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*रघुवंश के अनुसार [[दिलीप]] रघुकुल के प्रथम राजा थे जिनके पुत्र [[रघु]] द्वितीय राजा थे। उन्नीस सर्गों में कालिदास ने राजा दिलीप, उनके पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र [[दशरथ]], दशरथ के पुत्र राम तथा राम के पुत्र [[लव कुश|लव]] और [[लव कुश|कुश]] के चरित्रों का वर्णन किया है।  
 
*रघुवंश के अनुसार [[दिलीप]] रघुकुल के प्रथम राजा थे जिनके पुत्र [[रघु]] द्वितीय राजा थे। उन्नीस सर्गों में कालिदास ने राजा दिलीप, उनके पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र [[दशरथ]], दशरथ के पुत्र राम तथा राम के पुत्र [[लव कुश|लव]] और [[लव कुश|कुश]] के चरित्रों का वर्णन किया है।  
 
*[[कुमार सम्भव]] और [[अभिज्ञान शाकुन्तलम्]] कालिदास की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं।
 
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रघुवंश कालिदास की सर्वाधिक प्रौढ़ काव्यकृति है। कुमारसम्भव की तुलना में इसका फलक विस्तीर्णतर है। अनेक चरित्रों और नाना घटनाप्रसंगों की वज्रसमुत्कीर्ण मणियों को कवि ने इसमें एक सूत्र में पिरों दिया है और उनके माध्यम से राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं, आस्थाओं और संस्कृति की महनीय उपलब्धियों की तथा समसामयिक सामंतीय समाज के अध:पतन की महागाथा उज्जवल पदावली में प्रस्तुत कर दी है। दिलीप और रघु जैसे उदात्त चरित्रों के आख्यान से आरम्भ कर राम के चरित्र को भी रघुवंश प्रस्तुत करता है और अग्निवर्ण जैसे विलासी राजा को भी।
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==कथावस्तु==
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प्रथम सर्ग राजा दिलीप के चरित्र-वर्णन से प्रारम्भ होता है। पुत्रविहीन राजा दिलीप अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित पुत्रलाभ की कामना से कुलगुरु वसिष्ठ के आश्रम में जाते हैं। वसिष्ठ उनकी व्यथा का कारण जान अपने आश्रम में निवास करने वाली कामधेनु पुत्री नन्दिनी नामक गौ की सेवा का परामर्श देते हैं। द्वितीय सर्ग राजा दिलीप की गोभक्ति-परायणता प्रस्तुत करता है। राजा पत्नी सुदक्षिणा सहित एकाग्रचित्त से नन्दिनी की सेवा में संलग्न हो जाते हैं। कुछ काल व्यतीत होने पर नन्दिनी राजा के भक्ति-भाव की परीक्षा लेने को उद्यत होती है। वह चरती हुई, हिमालय पर्वत की कन्दरा में प्रविष्ट हो जाती है, गुफा में एक सिंह नन्दिनी पर आक्रमण करता है। राजा नन्दिनी को मुक्त करने  लिए सिंह से याचना करते है। सिंह राजा का शरीर लेकर गाय को मुक्त करने को तैयार हो जाता है। राजा सिंह के समक्ष स्वशरीर अर्पण कर देते हैं। नन्दिनी राजा के इस भक्तिभाव से प्रसन्न हो पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद देती है और अपना दुग्ध पीने का निर्देश देती है। राजा आश्रम में लौट कर महर्षि वसिष्ठ को सम्पूर्ण वृतांत से अवगत करा, गुरु की अनुमति से गाय का दूध पीते हैं तथा उद्देश्य की पूर्ति से प्रसन्न राजधानी लौट आते हैं। तृतीय सर्ग में रघु के जन्म, वर्धन, यौवराज्य का वर्णन है। अश्वमेध यज्ञायोजन कर रघु पिता दिलीप से राज्य ग्रहण करते हैं। दिलीप एवं सुदक्षिणा पुत्र को राज्य देकर तपोवन में सन्यास हेतु प्रस्थान करते हैं। चतुर्थ सर्ग में रघु-दिग्विजय के अनंतर विश्वजित यज्ञ की सम्पन्नता वर्णित है। पञ्चम सर्ग रघु की दानशीलता से परिपूर्ण है, उनका राजकोष असीमित दानवृत्ति से रिक्त हो चुका है, इसी समय कौत्स