दिया जाता है, तथापि सूत्रधार अन्त में फिर मंच पर आकर भलाई करने और बुराई से बचने, सत्य-धर्म के निबाहने की शिक्षा देता है। प्रकाश की योजना आद्यन्त एक समान रहती है। नौटंकी के प्रारम्भ होने का समय रात के 8 बजे से और समाप्त होने का समय प्रात: पाँच बजे तक है। कभी-कभी कथा के विस्तार या जमी हुई भीड़ के कारण कार्यक्रम सूर्योदय तक चलता रहता है।

नौटंकी के लिए उचित समय

प्राय: नौटंकी कार्तिक, मार्गशीर्ष अथवा चैत्र, वैशाख के महीनों में हुआ करती है। मेलों के अवसरों पर इनका विशेष आयोजन होता है। उत्तर प्रदेश के मेलों का नौटंकी अभिन्न अंग होती है। इसके अतिरिक्त साप्ताहिक बाज़ारों में भी नौटंकी होती हैं।

प्रसिद्ध नौटंकी

नौटंकी की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश है। हाथरस और कानपुर इसके प्रधान केंद्र है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमी ज़िलों - फ़र्रुख़ाबाद, शाहजहाँपुर, कानपुर, एटा, इटावा, मैनपुरी, मेरठ, सहारनपुर आदि में इसका विशेष प्रचार है। उधर 'चिभुवन-मण्डली' की नौटंकी विशेष प्रसिद्ध है। ग्वालियर की नौटंकी भी प्रख्यात है। रासमण्डलियों के सदृश नौटंकी की भी मण्डलियाँ होती हैं, जो एक स्थान से दूसरे स्थानों पर घूम-घूमकर नौटंकी के प्रदर्शन किया करती हैं। नौटंकी ग्रामीण जनता की नाट्यवृत्तियों का समाधान करने वाले मुख्य साधनों में अत्यधिक महत्त्वशाली है। इस पर 'पारसी थियेटरों' तथा 'नाटकीय रंगमंच' का विशेष प्रभाव है। परन्तु आज चलचित्र के व्यापक प्रसार से इसकी वृद्धि और इसके प्रभाव में अन्तर आ गया है।

छंद

'नौटंकी', 'भगत' अथवा 'स्वाँग' का मुख्य छन्द चौबोला है। इस चौबोले के दो रूप मिलते हैं, एक छोटी तान का, दूसरी लम्बी तान का। प्रत्येक चौबोले का आरम्भ दोहे से होता है, जिसका अन्तिम चरण कुण्डलिया की भाँति आगे के चौबोले से कुण्डलित रहता है।

रंगमंच

इसके सहकारी वाद्यवृन्दों में 'नगाड़ा' अनिवार्य है। भगत का रंगमंच बल्लियों के स्तम्भ बनाकर आदमी से ऊँची बाड़ बाँधकर बनता है। बाड़ों की एक ऐसी वीथिका बनायी जाती है, जिसके बीच में स्थान ख़ाली रहता है। इन बाड़ों पर अभिनेता एक स्थान से चलकर चारों और घूम आता है। हर ओर उसे चौबोला दुहराना पड़ता है। स्वाँग का रंगमंच सादा होता है। भूमि से कुछ ऊँचा एक लम्बे-चौड़े तख्त जैसा चारों ओर खुला होता है। प्रसिद्ध स्वाँगों में स्याहपोश, अमरसिंह राठौर, पूरनमल, हरिश्चन्द्र आदि गिने जाते हैं।

भाषा

नौटंकी की भाषा में हिंदी, उर्दू, लोकभाषा एवं क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का अधिक प्रयोग होता है। नौटंकी के संवाद गद्य और पद्य दोनों में बोले जाते हैं। पात्रों के अनुसार भाषा का रूप भिन्न नहीं होता। नौटंकी की भाषा लाक्षणिक ना होकर सरल और सुबोध होती है। नौटंकी में बहरेतबील, चौबोला, दोहा, लावणी, सोरठा, दौड़ आदि छंदों का विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। नौटंकी के संगीत में नगाड़े का विशेष स्थान होता है। इसके अतिरिक्त ढोलक, डफ और हारमोनियम का भी प्रयोग किया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हमारी लोक विधा नौटंकी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 फ़रवरी, 2012।
  2. हमारी लोक विधा नौटंकी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 फ़रवरी, 2012।

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 357, 358।

बाहरी कड़ियाँ

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