कचारी

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कचारी अथवा 'काचारी' भारत के असम राज्य में पाई जाने वाली एक जनजाति है। ये लोग मंगोल प्रजाति के हैं। इनका पारिवारिक जीवन पड़ोसी हिन्दुओं से अधिक भिन्न नहीं है। इनके जीवन निर्वाह का मुख्य साधन कृषि है। कचारी लोग बहुत से 'बहिर्विवाही'[1] और 'टोटमी' कुलों[2] में विभाजित हैं। कचारियों के धर्म का सर्वप्रधान लक्षण आत्मावाद, अर्थात् भूत-प्रेत आदि में विश्वास है। इनका यह विश्वास है कि मृत्यु का अर्थ केवल शारीरिक अवस्था में परिवर्तन है और मृतक की आत्मा नष्ट न होकर परिवर्तित रूप से बची रहती है।

इतिहास

विश्वास किया जाता है कि ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में बसने वाली कचारी सबसे प्राचीन जाति है। असम के आधुनिक कचार ज़िले का नामकरण इसी जनजाति के आधार पर हुआ है। तेरहवीं शताब्दी में कचारी लोगों का राज्य ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट तक फैला हुआ था। उनके राज्य में अधिकांश आधुनिक नौगाँव ज़िला और कचार ज़िले का कुछ भाग सम्मिलित था। उनकी राजधानी गोलाघाट के आधुनिक नगर से पैंतालिस मील दक्षिण, धनश्री नदी के तट पर स्थित डीभापुर थी। अहोम लोगों ने 1536 में कचारी राज्य को जीत लिया और कचारी लोग डीभापुर को छोड़कर भाग गये। डीभापुर नगर के अब खंडहर ही मिलते हैं। कचारी के पराजित लोगों ने एक नये राज्य की स्थापना की और मैबोग को अपनी राजधानी बनाया। किन्तु इसके बाद भी अहोम राजाओं से उनकी बराबर लड़ाइयाँ होती ही रही। अहोम राजाओं का कहना था कि वे उनके आश्रित हैं। अहोम जाति का अन्तिम राजा गोविन्द चन्द्र था, जिसे 1818 ई. में मणिपुर के राजा ने हरा दिया। 1821 ई. में ब्रिटिश साम्राज्य ने बर्मियों को निकाल बाहर किया और गोविन्द चन्द्र को पुन: उसकी गद्दी मिल गई। परन्तु 1830 ई. में एक मणिपुरी आक्रमणकारी ने उसकी हत्या कर दी। गोविन्द चन्द्र के निसंतान होने के कारण 1832 ई. में उसका राज्य ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया।

निवास स्थान

असम के उत्तरी असम-भूटान-सीमावर्ती कामरूप और दरंग ज़िले वर्तमान कचारी या 'बड़ा' कबीले का मुख्य निवास स्थान हैं। इस कमी का मुख्य कारण कचारियों का हिन्दू वर्ण व्यवस्था में प्रवेश है। असम राज्य की कुछ नदियों एवं प्राकृतिक विभागों के नाम कचारी मूल के हैं, जिससे अनुमान होता है कि अतीत में कचारी कबीले का प्रसार संपूर्ण असम में रहा होगा। सन 1911 में फ़ादर एंडल ने वास्तविक कचारियों के पड़ोसी 'राभा', 'मेछ', 'धीमल', 'कोच', 'मछलिया', 'लालुंग' तथा 'गारो' कबीलियों की गणना भी बृहद् कचारी प्रजाति (रेस) के अंतर्गत की थी और असम के 10,00,000 व्यक्तियों को इस श्रेणी में रखा था। किंतु बाद की जनगणनाओं और नृतात्विक अध्ययन के प्रकाश में यह मत तर्क संगत प्रतीत नहीं होता।[3]