नामक एक ब्रह्मचारी, गुरुदक्षिणा हेतु चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राओं की याचना ले सभा में उपस्थित होता है। धनवेद कुबेर रघु के आक्रमण के भय से स्वर्णमुद्राओं की वर्षा करते हैं, ब्रह्मचारी कौत्स अभीष्ट मात्रा में स्वर्णमुद्राएं लेकर राजा को पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं। छठे सर्ग में रघुपुत्र अज का जन्म एवं विदर्भ राजकन्या इन्दुमती से स्वयंवर विवाह का चित्रण है। अनेक देशों के भूपति स्वयंवर में उपस्थित हैं, किंतु एक गन्धर्व से प्राप्त सम्मोहन नामक अस्त्र की महिमा से अज ही इन्दुमती को आकृष्ट करते हैं और वरमाला उनके ही गले पड़ती है। विभिन्न देशों से आगत राजाओं के प्रसंग में अनेक व्यक्तिगत गुणों, वंशावली, शौर्य, समृद्धि और विशेषरूप से राज्य की भौगोलिक सीमाओं का समुचित वर्णन है। सप्तम सर्ग अज के नगरभ्रमण एवं इन्दुमती सहित अज के स्वनगर प्रस्थान को प्रस्तुत करता है। अष्टम सर्ग रघु के राज्यत्याग, दशरथ की उत्पत्ति, इन्दुमती की मृत्यु, अज के विलाप एवं शरीरत्याग से परिपूर्ण है। नवम सर्ग दशरथ-प्रशंसा से आरम्भ है। आखेटकाल में श्रवणवध इसी सर्ग का अंश है। दशम सर्ग में राम आदि चारों भाइयों के जन्म की कथा और शैशव की लीलाएं चित्रित हैं। ग्यारहवां सर्ग विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण के वन-गमन, धनुषयज्ञदर्शन हेतु मिथिला प्रस्थान, धनुष भञ्जन, चारों भाइयों का सीता इत्यादि बहिनों से विवाह, परशुराम संवाद आख्यानों को प्रस्तुत करता है। बारहवें सर्ग में राजतिलक,माँ कैकेयी द्वारा वर माँगना, राम-लक्ष्मण व सीता का वनप्रस्थान, शूर्पणखा के नाक-कान काटना, सीता-हरण, वानरराज सुग्रीव का राज्याभिषेक, राम-रावण युद्ध एवं रावण की राम के द्वारा पराजय-कथा है। तेरहवां सर्ग राम-सीता व लक्ष्मण के पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या प्रत्यागमन तथा भरतमिलन का चित्रण है। चौदहवां सर्ग सीता-गर्भ-धारण एवं राम द्वारा सीता-परित्याग, लक्ष्मण का सीता को वाल्मीकि आश्रम में पहुँचाने के वृत्तांत को प्रस्तुत करता है। पन्द्रहवां सर्ग अश्वमेधयज्ञ, लवकुश-जन्म, श्म्बूकवध, पृथ्वी का सीता को स्वयं में समाहित कर लेना तथा राम के स्वर्गगमन तक की कथा से समाप्त होता है। सोलहवें सर्ग से राम के वंशजों लव-कुश इत्यादि भ्राताओं का राज्य-शासन, परिणय, अयोध्या की नगरदेवी द्वारा याचना किये जाने पर कुश का अयोध्या में शासनसूत्र संभालना, कुश का रानियों के साथ जल-क्रीड़ा का सुन्दर चित्रण उपलब्ध होता है। सत्रहवें सर्ग में कुशपुत्र अतिथि के पराक्रम एवं यशोगाथा का वर्णन है। अठारहवें सर्ग में अतिथिपुत्र निषध, निषधपुत्र नल, नलपुत्र पुण्डरीक, पुण्डरीकपुत्र  क्षेमधंवा,  क्षेमधंवापुत्र देवानीक, देवानीकपुत्र अहीनग, अहीनगपुत्र पारियात्र, परियात्रपुत्र शिल, शिलपुत्र उन्नाभ, उन्नाभपुत्र वज्रनाभ, वज्रनाभपुत्र शंखण, शंखणपुत्र व्युषिताश्व, व्युषिताश्वपुत्र विश्वसह,  विश्वसहपुत्र हिरण्यनाभ, हिरण्यनाभपुत्र कौशल्य, कौशल्यपुत्र पुष्य, पुष्यपुत्र ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धिपुत्र सुदर्शन-समग्र वंशावली राजाओं के गुण परिचय को भी प्रस्तुत करती है। उन्नीसवां सर्ग सूर्यवंश के अंतिम नृपति अग्निवर्ण के कामुक जीवन के भरपूर  विलास का चित्रण करता है, अत्यधिक विलासी जीवन के परिणाम स्वरूप अग्निवर्ण क्षयरोग से पीड़ित हुआ। रोग के प्रभाव से दिन प्रतिदिन दुर्बल होकर निस्संतान मृत्यु को प्राप्त हुआ। मृत्यु के पश्चात प्रधान महिषी (गर्भवती) ने राज्य-भार संभाला और मंत्रियों के परामर्श से राज्य को सुव्यस्थित किया।
