"जैमिनीय ब्राह्मण" के अवतरणों में अंतर

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यह मुख्यत: तीन भागों में विभिक्त है, जिसके प्रथम भाग में 360, द्वितीय भाग में 437 और तीसरे भाग में 385 खण्ड हैं। कुल खण्डों की संख्या है 1182। बड़ौदा के सूची-ग्रन्थ<ref>हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, प्रथम भाग, पृष्ठ 105</ref> में इसका एक अन्य परिमाण भी उल्लिखित है, जिसके अनुसार [[उपनिषद ब्राह्मण]] को मिलाकर इसमें 1427 खण्ड हैं। प्रपंचह्रदय के अनुसार इसमें 1348 खण्ड होने चाहिए। जैमिनीय ब्राह्मण के आरम्भ और अन्त में प्राप्य श्लोकों में जैमिनि की स्तुति की गई है।<ref>उज्जहारागमाम्भोधेर्यो धर्मामृतमञ्जसा।<br />  
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यह मुख्यत: तीन भागों में विभिक्त है, जिसके प्रथम भाग में 360, द्वितीय भाग में 437 और तीसरे भाग में 385 खण्ड हैं। कुल खण्डों की संख्या है 1182। बड़ौदा के सूची-ग्रन्थ<ref>हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, प्रथम भाग, पृष्ठ 105</ref> में इसका एक अन्य परिमाण भी उल्लिखित है, जिसके अनुसार [[उपनिषद ब्राह्मण]] को मिलाकर इसमें 1427 खण्ड हैं। प्रपंचहृदय के अनुसार इसमें 1348 खण्ड होने चाहिए। जैमिनीय ब्राह्मण के आरम्भ और अन्त में प्राप्य श्लोकों में जैमिनि की स्तुति की गई है।<ref>उज्जहारागमाम्भोधेर्यो धर्मामृतमञ्जसा।<br />  
 
न्यायैर्निर्मथ्य भगवान् स प्रसीदतु जैमिनि:॥<br />
 
न्यायैर्निर्मथ्य भगवान् स प्रसीदतु जैमिनि:॥<br />
 
सामाखिलं  सकलवेदगुरोर्मुनीन्द्राद् व्यासादवाप्य भुवि येन सहस्त्रशाखम्।<br />
 
सामाखिलं  सकलवेदगुरोर्मुनीन्द्राद् व्यासादवाप्य भुवि येन सहस्त्रशाखम्।<br />

14:43, 5 दिसम्बर 2010 का अवतरण

यह मुख्यत: तीन भागों में विभिक्त है, जिसके प्रथम भाग में 360, द्वितीय भाग में 437 और तीसरे भाग में 385 खण्ड हैं। कुल खण्डों की संख्या है 1182। बड़ौदा के सूची-ग्रन्थ[1] में इसका एक अन्य परिमाण भी उल्लिखित है, जिसके अनुसार उपनिषद ब्राह्मण को मिलाकर इसमें 1427 खण्ड हैं। प्रपंचहृदय के अनुसार इसमें 1348 खण्ड होने चाहिए। जैमिनीय ब्राह्मण के आरम्भ और अन्त में प्राप्य श्लोकों में जैमिनि की स्तुति की गई है।[2] जैमिनीय ब्राह्मण और ताण्डय ब्राह्मण की अधिकांश सामग्री समान है, अर्थात दोनों में ही सोमयागगत औदगात्रतन्त्र का निरूपण है, दोनों में ही प्रकृतियाग गवामयन (सत्र), एकाह, दशाह, अन्य विभिन्न एकाहों और अहीनयागों का प्रतिपादन हुआ है। किन्तु वर्ण्यविषयों की समानता होने पर भी दोनों के विवरण में विपुल अन्तर है। जैमिनीय ब्राह्मण में विषय-निरूपण अधिक विस्तार से है, जबकि ताण्ड्य में केवल अत्यन्त आवश्यक विवरण ही दिया गया है। आख्यानों की दृष्टि से भी जैमिनीय ब्राह्मण में विस्तार है, और कौथुमशाखीय ब्राह्मणों में संक्षेप। प्रतीत होता है कि संभवत: ताण्ड्यकार का अनुमान था कि उसके पाठक इन आख्यानों से पूर्वपरिचित हैं। जैमिनीय ब्राह्मण में ही वह सुप्रसिद्ध सूक्ति प्राप्त होती है, जिसका तात्पर्य है- ऊँचे मत बोलो, भुमि अथवा दीवार के भी कान होते है- मोच्चैरिति होवाच कर्णिनी वै भूमिरिति। डॉ. रघुवीर तथा लोकेशचन्द्र द्वारा सम्पादित तथा 1954 में सरस्वती बिहार, नई दिल्ली से प्रकाशित संस्करण ही उपलब्ध है।

विस्तार में देखें:- जैमिनिशाखीय ब्राह्मण

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हस्तलिखित ग्रन्थों का सूचीपत्र, प्रथम भाग, पृष्ठ 105
  2. उज्जहारागमाम्भोधेर्यो धर्मामृतमञ्जसा।
    न्यायैर्निर्मथ्य भगवान् स प्रसीदतु जैमिनि:॥
    सामाखिलं सकलवेदगुरोर्मुनीन्द्राद् व्यासादवाप्य भुवि येन सहस्त्रशाखम्।
    व्यक्तं समस्तमपि सुन्दरगीतरागं तं जैमिनिं तलवकारगुरुं नमामि॥

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