अशोक के शिलालेख- गिरनार

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गिरनार गुजरात में जूनागढ़ के निकट स्थित पहाड़ियाँ हैं। गिरनार की पहाड़ियों से पश्चिम और पूर्व दिशा में 'भादस', 'रोहजा', 'शतरूंजी' और घेलो नदियां बहती हैं। इन पहाड़ियों पर मुख्यतः भील और डुबला लोगों का निवास है। इन पहाड़ियों पर मौर्य सम्राट अशोक का 'चतुर्दश शिलालेख' अकिंत है।

  • पहाड़ियों की दूसरी ओर शक क्षत्रप रुद्रदामन का भी अभिलेख (150ई.) है।
  • इस अभिलेख में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के आदेश से वहाँ पर 'सुदर्शन झील' के निर्माण का उल्लेख है।
  • रुद्रदामन के जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि, सम्राट अशोक के समय 'तुशाष्प' नामक अधीनस्थ यवन राज्यपाल के रूप में सौराष्ट्र पर शासन करता था।
  • गिरनार की एक पहाड़ी की तलहटी में अशोक के शिलालेख (तीसरी शताब्दी ई.पू.) से युक्त एक चट्टान हैं।
  • मौर्य शासक चंद्रगुप्त (चौथी शताब्दी ई.पू. का उत्तरार्ध) द्वारा सुदर्शन नामक झील बनाए जाने का उल्लेख भी इसी शिलालेख में मिलता है।
  • इन दो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाणों के आस-पास की पहाड़ियों पर सोलंकी वंश (961-1242) के राजाओं द्वारा बनवाए गए कई जैन मंदिर भी स्थित हैं।
गिरनार शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानं प्रियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मंञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति को अन्यत्र (परलोक में) महार्थावह (बहुत लाभ उपजानेवाला) नहीं मानता। [वह] जो भी यश वा कीर्ति चाहता है। [वह इसलिए कि] वर्तमान में और भविष्य में (दीर्घ [काल] के लिए) मेरा जन (मेरी प्रजा)
2. धमंसुस्त्रु सा सुस्त्रु सतां धंमवतु च अनुविधियतां [।] एककाय देवानं पियो पियदसि राजा यसो व किति व इछति '[।] मेरे धर्म को शुश्रूषा करे और मेरे धर्मव्रत का अनुविधान (आचरण) करे। इसलिए देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति की इच्छा करता है।
3. यं तु किंचि परिकामते देवानं प्रियदसि राजा त सवं पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्त्रवे अस [।] एस तु परिसवे य अपुंञं [।] जो कुछ भी देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा पराक्रम करता है, वह सब परलोक के लिए हो। क्यों? इसलिए कि सब निष्पाप हों।
4. दुकरं तु खो एतं छुदकेन व जनेन उसटेन व अञत्र अगेन पराक्रमेन सवं परिचजित्पा [।] एत तु खो उसटेन दुकरं [।] अपुण्य (पुण्य न करना) ही दोष (विध्र) है। यह (अपुण्य से रहित होना) बिना अगले (उत्कृष्ट) पराक्रम के [और बिना] सब [अन्य उद्देश्यों] का परित्याग किये क्षुद्र या बड़े वर्ग (जन) से अवश्य दुष्कर है। किंतु यह वस्तुत: बड़े के लिए अधिक दुष्कर है।
गिरनार शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानं पिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विवधाय च पूजयति ने[।] देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाषण्डों (पंथवालों) को, [चाहे वे] प्रव्रजित [हों चाहे] गृहस्थ, दान और विविध पूजा द्वारा पूजता है।
2. न तु तथा दानं व पूजा व देवानं पियों मंञते यथा किति सारवढी अस सव पासंजानं [।] सारवढी तु बहुविधा [।] किंतु दान वा पूजा को देवों का प्रिय वैसा नहीं मानता जैसा यह कि सब पाषण्डों (पंथवालों) की सारवृद्धि हो। सारवृद्धि तो बहु प्रकार के है।
