अशोक के शिलालेख- जौगड़
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जौगड़ उड़ीसा के 'गंजाम ज़िले' में स्थित है, जहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के 'चतुर्दश शिलालेख' प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों को 'ग्यारहवें और तेरहवें लेखों' के स्थान के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थान से अशोक के चतुर्दश शिलालेखों की एक प्रति प्राप्त हुई है।
- धौली की भाँति यहाँ भी संख्या 11, 12 तथा 13 के लेख नहीं मिलते, उनके स्थान पर दो अन्य लेख मिले है, जो विशेष रूप से कलिंग के लिए उत्कीर्ण कराये गये थे।
- जौगड़ और धौली वही जगह है, जहाँ कलिंग युद्ध के पश्चात् सम्राट अशोक ने स्वयं को पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ महसूस किया था।
- इस पश्चाताप के फलस्वरूप अशोक ने पूर्ण रूप से बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
क्रमांक | शिलालेख | अनुवाद |
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1. | देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन | देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा |
2. | पटिपातयहं दुवावते च आलभेहं [I] एस च मे मोखियमत दुवाल एतस अथस सं तुफेसु अनुसथि [I] संव-मुनि- | मैं प्रतिपादित (सम्पादित) करूँ और [किस प्रकार तरह-तरह के] उपायों द्वारा मैं [उसे] पूर्ण करूँ। इस अर्थ (उद्देश्य) में [सिद्धि-प्राप्ति के लिए] यह मेरे द्वारा मुख्य उपाय मा गया है कि आप लोगों में अनुशासन (शिक्षा) हो। सब मनुष्य |
3. | सा मे पजा [I] अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सतेन हित-सु- | मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के |
4. | खेन युजेयू ति हिदलोगिक-पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु [I] सिया अन्तानं अविजिता- | इहलौकिक तथा पारलौकिक हित और सुख से युक्त हो, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है। शायद अविजित अन्त (सीमान्त जातियाँ) यह पूछें कि |
5. | नं किं-छांजे सु लाजा अफेसू तिं [I] एताका वा मे इछ अन्तेसु पापुनेयु लाजा हेवं इछति अनविगिन ह्वेयू | 'राजा हम लोगों के बारे में क्या चाहता है?' अन्तों (सीमान्त जातियों) के प्रति मेरी इच्छा इस तरह है-वे समझें की राजा (देवों का प्रिय) इस प्रकार चाहता है कि मुझसे अनुद्विग्न (निश्चिंत) रहें; |
6. | ममियाये अस्वसेयु च मे सुखंमेव च लहेयू ममते नो दुखं [I] हेवं च पापुनेय खमिसति ने लाजा | मुझसे आश्वासन प्राप्त करें और मुझसे सुख का लाभ करें, मुझसे वे दु:ख न पायें। वे इस प्रकार समझें कि 'जहाँ तक क्षमा करना शक्य (सम्भव) है, राजा (देवों का प्रिय) हम लोगों को क्षमा करेगा।' |
7. | ए सकिये खमितवे ममं निमितं च धंमं चलेयू ति हिदलोगं च पललोगं च आलाधयेयू [I] एताये | मेरे निमित्त वे धर्म का आचरण करें और (इस प्रकार) इहलोक तथा परलोक को प्राप्त करें। |
8. | च अठाये हकं तुफेनि अनुसासामि अनने एतकेन हकं तुफेनि अनुसासित छंदं च वेदि- | इस अर्थ (उद्देश्य) के लिए मैं आपको अनुशासन (शिक्षा) देता हूँ कि इसके द्वारा मैं उऋणता को प्राप्त हो जाऊँ, आप लोगों को अनुशासित करूँ और अपनी इच्छा विदित कराऊँ, कि मेरी धृति (विचार) और प्रतिज्ञा अचल है। |
9. | तु आ मम धिति पटिंना च अचल [I] व हेवं कटु कंमे चलितविये अस्वासनिया च ते एन ते पापुने- | सो इस प्रकार काम करते हुए (आप लोगों को) चलना (जिसमें) वे [सीमान्त जातियाँ मुझसे] आश्वासन प्राप्त करें और यह समझें कि |
10. | यु अथा पित हेवं ने लाजा ति अथ अतानं अनुकंपति हेवं अफेनि अनुकंपित अथा पजा हे- | 'जैसे पिता है, वैसी ही हमारे लिए राजा (देवों का प्रिय) है। वह जिस प्रकार अपने ऊपर अनुकम्पा करता है, उसी प्रकार हम लोगों पर भी अनुकम्पा करता है। जिस प्रकार सन्तान है, उसी प्रकार हम लोग [भी] |
11. | वं मये लाजिने [I] तुफेनि हकं अनुसासित छांदं च वेदित आ मम धिति पटिंना चा अचल सकल- | राजा (देवों के प्रिय) [की सन्तान] हैं।' सो आप लोगों को अनुशासन दे और (अपनी यह) इच्छा विदित कराकर कि मेरी धृति (विचार) और प्रतिज्ञा अचल है। |
12. | देसा आयुतिके होसामी एतसि अथसि [I] अलं हि तुफे अस्वासनाये हित-सुखाये च तेसं हिद- | मैं इस अर्थ (प्रयोजन) के लिए समस्त देश में आयुक्तों को रखूँगा। क्योंकि वे आप सबके इहलौकिक तथा पारलौकिक हित एवं सुख के लिए आश्वासन देने में समर्थ होंगे। |
13. | लागिक-पाललोकिकाये [I] वं च कलन्तं स्वगं च अलाधयिसथ मम च आननेयं एसथ [I] ए- | इस प्रकार इहलौकिक और पारलौकिक (हित) करते हुए आप लोग स्वर्ग प्राप्त करेंगे और मेरे सानृण्य को प्राप्त होंगे (मुझसे उऋण होंगे)। |
14. | ताये च अथाये इयं लिपी लिखित हिद एन महामाता सास्वतं समं युजेयू अस्वासनाये च | इस अर्थ से यह लिपि (लेख) यहाँ लिखी गयी है, जिससे महामात्र सब समय उन अन्तों (सीमान्त जातियों) के आश्वासन और |
15. | धंम-चलनाये च अन्तानं [I] इयं च लिपी अनुचातुंमासं सोतविया तिसेन [I] अन्तला पि च सीतविया [I] | धर्माचरण के लिए यत्न करें। यह लिपि प्रत्येक चातुर्मास्य में तिष्य नक्षत्र में सुनी जानी चाहिए। कमना होने पर एक (व्यक्ति) के द्वारा भी सुनी जानी चाहिए। |
16. | खने सन्तं एकेन पि सोतविया [I] बेवं च कलन्तं चघथ संपटिपातयितवे [I] | ऐसा करते हुए (आप लोग मेरी आज्ञा के) सम्यक् प्रतिपादन (पालन) के लिए चेष्टा करें। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 39-42 |
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