समीक्षा

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समीक्षा अर्थात् अच्छी तरह देखना, जाँच करना- 'सम्यक ईक्षा या ईक्षणम्'। किसी वस्तु, रचना या विषय के सम्बंध में सम्यक ज्ञान प्राप्त करना, प्रत्येक तत्त्व का विवेचन करना समीक्षा है। यूरोप में ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी से इस प्रणाली का प्रचार माना जाता है।[1]

  • जब साहित्य के सम्बंध में उसकी उत्पत्ति, उसके स्वरूप, उसके विविध अंगों, गुण-दोष आदि विभिन्न तत्त्वों और पक्षों के सम्बंध में सम्यक विवेचन किया जाता है, तो उसे 'साहित्यिक समीक्षा' कहते है।
  • साहित्य के विविध तत्त्वों और रूपों का स्वयं दर्शन कर दूसरों के लिए उसे द्रष्टव्य बनाना ही समीक्षक का कर्म है। भारतवर्ष में राजशेखर ने अपनी 'काव्यमीमांसा' में साहित्य-समीक्षा का सूत्रपात किया था और औचित्यवादियों ने उसे व्यावहारिक रूप प्रदान दिया।
  • शास्त्र में समीक्षा का अर्थ है- "भाष्य के बीच प्रकृत विषय को छोड़कर दूसरे विषय पर विचार करना"। यद्यपि कुछ विद्वान 'चारों ओर से देखना', 'आलोचना' और 'सम्यक दृष्टि से ज्ञान प्राप्त करना' (समीक्षा) में अंतर उपस्थित करते है और 'समीक्षा' को अधिक व्यापक रूप प्रदान करते हैं, तो भी व्यावहारिक रूप में 'आलोचना' और 'समीक्षा' का प्रयोग लगभग एक ही अर्थ में होता है।
  • 'आलोचना' के अंतर्गत उन सब बातों पर विचार किया जाता है, जिन पर 'समीक्षा' के अंतर्गत किया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 732 |

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