अशोक का परिवार
अशोक का परिवार
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पूरा नाम | राजा[1] प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय अशोक मौर्य |
अन्य नाम | 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी'[2] |
जन्म | 304 ईसा पूर्व (संभावित) |
जन्म भूमि | पाटलिपुत्र (पटना) |
मृत्यु तिथि | 232 ईसा पूर्व |
मृत्यु स्थान | पाटलिपुत्र, पटना |
पिता/माता | बिन्दुसार, सुभद्रांगी (उत्तरी परम्परा), रानी धर्मा (दक्षिणी परम्परा) |
पति/पत्नी | (1) देवी (वेदिस-महादेवी शाक्यकुमारी), (2) कारुवाकी (द्वितीय देवी तीवलमाता), (3) असंधिमित्रा- अग्रमहिषी, (4) पद्मावती, (5) तिष्यरक्षिता[3] |
संतान | देवी से- पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा और पुत्री चारुमती, कारुवाकी से- पुत्र तीवर, पद्मावती से- पुत्र कुणाल (धर्मविवर्धन) और भी कई पुत्रों का उल्लेख है। |
उपाधि | राजा[1], 'देवानाम्प्रिय' एवं 'प्रियदर्शी' |
राज्य सीमा | सम्पूर्ण भारत |
शासन काल | ईसापूर्व 274[3] - 232 |
शा. अवधि | 42 वर्ष लगभग |
राज्याभिषेक | 272[4] और 270[3] ईसा पूर्व के मध्य |
धार्मिक मान्यता | हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म |
प्रसिद्धि | अशोक महान, साम्राज्य विस्तारक, बौद्ध धर्म प्रचारक |
युद्ध | सम्राट बनने के बाद एक ही युद्ध लड़ा 'कलिंग-युद्ध' (262-260 ई.पू. के बीच) |
निर्माण | भवन, स्तूप, मठ और स्तंभ |
सुधार-परिवर्तन | शिलालेखों द्वारा जनता में हितकारी आदेशों का प्रचार |
राजधानी | पाटलिपुत्र (पटना) |
पूर्वाधिकारी | बिन्दुसार (पिता) |
वंश | मौर्य |
संबंधित लेख | अशोक के शिलालेख, मौर्य काल आदि |
अशोक अथवा 'असोक' प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश का राजा था। अशोक का देवानाम्प्रिय एवं प्रियदर्शी आदि नामों से भी उल्लेख किया जाता है। श्रीलंका की परम्परा में [5] बिंदुसार की सोलह पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख है। पुत्रों में केवल तीन के नामोल्लेख हैं, वे हैं - सुमन [6] जो सबसे बड़ा था, अशोक और तिष्य। तिष्य अशोक का सहोदर भाई और सबसे छोटा था। उत्तरी परम्पराओं में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी[7] मिलता है, जिसे चम्पा के एक ब्राह्मण की रूपवती कन्या बतलाया गया है। इससे बिंदुसार को एक दूसरा पुत्र भी हुआ था, जिसका नाम विगताशोक (वीताशोक) था ना कि तिष्य जैसा कि लंका की परम्परा में आता है। दक्षिण की परम्परा में उसकी माता का नाम 'धर्मा' आया है। धर्मा को अग्रमहिषी (अग्ग-महेसी)[8] कहा गया है। उसके परिवार के गुरु का नाम 'जनसान' था, जो कि 'आजीविक' साधु था। इससे इस बात का खुलासा हो जाता है कि अशोक आजीविकों को आश्रय क्यों देता था। धर्मा का जन्म मोरियों के क्षत्रिय वंश में हुआ था।[9]
सिंहासन के लिए रक्तपात