3. तसतस तु इदं मूलं य वचिगुती किंति आत्पपांसंडपूजा व परपासंड गरहा व नो भवे अपकरणम्हि लहुका व अस किंतु उसका मूल वचोगुप्ति (वाक्संयम) है। यह किस प्रकार? [इस प्रकार कि] अपने पाषण्ड (पंथ) की पूजा अथवा दूसरे पाषण्डों (पंथों) की गहाँ (निन्दा) न हो और बिना प्रसंग के [उनकी लघुता (हलकाई) न हो।
4. तम्हि प्रकरणे [।] पूजेतया तु एव परपासंडा तेन तेन प्रकरणेन [।] एवं करुं आत्पपासण्डं च वढयति परपासंडस च, उपकरोति[।] उस-उस अवसर पर (विशेष-विशेष अवसरों पर) पर-पाषण्ड (दूसरा पंथ) भी उस-उस ढंग से भिन्न-भिन्न ढंगों से) पूजनीय है। ऐसा करता हुआ मनुष्य अपने पाषण्ड (पंथ) को बढ़ाता है और दूसरे पाषण्ड (पंथ) का उपकार करता है।
5. तदंञथा करोतो आत्पपासंडं च छणति परपासण्डस, च पि अपकरोति [।] यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति तद्विपीत करता हुआ [मनुष्य] अपने पाषण्ड (पंथ) को क्षीण करता है। और दूसरे पाषण्ड (पंथ) का अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने पाषण्ड (पंथ) को पूजता है वा दूसरे पाषण्ड (पंथ) की गर्हा (निन्दा) करता है,
6. सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [।] त समवायों एव साधु वह अपने पाषण्ड (पंथ) क प्रति भक्ति से अथवा अपने पाषण्ड (पंथ)को दीप्त (प्रकाशित) करने के लिए ही। और वह फिर वैसा करता हुआ अपने पाषण्ड (पंथ) को हानि पहुँचता है। इसलिए समवाय मेलजोल ही अच्छा है।
7. किंति अञमञंस धंसं स्त्रुणारु च सुसंसेर च [।] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्त्रुता च असु कलाणागमा च असु [।] यह कैसे/ ऐसे कि [लोग] एक-दूसरे के धर्म को सुनें और शुश्रूषा (सेवा) करें। क्योंकि ऐसी ही देवों के प्रिय की इच्छा है। क्या? कि सब पाषण्ड (पंथवाले) बहुश्रुत और कल्याणागम (कल्याणकारक ज्ञानवाले) हों।
8. ये च तत्र प्रसंना तेहि वतय्वं [।] देवानं पियों नो तथा दानं व पूजां व मंञते यथा किंति सारवढी अस सर्वपासडानं [।] बहुका च एताय और जो वहाँ-वहाँ किसी पंथ में स्थिर हों, वे कहे जायँ "देवों का प्रिय दान वा पूजा को वैसा नहीं मानता, जैसा फिर सब पाषण्डों (पंथों) की सारवृद्धि को।"
9. अथा व्यपता धंममहामाता च इथीझख-महामाता च वचभूमीका च अञे च निकाया [।] अयं च एतस फल य आत्पपासण्डवढ़ी च होति धंमस च दीपना [।] इस अर्थ के लिए बहुत धर्ममहामात्र, स्त्री-अध्यक्ष -महामात्र, व्रजभूमिक और अन्य निकाय (स्वायत्तशासन-प्राप्त स्थानीय संस्थाएँ) नियिक्त हैं। इसका फल यह है कि अपने पाषण्ड (पंथ) की वृद्धि होती है और धर्म की दीप्ति [होती है]।
गिरनार शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानंप्रि [यो पियद] सि राजा एवं आह [।] अतिक्रांत अंतर देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है- बहुत काल बीत गया
2. न भूतप्रुव सवे काले अथकंमें व पटिवेदना वा [।] त मया एवं कतं [।] पहले सब काल में अर्थ कर्म (राजकार्य, शासन सम्बंधी कार्य) वा प्रतिवेदना (प्रजा की पुकार अथवा अन्य सरकारी काम का निवेदन, सूचना या ख़बर) नहीं होती थी। सो मेरे द्वारा ऐसा किया गया है।
3. सवे काले भुंजमानस में ओरोधनम्हि गभागरम्हि वचम्हि व सब काल में भोजन करते हुए, अवरोधन (अंत:पुर), गर्भागार, व्रज (पशुशाला)
4. विनीतम्हि च उयानेसु चन सर्वत्र पटिवेदका स्टिता अथे में जनस विनीत (व्यायामशाला,पालकी) और उद्यान (उद्यानों) में [होते हुए] मुझे सर्वत्र प्रतिवेदक (निवेदक) उपस्थित होकर मेरे जन (प्रजा) के अर्थ (शासन सम्बन्धी कार्य) का
