रहिमन पानी राखिए -विद्यानिवास मिश्र

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रहिमन पानी राखिए -विद्यानिवास मिश्र
'रहिमन पानी राखिए' का आवरण पृष्ठ
'रहिमन पानी राखिए' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक रहिमन पानी राखिए
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 10 जून, 2006
ISBN 81-8143-493-5
देश भारत
पृष्ठ: 198
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

रहिमन पानी राखिए हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

विद्यानिवास मिश्र ने आजीवन एक अनथक जिज्ञासु की भाँति जीवन और ज्ञान के विवध क्षेत्रों को देखा-परखा। उनकी रुचि बहुआयामी थी, जिसके कारण वे एक सहृदय, रसिक, यात्री, तत्व विश्लेषक, संस्कृतिविद्, लोकविद् और न जाने कितने रूपों में हमारे सामने आते थे। उन्हें भारतीय संस्कृति और परम्परा का अगाध ज्ञान था, जिसे उन्होंने हमेशा पांडित्य के बोझ से मुक्त रखते हुए लोकग्राही बनाकर पाठकों के सामने रक्खा। वस्तुतः उन्होंने परम्परावादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी हमें अतीत और परम्परा के उन महत्वपूर्ण निधियों से परिचित कराया, जिससे युक्त होकर हमारी भविष्य दृष्टि को नींव मजबूत होती है। ‘रहिमन पानी राखिए’ उनकी ऐसी रचनाओं का संकलन है जो उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियों में उपलब्ध नहीं हैं। इसमें उनके, निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि शामिल हैं, जो अलग-अलग होते हुए भी पंडित जी के चिंतन-सूत्र से परस्पर जुड़कर एक समग्र परिदृश्य रचते हैं।

जल अव्यक्त अनंत आकार है, सरस्वती नाम उस अनन्त भावना का है, जो प्रसुप्त है हममें से प्रत्येक के भीतर, जो हममें से प्रत्येक को भाषा के माध्यम से, भाव के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ती है, यह बतलाती हुई कि तुम सब जीवन प्रवाह के अंग हो। पानी हमारे देश का जीवन है। प्रत्येक-व्यक्ति की लाचारी है कि एक पानी की छोटी धारा बने, प्रत्येक धारा की एक लाचारी है कि एक बड़े धारा की अंग बने, बड़ी धारा की लाचारी है एक अनंत में मिले, अनंत की भी लाचारी है कि हर प्रकाश से तपे बिन्दु बिन्दु खिंचे, कभी भाप बने, भाप बनकर बादल बने, कभी बस पूर्णिमा के दिन धवल फेनों की झालदार ज्वार-माला बन जाए। पानी होने का एक ही तो अर्थ है, दूसरे के लिए होना।

ऐसा पानी केवल द्रव नहीं है, वह दीप्ति भी है। हमारे देश के कविकुल गुरु कालिदास धूप को पानी के रूप में देखते हैं, साँझ होती है, झलमल रोशनी पेड़ों की चोटियों पर दिखती हैं, मोर उस रोशनी को बूँद-बूँद पीते हैं। अंधकार पूरब की ओर से गहराता हुआ आता है पर पश्चिम दिगंत में थोड़ी से रोशनी झलमलाती रहती है, ऐसा लगता है आकाश एक बड़ा मानसरोवर है जो सूख रहा है, क़रीब-क़रीब सूख भी गया है, बस थोड़ा-सा जल पश्चिम की ओर शेष रह गया है, सिमटती हुई धूप की यह प्यास जिस देश के कवि की होती है, मुहाविरा ही कुछ दूसरा होता है, यहाँ आँख में पानी भर जाए तो आदमी समाज में निंदा का पात्र बन जाता है, अगर मोती का पानी उतर जाए तो उसकी कोई कीमत नहीं लगती, अगर चूने का पानी मर जाए तो पान का रंग बिगाड़ दे, अगर तलवार में पानी न चढ़ाया जाए तो वह बस केवल एक पोशाक बनकर रह जाए, अगर आदमी अपने पानी की चिंता छोड़ दे तो उसको कोई भी पूछेगा नहीं। इस देश के रँग में पूरी तरह रँग कर ही रहीम ने कहा-

रहिमन पानी राखिए पानी बिन सब सून।

पानी गए न ऊबरैं, मोती मानुस चूर।।

हर जतन से पानी राखिए, पानी चले जाने पर फिर उबरने की कोई आशा नहीं रहती। कष्ट सहिए पर पानी राखिए।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रहिमन पानी राखिए (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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