उस काल की परिपाटी के अनुसार साम्राज्य के एक दूर के प्रांत में अशोक को वाइसराय के रूप में नियुक्त किया गया था। यह प्रांत पश्चिमी भारत में था, जिसका नाम 'अवंतिरट्टम्'[10] था। लंका की परम्परा के अनुसार इसकी राजधानी 'उज्जैन' थी, पर भारतीय परम्परा के अनुसार वह उत्तरापथ [11] में स्वशों[12] के राज्य में वाइसराय था, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। यहाँ अशोक को अस्थायी रूप में तब भेजा गया था, जब सुसीम तक्षशिला में विद्रोह का दमन न कर पाया था। यह विद्रोह सुसीम के कुप्रबंध के कारण हुआ था। तक्षशिला में सुसीम के समय में ही एक दूसरा विद्रोह उस समय हुआ था, जब पाटलिपुत्र का सिंहासन रिक्त हुआ, सुसीम इस विद्रोह को भी शांत ना कर सका, जब अशोक ने अवसर का लाभ उठा कर मंत्री 'राधागुप्त' की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर लिया। सिंहासन को लेकर सुसीम से अशोक का युद्ध हुआ, जिसमें सुसीम मारा गया। [13]
- दिव्यावदान[14] में भी अशोक के बारे में बुद्ध की एक भविष्यवाणी का उल्लेख है जिसमें भगवान ने कहा था कि यह धर्मात्मा राजा उनकी धातुओं पर 84000 धर्म्राजिक बनवायेगा।[15] लेकिन सिंहल की कथाओं में उत्तराधिकार की घटना एक दूसरे ही रूप में वर्णित है। इसमें अशोक ने उज्जैन से सिंहासन प्राप्त किया। उसकी नियुक्ति वहीं थी। काफ़ी समय से वह उज्जैन में ही वाइसराय था। अशोक ने उत्तराधिकार के इस युद्ध में तिष्य को छोड़कर सभी भाइयों का वध कर दिया।
परिवार के सदस्य
कतिपय लेखों में उसके नज़दीकी रिश्तेदारों के नाम भी दिये गये हैं। इस प्रकार दूसरी रानी कारुवाकी और उसके पुत्र तीवर के उल्लेख हैं। एक बाद के लेख में अशोक के पोते दशरथ का नाम आया है। अशोक के लेखों में और जनश्रुतियों में भी अशोक की कई पत्नियाँ होने का उल्लेख है। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उसकी पहली पत्नी का नाम देवी था, जो वेदिसगिरि के एक धनी श्रेष्ठी की पुत्री थी। अशोक ने उसके साथ तब विवाह किया, जब वह उज्जैन में वाइसराय था। महाबोधिवंश[16] में उसे वेदिस-महादेवी और शाक्यानी[17]या शाक्यकुमारी [18] कहा गया है। प्रसेनजित के पुत्र विडूडभ ने जब अपनी ननिहाल वालों को तंग करना शुरू किया तो ये शाक्य उसके भय से अपना वतन छोड़कर वेदिसा (वेदिसं नगरं) चले गये थे।[19] इस प्रकार अशोक की पहली पत्नी बुद्ध के कुल से सम्बद्ध थी। इसके बारे में यह भी कहा गया है कि उसने वेदिसगिरि के महाविहार का निर्माण कराया था।[20] साँची और भिलसा का सम्भवत: यह पहला निर्माण था। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अपने निर्माणों के लिए अशोक ने सांची और उसके उपांत के मनोहर वातावरण को क्यों चुना। इससे भी प्राचीन साहित्य में विदिशा का उल्लेख एक प्रसिद्ध बौद्ध स्थान के रूप में आया है।[21] देवी से अशोक को एक पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा हुई। संघमित्रा का विवाह अशोक के भागिनेय अग्निब्रह्मा से हुआ था। संघमित्रा के एक बेटा भी हुआ था, जिसका नाम सुमन था। महावंश के अनुसार देवी अशोक के साथ पाटलिपुत्र नहीं गयी, क्योंकि वहाँ अशोक की अग्रमहिषी असंधिमित्रा रहती थी।[22]
- दिव्यावदान के अनुसार
दिव्यावदान [23] में एक तीसरी पत्नी पद्मावती का भी नाम आया है। यह धर्मविवर्धन के माता थी। यही धर्मविवर्धन आगे कुणाल नाम से विख्यात हुआ। महावंश और दिव्यावदान दोनों ग्रंथों में अशोक की अंतिम अग्रमहिषी का नाम 'तिस्सरक्खा' या 'तिष्यरक्षिता' कहा गया है। दिव्यावदान में सम्प्रति को कुणाल का पुत्र बताया गया है। कश्मीरी इतिवृत में अशोक के एक अन्य पुत्र 'जलौक' का भी उल्लेख है। फाहियान [24] ने धर्मविवर्धन नाम के अशोक के एक पुत्र का भी उल्लेख किया है, जो गंधार का वाइसराय था।
पुत्र व पुत्री