5. पटिवेदेथ इति [।] सर्वत्र च जनस अथे करोमि [।] य च किंचि मुखतो प्रतिवेदन (निवेदन) करें। मैं सर्वत्र जन (जनता, प्रजा) का अर्थ (शासन-सम्बन्धी कार्य) करता हूँ (करुँगा) जो कुछ भी मैं मुख से (मौखिक रूप से)।
6. आञपयामि स्वयं दापकं वा स्त्रवापकं वा य वा पुन महामात्रेसु दापक (दान) वा श्रावक (घोषणा) के लिए आज्ञा देता हूँ अथवा पुन: महामात्रों पर
7. आचायिके अरोपितं भवति ताय अथाय विवादो निझती व संतों परिसायं अत्यंत आवश्यकता पर जो [अधिकार या कार्यभार] आरोपित होता है (दिया जाता है) उस अर्थ (शासन-सम्बन्धी कार्य) के लिए परिषद से विवाह
8. आनतंर पटिवेदेतव्यं में सर्वत्र सर्वे काले [।] एवं मया आञपितं [।] नास्ति हि मे तोसो वा पुनर्विचार होने पर बिना विलम्ब के मुझे सर्वत्र सब काल में प्रतिवेदन (निवेदन) किया जाए। मेरे द्वारा ऐसी आज्ञा दी गयी है।
9. उस्टानम्हि अथंसंतीरणाय व [।] कतव्य मते हि मे सर्वलोकहितं [।] मुझे वस्तुत: उत्थान (उद्योग) और अर्थसंतरण (राजशासनरूपी नदी को अच्छी तरह तैरकर पार करने) में तोष (संतोष) नहीं है। सर्वलोकहित वस्तुत: मेरे द्वारा कर्त्तव्य माना गया है।
10. तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च [।] नास्ति हि कंमतरं पुन: उसके मूल उत्थान (उद्योग) और अर्थसंतरण (कुशतापूर्वक राजकार्य-सञ्चालन) हैं। सचमुच सर्वलोकहित के अतिरिक्त दूसरा [कोई अधिक उपादेय] का नहीं है।
11. सर्वलोकहितत्पा [।] य च किंति पराक्रमामि अहं किंत भूतानं आनंणं गछेयं जो कुछ मैं पराक्रम करता हूँ, वह क्यों/ इसलिए कि भूतों (जीवधारियों) से उऋणता को प्राप्त होऊँ और
12. इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु [।] त एताय अथाय यहाँ (इस लोक में) कुछ [प्राणियों] सुखी करूँ तथा अन्यत्र (परलोक में) वे स्वर्ग को प्राप्त करें। इस अर्थ (प्रयोजन) से
13. अयं धंमलिपी लेखपिता किंति चिरं तिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोता च प्रपोत्रा च यह धर्मलिपि लिखायी गयी कि [यह] चिरास्थित हो और सब प्रकार मेरे स्त्री, पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र
14. अनुवतरां सवलोकहिताय [।] दुकरं तु इदं अञत्र अगेन पराक्रमेन [।] सब लोगों के हित के लिए पराक्रम अनुसरण करें। बिना उत्कृष्ट पराक्रम के यह (सर्वलोकहित) वस्तुत: दुष्कर है।
गिरनार शिलालेख[1]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. [अयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता] [।] अस्ति एवं यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी।
2. संखितेन अस्ति मझमेन अस्ति विस्ततन [।] न च सवं सवत घटितं [।] [कहीं यह] संक्षिप्त है, [कहीं] मध्यम है [और कहीं] विस्तृत है। क्योंकि सर्वत्र सब घटित (उपयुक्त) नहीं होते।
3. महालके हि विजित बहु च लिखितं लिखापयिसं चेव [।] अस्ति च एत कं [मेरा] विजित (राज्य) बड़ा (महान) है। [मेरे द्वारा] बहुत लिखा गया और [मैं] नित्य (लगातार, बराबर) लिखवाऊँगा।
4. पुन पुन वुतं तस अथस माधूरताय [।] किंति जनों तथा पटिपजेथ [।] यहाँ (इसमें) [कहीं-कहीं एक ही बात] पुन: पुन: (बार-बार) उस अर्थ के माधुर्य (मधुरता) के लिए लिखी (कही) गयी है। क्यों? [इसलिए कि] जन (मनुष्य) वैसा बर्ताव करें।
5. तत्र एकदा असमातं लिखितं अस देसं व सछाय कारणं व यह भी हो सकता है कि यहाँ जो कुछ (एक) [आध] बार असमाप्त (अधूरा) लिखा गया हो, [वहाँ] देश के कारण वा कारण की पूरी
6. अलोचेत्पा लिपिकरापरधेन व [।] आलोचना के वा लिपिकार के अपराध (दोष) से हो।
गिरनार का द्वितीय शिलालेख[2]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा
2. एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब- ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और)
3. पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र
4. राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई-
5. मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च। मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और
6. पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं।
7. मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।] इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये।
8. पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।] मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।

इस अभिलेख से प्रकट होता अशोक ने पशु और मनुष्यों की चिकित्सा की व्यवस्था न केवल अपने ही राज्य में वरन् अपने सीमावर्ती राज्यों में भी की और करायी थी। इसके लिए औषधियों से सम्बन्ध रखने वाले वृक्ष, मूल और फल भी लगाये थे। इस अभिलेख से अशोक के जनहित के कार्य पर प्रकाश पड़ता है। इस अभिलेख में चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र और ताम्रपर्णी का उल्लेख सीमावर्ती राज्यों के रूप में हुआ है। यहाँ चोल का तंजुर-तिरुचिरापल्ली प्रदेश, पाण्ड्य से रामनाथपुरम - मदुरै - तिरुनवेली-क्षेत्र और सतियपुत्र से क्रमश: उत्तरी और दक्षिणी मलयालम - भाषी भूमि से तात्पर्य नहीं है, उसका तात्पर्य सम्भवत: सिंहल से है। ये अशोक के राज्य के दक्षिणी सीमावर्ती राज्य थे, ऐसा प्रतीत होता है।

इस प्रकार का कोई उल्लेख अशोक ने अपने पूर्वी और उत्तरी सीमा के लिए नहीं किया है। उत्तर में हिमालय तक उसके राज्य का विस्तार था यह उसके उस प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में मिले शासनों से प्रकट होता है। अत: उधर किसी सीमांत राज्य के न होने का सहज अनुमान किया जा सकता है। किंतु पूर्व के सीमांत पर्वतीय प्रदेश तक फैला रहा होगा। किंतु अभी तक बंगाल और उसके आगे के किसी भी पूर्वी क्षेत्र से अशोक का कोई अभिलेख नहीं मिला है जो इस बात को प्रमाणित कर सके। इस सीमा के प्रति यह मौन उल्लेखनीय और विचारणीय है। उत्तर-पश्चिम में अशोक के अभिलेख अफ़ग़ानिस्तान तक मिले हैं। और उनमें कुछ यवन-लिपि में भी हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी राज्य-सीमा यवन राज्य से लगी हुई थी। इस सीमा का परिचय इस लेख से मिलता है। इसमें यवन राज अंतिओक का उल्लेख है। सम्भवत: यह साम (सीरिया) नरेश अंतिओक (द्वितीय) होगा जिनका राज्यकाल ई. पू. 261 और 246 के बीच था। वह अलक्सान्दर के सुप्रसिद्ध सेनापति सेल्युकी निकेटर का पौत्र था। उसके निकटवर्ती राजाओं का उल्लेख तेरहवें अभिलेख में भी हुआ है और वहाँ उनके नाम दिये गये हैं। कदाचित उन्हीं राजाओं से यहाँ भी तात्पर्य है।

गिरनार का तृतीय शिलालेख[3]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।] देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी-
2. सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं- मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही
3. यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा- इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें]
4. य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण- माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और]
5. समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।] श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है।
6. परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।] परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी।
गिरनार का चतुर्थ शिलालेख[4]
क्रमांक शिलालेख अनुवाद
1. अनिकातं अंतरं बहूनि बाससतानि वाढितो एवं प्रणारंभो विहिंसा च भूतानं ज्ञातीसु बहुत काल बीत गया, बहुत सौ वर्ष [बीत गये पर] प्राणि-वध, भूतों की विहिंसा, सम्बन्धी के साथ
2. असंप्रतिपती ब्रह्मण-स्त्रणानं असंप्रतीपती [।] त अज देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो अनुसूचित बर्ताव [तथा] श्रमणों और ब्राह्मणों के साथ अनुसूचित बर्ताव बढ़ते ही गये। इसलिए आज देवों के प्रियदर्शी राजा के
3. धंम-चरणेन भेरीघोसो अहो धंमघोसो [।] विमानदसंणा च हस्तिदसणा च धर्माचरण से भेरीघोष-जनों (मनुष्यों) को विमान-दर्शन, हस्तिदर्शन,
4. अगिखंधानि च अञानि च दिव्यानि रूपानि दसयित्पा जनं यारिसे बहूहि वास-सतेहि अग्रिस्कन्ध (ज्योतिस्कन्ध) और अन्य द्विव्य रूप दिखलाकर-धर्मघोष हो गया है। जिस प्रकार बहुत वर्षों से
5. न भूत-पूवे तारिसे अज वढिते देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो धंमानुसस्टिया अनांर- पहले कभी न हुआ था, उस प्रकार आज देवों के प्रियदर्शी राजा के धर्मनुशासन से
6. भो प्राणानं अविहीसा भूतानं ञातीनं संपटिपती ब्रह्मण-समणानं संपटिपती मातारि-पितरि प्राणियों का अनालम्भ (न मारा जाना), भूतों (जीवों) की अविहिंसा, सम्बन्धियों के प्रति उचित बर्ताव, ब्राह्मणों [और] श्रमणों के प्रति उचित बर्ताव, माता [और] पिता की
7. सुस्त्रुसा थैरसुस्त्रुसा [।] एस अञे च बहुविधे धंमचरणे वढिते [।] वढयिसति चवे देवानंप्रियो। सुश्रूषा [तथा] वृद्ध (स्थविरों) की सुश्रूषा में वृद्धि आ गया है। ये तथा अन्य बहुत प्रकार के धर्माचरण वर्धित हुए हैं।
8. प्रियदसि राजा धंमचरण [।] पुत्रा च पोत्रा च प्रपोत्रा च देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्माचरण को [और भी] बढ़ायेगा। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी
9. प्रवधयिसंति इदं धंमचरणं आव सवटकपा धंमम्हि सीलम्हि तिस्टंतो धंर्म अनुसासिसंति [।] इस धर्माचरण केयावत्कल्प बढायेंगे। धर्माचरण को शील में [वे स्वयं स्थित] रहते हुए धर्म के अनुसार करेंगे।
10. एस हि सेस्टे कंमे य धंमानुसासनं [।] धंमाचरणे पि न भवति असीलस [।] त इमम्हि अथम्हि यह धर्मानुशासन ही श्रेष्ठ कर्म है; किंतु अशील [व्यक्ति] का धर्माचरण भी नहीं होता। सो इस अर्थ (उद्देश्य) की वृद्धि में जुट जायँ
11. वधी च अहीनी च साधु [।] एताय अथाय इदं लेखापितं इमस अथस वधि युजंत हीनि च वृद्धि और अहानि अच्छी है। इस अर्थ के लिए यह लिखा (लिखवाया) गया [कि लोग] इस अर्थ की वृद्धि में जुट जाएँ
12. मा लोचेतव्या [।] द्वादसवासाभिसितेन देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा इदं लेखापितं [।] और हानि न देखें। बारह वर्षों से अभिषिक देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा यह लिखवाया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 23-24,30,32,38 |
  2. प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 15url= |
  3. प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 16url= |
  4. प्राचीन भारत के प्रमुख अभिलेख |लेखक: डॉ. परमेश्वरीलाल गुप्त |प्रकाशक: विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 18url= |

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