जीवन निर्वाह के साधन

कचारी मंगोल प्रजाति के हैं। मोटे तौर पर इनका पारिवारिक जीवन पड़ोसी हिंदुओं से अधिक भिन्न नहीं है। जीवन निर्वाह का मुख्य साधन कृषि है। दो प्रकार का धान- 'मैमा' और 'मैसा', दाल, कपास, गन्ना और तंबाकू इनकी प्रधान फ़सलें हैं। हाल में ये चाय बाग़ान और कारखानों में मज़दूरी पेशे की ओर भी आकृष्ट हुए हैं। खान-पान में खाद्यान्नों के अतिरिक्त सूअर के मांस, सूखी मछली और चावल की शराब 'जू' का इनमें अधक प्रचलन है। कुछ समय पूर्व तक कचारियों में दूध पीना ही नहीं वरन् छूना भी वर्जित था। मछली मारना पुरुष तथा स्त्री दोनों का धंधा है। किंतु सामूहिक आखेट में केवल पुरुष ही भाग लेते हैं। रेशम के कीड़े पालना और कपड़ा बुनना स्त्रियों का काम है। समाज में स्त्रियों का स्थान सामान्यत: उच्च है।

विवाह संस्कार

कचारी बहुत से 'बहिर्विवाही' और 'टोटमी' कुलों में विभाजित हैं। प्रत्येक कुल के सदस्यों द्वारा टोटमी पशु का वध वर्जित है। कबीली अंतर्विवाही विधान अचल नहीं है। निकटवर्ती राभा, कोच और सरनिया कबीलों से विवाह संभव है किंतु प्रतिष्ठित नहीं। विधुर अपनी छोटी साली से विवाह कर सकता है और विधवा अधिकतर अपने देवर से विवाह करती है। सामान्यत: एक पत्नी कचारियों में भी अधिक धनी वर्ग के पुरुष या संतानहीन व्यक्ति बहुपत्नीत्व अपनाते हैं। विवाह के लिए पति पत्नी, दोनों की पारस्परिक सम्मति आवश्यक है। शादी विवाह और संपत्ति से संबंधित सभी झगड़ों का निर्णय गाँव के गण्यमान्य व्यक्तियों की सभा के हाथ में होता है।[3]

धार्मिक विश्वास

कचारियों के धर्म का सर्वप्रधान लक्षण आत्मावाद, अर्थात् भूत-प्रेत आदि में विश्वास है। इस विश्वास के मूल में भय की भावना है। कचारी पृथ्वी, वायु और आकाश में दैवी शक्तियों का वास मानते है, जिन्हें वे 'मोदई' की संज्ञा देते हैं। इसमें अधिकांश दुरात्माएँ हैं, जिन्हें व्याधि, अकाल, भूकंप आदि दुर्घटनाओं के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। पूर्वज पूजा और प्रकृति पूजा के छिटपुट प्रमाण मिलते हैं, किंतु इनका कचारी धार्मिक विश्वासों में अधिक महत्व नहीं है। कचारियों में विशुद्ध कबीली देवी-देवताओं की संख्या बहुत कम रह गई है और अनेक हिन्दू देवी-देवता अपना लिए गए हैं। कबीली देवी देवताओं में 19 गृह देवता हैं और 65 ग्राम देवता, जिनकी पूजा गाँव से 15-20 गज दूर स्थित बाँसों या पेड़ों के झुरमुट (थानसाली) में की जाती है। जन्म, नामकरण तथा विवाह के अवसरों पर इनकी आराधना ग्राम का पुजारी 'देउरी' या 'देवदाई' करता है।

गाँव के ओझा का काम भविष्यवाणी और मामूली झाड़-फूँक द्वारा इलाज करना है। हैजा और महामारी से गॉव वालों की रक्षा 'देवयानी' कहलाने वाली आत्माओं के वशीभूत स्त्रियाँ करती हैं। साधारणत: मृतक का दाहकर्म संस्कार किया जाता है, किंतु अधिक धनी वर्ग में शव गाड़ने की प्रथा पाई जाती है। कचारी विश्वास है कि मृत्यु का अर्थ केवल शारीरिक अवस्था में परिवर्तन है और मृतक की आत्मा नष्ट न होकर परिवर्तित रूप से बची रहती है।[3]


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शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक्सोगैमस
  2. क्लैन्स
  3. 3.0 3.1 3.2 कचारी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 25 मार्च, 2014।

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