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*[[अथर्ववेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में परिव्राजक संन्यासी के विद्वान्तों और आचरणों आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस उपनिषद के उपदेशक महर्षि [[नारद]] हैं।  
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*[[अथर्ववेद]] से सम्बन्धित इस उपनिषद में परिव्राजक सन्न्यासी के विद्वान्तों और आचरणों आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस उपनिषद के उपदेशक महर्षि [[नारद]] हैं।  
 
*इस उपनिषद के कुल नौ खण्ड हैं, जिन्हें उपदेश की संज्ञा प्रदान की गयी है।  
 
*इस उपनिषद के कुल नौ खण्ड हैं, जिन्हें उपदेश की संज्ञा प्रदान की गयी है।  
 
*नारद जी परिव्राजकों के सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं। उनके उपदेश ही उनके आचरण हैं।  
 
*नारद जी परिव्राजकों के सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं। उनके उपदेश ही उनके आचरण हैं।  
 
#प्रथम उपदेश में नारद जी [[शौनकादि]] ऋषियों को वर्णाश्रम धर्म का उपदेश देते हैं।  
 
#प्रथम उपदेश में नारद जी [[शौनकादि]] ऋषियों को वर्णाश्रम धर्म का उपदेश देते हैं।  
#दूसरा उपदेश में नारद जी शौनकादि ऋषियों को संन्यास-विधि का ज्ञान कराते हैं।  
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#दूसरा उपदेश में नारद जी शौनकादि ऋषियों को सन्न्यास-विधि का ज्ञान कराते हैं।  
#तीसरे उपदेश में नारद जी संन्यास के सच्चे अधिकारी का वर्णन करते हैं।  
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#तीसरे उपदेश में नारद जी सन्न्यास के सच्चे अधिकारी का वर्णन करते हैं।  
#चौथे उपदेश में संन्यास-धर्म के पालन का महत्त्व दर्शाया गया है।  
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#चौथे उपदेश में सन्न्यास-धर्म के पालन का महत्त्व दर्शाया गया है।  
#पांचवे उपदेश में संन्यास-धर्म ग्रहण करने की शास्त्रीय विधि का उल्लेख किया गया है। साथ ही संन्यासी के भेदों का भी वर्णन किया गया है।  
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#पांचवे उपदेश में सन्न्यास-धर्म ग्रहण करने की शास्त्रीय विधि का उल्लेख किया गया है। साथ ही सन्न्यासी के भेदों का भी वर्णन किया गया है।  
#छठे उपदेश में तुरीयातीत पद की प्राप्ति के उपाय तथा संन्यासी की जीवनचर्या पर प्रकाश डाला गया है।
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#छठे उपदेश में तुरीयातीत पद की प्राप्ति के उपाय तथा सन्न्यासी की जीवनचर्या पर प्रकाश डाला गया है।
#सातवें उपदेश में संन्यास-धर्म के सामान्य नियमों का तथा कुटीचक, बहूदक आदि संन्यासियों के लिए विशेष नियमों का उल्लेख किया गया है।  
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#सातवें उपदेश में सन्न्यास-धर्म के सामान्य नियमों का तथा कुटीचक, बहूदक आदि सन्न्यासियों के लिए विशेष नियमों का उल्लेख किया गया है।  
 
#आठवें उपदेश में 'प्रणव' अनुसन्धान के क्रम में उसे पाने का विस्तृत विवेचन किया गया है।  
 
#आठवें उपदेश में 'प्रणव' अनुसन्धान के क्रम में उसे पाने का विस्तृत विवेचन किया गया है।  
#नवें उपदेश में 'ब्रह्म' के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है। साथ ही आत्मवेत्ता संन्यासी के लक्षण बताकर उसके द्वारा परमपद-प्राप्ति की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। <br />
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#नवें उपदेश में 'ब्रह्म' के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है। साथ ही आत्मवेत्ता सन्न्यासी के लक्षण बताकर उसके द्वारा परमपद-प्राप्ति की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। <br />
 
<blockquote>'''अहं ब्रहृमास्मि''',अर्थात 'मैं ही ब्रह्म हूँ' का, जो दृढ़निश्चयी होकर 'ओंकार' का ध्यान करता है, वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का त्याग कर, अहंकार और मोह से मुक्त होकर, मोक्ष को प्राप्त करने वाला होता है।  
 
<blockquote>'''अहं ब्रहृमास्मि''',अर्थात 'मैं ही ब्रह्म हूँ' का, जो दृढ़निश्चयी होकर 'ओंकार' का ध्यान करता है, वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का त्याग कर, अहंकार और मोह से मुक्त होकर, मोक्ष को प्राप्त करने वाला होता है।  
 
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13:54, 2 मई 2015 का अवतरण

  • अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में परिव्राजक सन्न्यासी के विद्वान्तों और आचरणों आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस उपनिषद के उपदेशक महर्षि नारद हैं।
  • इस उपनिषद के कुल नौ खण्ड हैं, जिन्हें उपदेश की संज्ञा प्रदान की गयी है।
  • नारद जी परिव्राजकों के सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं। उनके उपदेश ही उनके आचरण हैं।
  1. प्रथम उपदेश में नारद जी शौनकादि ऋषियों को वर्णाश्रम धर्म का उपदेश देते हैं।
  2. दूसरा उपदेश में नारद जी शौनकादि ऋषियों को सन्न्यास-विधि का ज्ञान कराते हैं।
  3. तीसरे उपदेश में नारद जी सन्न्यास के सच्चे अधिकारी का वर्णन करते हैं।
  4. चौथे उपदेश में सन्न्यास-धर्म के पालन का महत्त्व दर्शाया गया है।
  5. पांचवे उपदेश में सन्न्यास-धर्म ग्रहण करने की शास्त्रीय विधि का उल्लेख किया गया है। साथ ही सन्न्यासी के भेदों का भी वर्णन किया गया है।
  6. छठे उपदेश में तुरीयातीत पद की प्राप्ति के उपाय तथा सन्न्यासी की जीवनचर्या पर प्रकाश डाला गया है।
  7. सातवें उपदेश में सन्न्यास-धर्म के सामान्य नियमों का तथा कुटीचक, बहूदक आदि सन्न्यासियों के लिए विशेष नियमों का उल्लेख किया गया है।
  8. आठवें उपदेश में 'प्रणव' अनुसन्धान के क्रम में उसे पाने का विस्तृत विवेचन किया गया है।
  9. नवें उपदेश में 'ब्रह्म' के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है। साथ ही आत्मवेत्ता सन्न्यासी के लक्षण बताकर उसके द्वारा परमपद-प्राप्ति की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।

अहं ब्रहृमास्मि,अर्थात 'मैं ही ब्रह्म हूँ' का, जो दृढ़निश्चयी होकर 'ओंकार' का ध्यान करता है, वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का त्याग कर, अहंकार और मोह से मुक्त होकर, मोक्ष को प्राप्त करने वाला होता है।

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