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==कथा स्त्रोत==
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रघुवंश के स्त्रोत के लिए कालिदास महर्षि वाल्मीकि के प्रति विशेष श्रद्धाभाव रखते वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड, तीसरे सर्ग के नवें श्लोक तथा युद्धकाण्ड के प्रथम सर्ग के ग्यारहवें श्लोक में रघुवंश शब्द का प्रयोग हुआ है और चतुरचितेरे कालिदास ने ग्रंथ का नामकरण के लिए वहीं से शब्द ग्रहण कर लिया है।
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नवम सर्ग से पन्द्रहवें सर्ग तक कालिदास ने रामकथा के गान हेतु वाल्मीकि रामायण को आधार माना है। पन्द्रहवें सर्ग में वाल्मीकि को आदिकवि की अभिधा से सम्बोधित कर कवि ने मानो इसी तथ्य का संकेत दिया है-
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  <poem>वृत्तं रामस्य वाल्मीके: कृतिस्तौ किन्नरस्वनौ।
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  किं तद्येन मनो हर्तुमलं स्यातां न शृण्वताम॥
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  तद्गीतश्रवणणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
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  हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निर्वातेव वनस्थली॥<ref> (रघुवंश 15.64, 66)</ref></poem>
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*सम्प्रति उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में लगभग 24,00 श्लोक हैं, जिनमें से कालिदास ने स्वावश्यकतानुरूप सामग्री ग्रहण की है, कुछ का स्पर्श किया है तो कुछ का नामोल्लेख मात्र। वाल्मीकि रामायण में वर्णित संक्षिप्त प्रसंगों का विस्तार एवं विस्तृत प्रसंगों का संक्षिप्तीकरण कवि की तूलिका का चमत्कार है। महत्त्वपूर्ण दृश्यांकन में वे चूके नहीं हैं और प्राञ्जलता के चित्रण में वे पीछे नहीं हटे हैं।
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*यह भी सम्भव है कि कालिदास के व्यक्तिगत पुस्तकालय में रामायण के अतिरिक्त सूर्यवंशसम्बन्द्ध अन्य साहित्य सञ्चित रहा हो। निश्चित रूप से कवि ने राजाओं की सूची एवं तत्सम्बद्ध आख्यान अनेक स्त्रोतों से ग्रहण किये हैं, किंतु उनके द्वारा प्रयुक्त ये अनेक स्त्रोत अभी अन्धकार में हैं। पुराणों में भी सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली मिलती है यद्यपि उस नामावली एवं रघुवंश की नामावली में पर्याप्त भेद है और उनके चरित व वैयक्तिक गुणों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। नामावली का आधार विष्णुपुराण एवं सर्ग 14 की विषयवस्तु आ आधार पद्मपुराण को माना जा सकता है।
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*महाकवि भास के 'प्रतिमानाटक' में और महाकवि कालिदास के 'रघुवंश' में दिलीप से लेकर राम तक का क्रम एक समान है। अत: सम्भव है दोनों कवियों की उपजीव्य सामग्री समान हो। रघुवंश के अठारहवें सर्ग में कवि द्वारा इक्कीस राजाओं का नामोल्लेख मात्र कर देना इस तथ्य का द्योतक है कि को इन नरेशों के विषय में पर्याप्त सामग्री नहीं मिल सकी। अपूर्ण सामग्री को यथास्वरूप अगाध पाण्डित्य के भार से आक्रांत कर कवि जितना वाग्वैदग्ध्य प्रस्तुत किया सका, वह अतुलनीय व प्रशंसनीय है।
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14:06, 30 जून 2011 का अवतरण