महावंश से पता चलता है कि अशोक के सबसे बड़े पुत्र महेंद्र और उसकी पुत्री संघमित्रा ने अशोक के अभिषेक के छ्ठे वर्ष में 'प्रवज्या' ली थी। उस समय उनकी उम्र क्रमश: 20 और 18 वर्ष थी। अब यदि अशोक के अभिषेक के तिथि ई.पू. 270 हो तो महेंद्र का जन्म ई.पू. 284 और संघमित्रा का जन्म ई.पू. 282 में हुआ होगा। यदि पहली संतान के समय पिता की आयु 20 वर्ष माने तो अशोक ई.पू.304 में पैदा हुआ होगा। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने इस पोते का मुँह अवश्य देखा होगा। चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु ई.पू. 299 में हुई थी। यह भी उल्लेखनीय है कि अशोक के दामाद अग्निब्रह्मा ने उसके अभिषेक के चौथे वर्ष अर्थात् ई.पू. 266 में 'प्रवज्या' ली थी। उस समय वह एक बेटे का बाप हो चुका था। इस प्रकार संघमित्रा से उसका विवाह ई.पू. 268 में अवश्य हो गया होगा, जब संघमित्रा की उम्र चौदह वर्ष रही होगी।
महेन्द्र और संघमित्रा
अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, इस धर्म के उपदेशों को न केवल देश में वरन् विदेशों में भी प्रचारित करने के लिए प्रभावशाली क़दम उठाए। अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को अशोक ने इसी कार्य के लिए श्रीलंका भेजा था। अशोक ने अपने कार्यकाल में अनेक शिलालेख खुदवाए जिनमें धर्मोपदेशों को उत्कीर्ण किया गया। राजशक्ति को सर्वप्रथम उसने ही जनकल्याण के विविध कार्यों की ओर अग्रसर किया। अनेक स्तूपों और स्तंभों का निर्माण किया गया। इन्हीं में से सारनाथ का प्रसिद्ध सिंहशीर्ष स्तंभ भी है जो अब भारत के राजचिह्न के रूप में सम्मानित है।
- सम्राट अशोक के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में प्रमुख साधन अशोक के शिलालेख तथा स्तंभों पर उत्कीर्ण अभिलेख हैं। किन्तु ये अभिलेख अशोक के प्रारम्भिक जीवन पर कोई प्रकाश नहीं डालते। इनके लिए हमें संस्कृत तथा पाली में लिखे हुए बौद्ध ग्रंथों पर निर्भर रहना पड़ता है। परम्परानुसार अशोक ने अपने भाइयों का हनन करके सिंहासन प्राप्त किया था।
- जनश्रुतियों और लेखों के आधार पर हम अशोक के निम्नलिखित रिश्तेदारों का अस्तित्व पाते हैं-
क्रमांक | रिश्ता या संबंध | नाम एवं विवरण |
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1- | पिता | बिंदुसार, जिसकी कई रानियाँ थीं। |
2- | माता | उत्तरी परम्परा में सुभद्रांगी और दक्षिण परम्परा में धर्मा। |
3- | भाई | |
4- | पत्नियाँ |
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5- | पुत्र |
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6- | पुत्रियाँ व जामाता (दामाद) |
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7- | पोते व नाती |
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इन्हें भी देखें: अशोक का कालक्रम, बिंदुसार एवं चंद्रगुप्त मौर्य
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 यह ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि अशोक सर्वोच्च शासक था पर वह अपने को सिर्फ 'राजा' शब्द से निर्दिष्ट करता है। 'महाराजा' और 'राजाधिराज' जैसी भारी-भरकम या आडम्बर-पूर्ण उपाधियाँ, जो अलग-अलग या मिलाकर प्रयुक्त की जाती हैं, अशोक के समय में प्रचलित नहीं हुई थीं। 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:6
