सिसोदिया राजवंश

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सन 712 ई० में अरबों ने सिंध पर आधिपत्य जमा कर भारत विजय का मार्ग प्रशस्त किया। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई सबल शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणों की बाढ ला दी और सन 725 ई० में जैसलमेर, मारवाड़, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम की तूती बोलने लगेगी। ऐसे समय में दो शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड़कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड़ के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई० में मेवाड़ में गुहिल वंश का वर्चश्व स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।

इतिहास

मेवाड़ का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड़ राज्य की केन्द्रीय सत्ता का उद्भव स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्यवंशी क्षत्रिय कहलाते थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड़ स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चूँकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिये इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपूताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड़ की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। अस्तु गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।

मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढ़ी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढ़ी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढ़ी में सुमित्र हुये। 155 वीं पीढ़ी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढ़ी में गुहिल हुए जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढ़ी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई० था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वो विश्वस्त प्रमाण नहीं है। कर्नल टॉड मानते है कि 145 ई० में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढ़ी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होंने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर (वर्तमान भावनगर) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची कर्नल टॉड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। 524 ई० में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई० के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टॉड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढ़ियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं - गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिसोदिया राजवंश एवं मेवाड़ (हिंदी) अंतर्राष्ट्रीय क्षत्रिय महासभा। अभिगमन तिथि: 6 जनवरी, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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