रघुवंश
  • कालिदास की कृतियों के क्रम में रघुवंश महाकाव्य का तीसरा स्थान है। प्रथम दो कृतियां हैं- कुमारसंभव और मेघदूत।
  • रघुवंश कालिदास रचित महाकाव्य है। इसमें उन्नीस सर्ग हैं जिनमें रघुकुल के इतिहास का वर्णन किया गया है।
  • महाराज रघु के प्रताप से उनके कुल का नाम रघुकुल पड़ा। रघुकुल में ही राम का जन्म हुआ था।
  • रघुवंश के अनुसार दिलीप रघुकुल के प्रथम राजा थे जिनके पुत्र रघु द्वितीय राजा थे। उन्नीस सर्गों में कालिदास ने राजा दिलीप, उनके पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र दशरथ, दशरथ के पुत्र राम तथा राम के पुत्र लव और कुश के चरित्रों का वर्णन किया है।
  • कुमार सम्भव और अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं।

रघुवंश कालिदास की सर्वाधिक प्रौढ़ काव्यकृति है। कुमारसम्भव की तुलना में इसका फलक विस्तीर्णतर है। अनेक चरित्रों और नाना घटनाप्रसंगों की वज्रसमुत्कीर्ण मणियों को कवि ने इसमें एक सूत्र में पिरों दिया है और उनके माध्यम से राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं, आस्थाओं और संस्कृति की महनीय उपलब्धियों की तथा समसामयिक सामंतीय समाज के अध:पतन की महागाथा उज्जवल पदावली में प्रस्तुत कर दी है। दिलीप और रघु जैसे उदात्त चरित्रों के आख्यान से आरम्भ कर राम के चरित्र को भी रघुवंश प्रस्तुत करता है और अग्निवर्ण जैसे विलासी राजा को भी।