- ↑ 'अशोक' | लेखक: डी.आर. भंडारकर | प्रकाशक: एस. चन्द एन्ड कम्पनी | पृष्ठ संख्या:5
- ↑ 3.0 3.1 3.2 'अशोक' | लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी | प्रकाशक: मोतीलाल बनारसीदास | पृष्ठ संख्या: 8-9
- ↑ द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली “मौर्यकाल”, प्राचीन भारत का इतिहास, द्वितीय संस्करण (हिंदी), दिल्ली: हिंदी माध्यम कार्यांवय निदेशालय, 178।
- ↑ जिसका आख्यान 'दीपवंश' और 'महावंश' में हुआ है
- ↑ उत्तरी परम्पराओं का सुसीम
- ↑ इसका उल्लेख 'अशोकावदानमाला' में तो है, पर 'दिव्यावदान' में नहीं है।
- ↑ महावंश टीका, अध्याय 4, पृ. 125
- ↑ मोरियवंसजा, महावंश टीका, अध्याय 4, पृ. 125 व महाबोधिवंश, पृ. 98
- ↑ अर्थात् अवंति राष्ट्र या अवंति का प्रांत। महाबोधिवंश पृ. 98
- ↑ दिव्यावदान
- ↑ सम्भवत: मनु, 10, 22 और एपि. इंडिया i, 132 में उल्लिखित खसों से तात्पर्य है
- ↑ दिव्यावदान के अनुसार उत्तराधिकार की लड़ाई दो भाइयों के बीच ही हुई थी, जबकि महाबोधिवंश में इस युद्ध में एक ओर अशोक था और दूसरी ओर 98 भाई थे, जिन्होंने अपने सबसे बड़े भाई सुसीम का साथ दिया था, जो उस समय 'युवराज' और दरअसल सिंहासन का वास्तविक अधिकारी था। दिव्यावदान अशोक के दावे के समर्थन में कहता है कि जब बिंदुसार जीवित था तो उसने एक बार आजीविक साधु 'पिंगलवत्स' को बुलाया था। पिंगलवत्स ने फैसला किया था कि सभी राजकुमारों में अशोक सिंहासन के सबसे उपयुक्त है। इस ग्रंथ के अनुसार अशोक के समर्थन में बिंदुसार के सभी मंत्री खल्लाटक (प्रधानमंत्री) और 500 अन्य मंत्री थे।
- ध्यान देने की बात यह भी है कि चीनी यात्री इ-त्सिंग ने एक जनश्रुति का उल्लेख किया किया है, जिसमें स्वयं भगवान बुद्ध ने अशोक के 'चक्रवर्त्तित्व' की भविष्यवाणी की थी। जनश्रुति है कि कपड़े का एक टुकड़ा और सोने की छड़ी दोनों अट्ठारह भागों में विभक्त हो गये थे। इसका भाष्य करते हुए भगवान बुद्ध कह रहे हैं कि "उनके निर्वाण के सौ से अधिक साल बीतने पर उनके उपदेश 18 भागों में विभक्त हो जाएँगे। जब अशोक नाम का एक राजा पैदा होगा जो सकल जंबूद्वीप पर शासन करेगा।" (तक्कुस का इ-त्सिंग, पृ. 14
- ↑ दिव्यावदान, 26, पृ. 368
- ↑ दिव्यावदान, अध्याय, 26
- ↑ महाबोधिवंश,पृ. 116
- ↑ महाबोधिवंश,पृ. 116
- ↑ महाबोधिवंश,पृ. 98
- ↑ विडूडभभयागतानं साकियानं आवासं वेदिसं
- ↑ ताय कारापितं वेदिसगिरिमहाविहारं
- ↑ सुत्तनिपात
- ↑ महावंश,85, xx
- ↑ दिव्यावदान के अनुसार अशोक ने अपनी रानी पद्मावती में उत्पन्न अपने नवजात पुत्र को धर्मविवर्धन नाम दिया था। शिशु की आँखें हिमालय के कुणाल पक्षी की तरह थीं। इसलिए अशोक ने उसे कुणाल कहना शुरू कर दिया था। दिव्यावदान, अध्याय 27
- ↑ लेग्गे का अनुवाद, पृ. 31
- ↑ मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 7-8।
- ↑ दिव्यावदान अध्याय 27, के अनुसार अशोक ने अपनी रानी पद्मावती में उत्पन्न अपने नवजात पुत्र को धर्मविवर्धन नाम दिया था। पर जैसा उसके साथ गये मंत्रियों ने कहा था शिशु की आँखें हिमालय के कुणाल पक्षी की तरह थीं। इसलिए अशोक ने उसे कुणाल कहना शुरू कर दिया था।
- ↑ दिव्यावदान और फाहियान के अनुसार
- ↑ (स्तम्भ लेख 7 के अनुसार)
मुखर्जी, राधाकुमुद अशोक (हिंदी)। नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास, 7-8।
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