कथावस्तु

प्रथम सर्ग राजा दिलीप के चरित्र-वर्णन से प्रारम्भ होता है। पुत्रविहीन राजा दिलीप अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित पुत्रलाभ की कामना से कुलगुरु वसिष्ठ के आश्रम में जाते हैं। वसिष्ठ उनकी व्यथा का कारण जान अपने आश्रम में निवास करने वाली कामधेनु पुत्री नन्दिनी नामक गौ की सेवा का परामर्श देते हैं। द्वितीय सर्ग राजा दिलीप की गोभक्ति-परायणता प्रस्तुत करता है। राजा पत्नी सुदक्षिणा सहित एकाग्रचित्त से नन्दिनी की सेवा में संलग्न हो जाते हैं। कुछ काल व्यतीत होने पर नन्दिनी राजा के भक्ति-भाव की परीक्षा लेने को उद्यत होती है। वह चरती हुई, हिमालय पर्वत की कन्दरा में प्रविष्ट हो जाती है, गुफा में एक सिंह नन्दिनी पर आक्रमण करता है। राजा नन्दिनी को मुक्त करने लिए सिंह से याचना करते है। सिंह राजा का शरीर लेकर गाय को मुक्त करने को तैयार हो जाता है। राजा सिंह के समक्ष स्वशरीर अर्पण कर देते हैं। नन्दिनी राजा के इस भक्तिभाव से प्रसन्न हो पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद देती है और अपना दुग्ध पीने का निर्देश देती है। राजा आश्रम में लौट कर महर्षि वसिष्ठ को सम्पूर्ण वृतांत से अवगत करा, गुरु की अनुमति से गाय का दूध पीते हैं तथा उद्देश्य की पूर्ति से प्रसन्न राजधानी लौट आते हैं। तृतीय सर्ग में रघु के जन्म, वर्धन, यौवराज्य का वर्णन है। अश्वमेध यज्ञायोजन कर रघु पिता दिलीप से राज्य ग्रहण करते हैं। दिलीप एवं सुदक्षिणा पुत्र को राज्य देकर तपोवन में सन्यास हेतु प्रस्थान करते हैं। चतुर्थ सर्ग में रघु-दिग्विजय के अनंतर विश्वजित यज्ञ की सम्पन्नता वर्णित है। पञ्चम सर्ग रघु की दानशीलता से परिपूर्ण है, उनका राजकोष असीमित दानवृत्ति से रिक्त हो चुका है, इसी समय कौत्स नामक एक ब्रह्मचारी, गुरुदक्षिणा हेतु चौदह करोड़ स्वर्णमुद्राओं की याचना ले सभा में उपस्थित होता है। धनवेद कुबेर रघु के आक्रमण के भय से स्वर्णमुद्राओं की वर्षा करते हैं, ब्रह्मचारी कौत्स अभीष्ट मात्रा में स्वर्णमुद्राएं लेकर राजा को पुत्र-प्राप्ति का आशीर्वाद देते हैं। छठे सर्ग में रघुपुत्र अज का जन्म एवं विदर्भ राजकन्या इन्दुमती से स्वयंवर विवाह का चित्रण है। अनेक देशों के भूपति स्वयंवर में उपस्थित हैं, किंतु एक गन्धर्व से प्राप्त सम्मोहन नामक अस्त्र की महिमा से अज ही इन्दुमती को आकृष्ट करते हैं और वरमाला उनके ही गले पड़ती है। विभिन्न देशों से आगत राजाओं के प्रसंग में अनेक व्यक्तिगत गुणों, वंशावली, शौर्य, समृद्धि और विशेषरूप से राज्य की भौगोलिक सीमाओं का समुचित वर्णन है। सप्तम सर्ग अज के नगरभ्रमण एवं इन्दुमती सहित अज के स्वनगर प्रस्थान को प्रस्तुत करता है। अष्टम सर्ग रघु के राज्यत्याग, दशरथ की उत्पत्ति, इन्दुमती की मृत्यु, अज के विलाप एवं शरीरत्याग से परिपूर्ण है। नवम सर्ग दशरथ-प्रशंसा से आरम्भ है। आखेटकाल में श्रवणवध इसी सर्ग का अंश है। दशम सर्ग में राम आदि चारों भाइयों के जन्म की कथा और शैशव की लीलाएं चित्रित हैं। ग्यारहवां सर्ग विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण के वन-गमन, धनुषयज्ञदर्शन हेतु मिथिला प्रस्थान, धनुष भञ्जन, चारों भाइयों का सीता इत्यादि बहिनों से विवाह, परशुराम संवाद आख्यानों को प्रस्तुत करता है। बारहवें सर्ग में राजतिलक,माँ कैकेयी द्वारा वर माँगना, राम-लक्ष्मण व सीता का वनप्रस्थान, शूर्पणखा के नाक-कान काटना, सीता-हरण, वानरराज सुग्रीव का राज्याभिषेक, राम-रावण युद्ध एवं रावण की राम के द्वारा पराजय-कथा है। तेरहवां सर्ग राम-सीता व लक्ष्मण के पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या प्रत्यागमन तथा भरतमिलन का चित्रण है। चौदहवां सर्ग सीता-गर्भ-धारण एवं राम द्वारा सीता-परित्याग, लक्ष्मण का सीता को वाल्मीकि आश्रम में पहुँचाने के वृत्तांत को प्रस्तुत करता है। पन्द्रहवां सर्ग अश्वमेधयज्ञ, लवकुश-जन्म, श्म्बूकवध, पृथ्वी का सीता को स्वयं में समाहित कर लेना तथा राम के स्वर्गगमन तक की कथा से समाप्त होता है। सोलहवें सर्ग से राम के वंशजों लव-कुश इत्यादि भ्राताओं का राज्य-शासन, परिणय, अयोध्या की नगरदेवी द्वारा याचना किये जाने पर कुश का अयोध्या में शासनसूत्र संभालना, कुश का रानियों के साथ जल-क्रीड़ा का सुन्दर चित्रण उपलब्ध होता है। सत्रहवें सर्ग में कुशपुत्र अतिथि के पराक्रम एवं यशोगाथा का वर्णन है। अठारहवें सर्ग में अतिथिपुत्र निषध, निषधपुत्र नल, नलपुत्र पुण्डरीक, पुण्डरीकपुत्र क्षेमधंवा, क्षेमधंवापुत्र देवानीक, देवानीकपुत्र अहीनग, अहीनगपुत्र पारियात्र, परियात्रपुत्र शिल, शिलपुत्र उन्नाभ, उन्नाभपुत्र वज्रनाभ, वज्रनाभपुत्र शंखण, शंखणपुत्र व्युषिताश्व, व्युषिताश्वपुत्र विश्वसह, विश्वसहपुत्र हिरण्यनाभ, हिरण्यनाभपुत्र कौशल्य, कौशल्यपुत्र पुष्य, पुष्यपुत्र ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धिपुत्र सुदर्शन-समग्र वंशावली राजाओं के गुण परिचय को भी प्रस्तुत करती है। उन्नीसवां सर्ग सूर्यवंश के अंतिम नृपति अग्निवर्ण के कामुक जीवन के भरपूर विलास का चित्रण करता है, अत्यधिक विलासी जीवन के परिणाम स्वरूप अग्निवर्ण क्षयरोग से पीड़ित हुआ। रोग के प्रभाव से दिन प्रतिदिन दुर्बल होकर निस्संतान मृत्यु को प्राप्त हुआ। मृत्यु के पश्चात प्रधान महिषी (गर्भवती) ने राज्य-भार संभाला और मंत्रियों के परामर्श से राज्य को सुव्यस्थित किया।

कथा स्त्रोत

रघुवंश के स्त्रोत के लिए कालिदास महर्षि वाल्मीकि के प्रति विशेष श्रद्धाभाव रखते वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड, तीसरे सर्ग के नवें श्लोक तथा युद्धकाण्ड के प्रथम सर्ग के ग्यारहवें श्लोक में रघुवंश शब्द का प्रयोग हुआ है और चतुरचितेरे कालिदास ने ग्रंथ का नामकरण के लिए वहीं से शब्द ग्रहण कर लिया है। नवम सर्ग से पन्द्रहवें सर्ग तक कालिदास ने रामकथा के गान हेतु वाल्मीकि रामायण को आधार माना है। पन्द्रहवें सर्ग में वाल्मीकि को आदिकवि की अभिधा से सम्बोधित कर कवि ने मानो इसी तथ्य का संकेत दिया है-

वृत्तं रामस्य वाल्मीके: कृतिस्तौ किन्नरस्वनौ।
  किं तद्येन मनो हर्तुमलं स्यातां न शृण्वताम॥
  तद्गीतश्रवणणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
  हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निर्वातेव वनस्थली॥[1]

  • सम्प्रति उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में लगभग 24,00 श्लोक हैं, जिनमें से कालिदास ने स्वावश्यकतानुरूप सामग्री ग्रहण की है, कुछ का स्पर्श किया है तो कुछ का नामोल्लेख मात्र। वाल्मीकि रामायण में वर्णित संक्षिप्त प्रसंगों का विस्तार एवं विस्तृत प्रसंगों का संक्षिप्तीकरण कवि की तूलिका का चमत्कार है। महत्त्वपूर्ण दृश्यांकन में वे चूके नहीं हैं और प्राञ्जलता के चित्रण में वे पीछे नहीं हटे हैं।
  • यह भी सम्भव है कि कालिदास के व्यक्तिगत पुस्तकालय में रामायण के अतिरिक्त सूर्यवंशसम्बन्द्ध अन्य साहित्य सञ्चित रहा हो। निश्चित रूप से कवि ने राजाओं की सूची एवं तत्सम्बद्ध आख्यान अनेक स्त्रोतों से ग्रहण किये हैं, किंतु उनके द्वारा प्रयुक्त ये अनेक स्त्रोत अभी अन्धकार में हैं। पुराणों में भी सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली मिलती है यद्यपि उस नामावली एवं रघुवंश की नामावली में पर्याप्त भेद है और उनके चरित व वैयक्तिक गुणों पर प्रकाश नहीं डाला गया है। नामावली का आधार विष्णुपुराण एवं सर्ग 14 की विषयवस्तु आ आधार पद्मपुराण को माना जा सकता है।
  • महाकवि भास के 'प्रतिमानाटक' में और महाकवि कालिदास के 'रघुवंश' में दिलीप से लेकर राम तक का क्रम एक समान है। अत: सम्भव है दोनों कवियों की उपजीव्य सामग्री समान हो। रघुवंश के अठारहवें सर्ग में कवि द्वारा इक्कीस राजाओं का नामोल्लेख मात्र कर देना इस तथ्य का द्योतक है कि को इन नरेशों के विषय में पर्याप्त सामग्री नहीं मिल सकी। अपूर्ण सामग्री को यथास्वरूप अगाध पाण्डित्य के भार से आक्रांत कर कवि जितना वाग्वैदग्ध्य प्रस्तुत किया सका, वह अतुलनीय व प्रशंसनीय है।


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  1. (रघुवंश 15.64, 66)