थारू
थारू जाति भारत और नेपाल की जनजातियों में से एक है। यह जाति भारत के उत्तरांचल और नेपाल के दक्षिण भाग में हिमालय के तराई क्षेत्र में प्रमुखत: पाई जाती है। 20वीं सदी के अंत तक नेपाल में थारू जाति के लोगों की संख्या लगभग 7 लाख, 20 हज़ार और भारत में लगभग 10 हज़ार थी। थारू जाति के लोग सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़े हैं और ये भारोपीय भाषा परिवार के 'भारतीय-ईरानी समूह' के अंतर्गत आने वाली भारतीय-आर्य उपसमूहों की भाषा बोलते हैं।
उत्पत्ति एवं आबादी
उत्तरांचल के थारू खेती, पशुपालन, शिकार, मछली पकड़ने और वनोपज संग्रहण जैसे कार्य करते हैं। थारू जाति की पांच उच्च प्रजातियाँ हैं, जो कुल आबादी का 80 प्रतिशत है। थारू जाति अपनी उत्पत्ति राजस्थान के राजसी मूल से होने का दावा करती है। इस जाति के लोग हिंदू होते हैं। इनकी सामाजिक प्रणाली पितृ-वंशीय होने के बावजूद संपत्ति पर महिलाओं का अधिकार हिंदू समाज से अधिक होता है। थारूओं के हर गांव की एक पंचायत और उसका एक मुखिया होता है।[1]
निवास क्षेत्र
थारू जाति का आवास क्षेत्र उत्तरांचल के तराई प्रदेश के पश्चिमी भाग में नैनीताल ज़िला व उत्तर प्रदेश के दक्षिण पूर्व से लेकर पूर्व में गोरखपुर और नेपाल की सीमा तक है। यह क्षेत्र हिमालय पर्वतपदीय एवं शिवालिक क्षेत्र में नैनीताल, गोंडा, खीरी, गोरखपुर और नेपाल, पीलीभीत, बहराइच एवं बस्ती ज़िलों में पूर्व-पश्चिम दिशा के मध्य विस्तृत है। थारू जनजाति का सबसे अधिक जमाव नैनीताल ज़िले के बिलहारी परगना, खातीमाता तहसील की नानकमाता, विलपुरी एवं टनकपुर बस्तियों के आसपास पाया जाता है। इसी भाँति नेपाल की सीमा पर खीरी ज़िले के उत्तरी क्षेत्रों में बिलराइन से कनकटी के मध्य अनेक थारजन जाति की बस्तियाँ पायी जाती हैं। इनमें से मुख्य किलपुरी, खातीमाता, बिलहारी एवं नानकमाता है। प्रांतीय सरकार ने इन्हें 1961 में जनजाति का दर्जा प्रदान किया था।
विद्वान् विचार
'थारू' शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में काफ़ी मतभेद हैं। अवध गजेटियर के अनुसार- 'थारू' का शाब्दिक अर्थ 'ठहरे' है, अर्थात् जो लोग तराई के वनों में आकर ठहर गये। नोल्स के अनुसार- 'थारू' लोगों में अपहरण विवाह की प्रथा है। पहाड़ी भाषा में 'थरूवा' का अर्थ 'पैडलर' है, अत: इन्हें थारू कहा जाने लगा। कुछ अन्य के अनुसार- तराई एक 'तर' प्रदेश है, अत: इसमें रहने वाले लोग 'तर' हो गये और ये 'तरहुआ' कहे जाने लगे। कुछ की मान्यता है कि जब राजपूत और मुस्लिम लोगों के बीच युद्ध हुआ तो ये लोग हस्तिनापुर से डर या थरथराते हुए यहाँ आकर रुक गये, अत: इन्हें 'थथराना' कहा गया। एक मान्यता यह भी है कि ये शराब खूब पीते हैं, अत: मैदानों के क्षेत्रीय राजाओं ने इन्हें 'थारू' नाम दे दिया। अन्य विद्वानों के मतानुसार- 'थारू' शब्द का अर्थ स्थानीय भाषा में 'जंगल' होता है। इससे जंगल में रहने वाली जाति 'थारू' कहलाती है। कुछ विद्वान् थारू मरुस्थल से आने के कारण थारू शब्द की उत्पत्ति मानते हैं।
शारीरिक गठन
नोल्स ने इनको द्रविड़ प्रजाति के अंतर्गत माना है और यह कहा है कि दक्षिण की ओर से तराई में आकर ये लोग बस गये। ओल्डहम की मान्यता है कि यह भारतीय जाति से ही सम्बन्धित रहे हैं। नेस्फील्ड के मतानुसार थारू अन्य भारतीय लोगों से मिलते-जूलते हैं, भले ही उनमें अंतर्विवाह के फलस्वरूप मिश्रित लक्षण पाये जाते हों। मजूमदार का मत है कि इनकी शारीरिक रचना मंगोलॉयड प्रजाति से मिलती-जूलती है, जैसे तिरछे नेत्र, गाल की हड्डियाँ उभरी हुई, रंग भूरा-पीला, शरीर और चेहरे पर बहुत कम और सीधे बाल, मध्यम और सीधे आकार की नाक आदि। जबकि अन्य शारीरिक लक्षणों में ये नेपालियों से मिलते-जूलते हैं, क्योंकि कई शताब्दियों से इनके वैवाहिक सम्बन्ध नेपाल के दक्षिणी क्षेत्रों से रहे हैं। थारू स्त्रियों का रंग अधिक साफ़ होता है। इनका चेहरा कुछ लम्बाकार, अथवा गोल, स्तन गोल, उठे हुए एवं नुकीले, पिंडलियाँ अधिक विकसित और होंठ पतले होते हैं, किंतु सिर कुछ लम्बा होता है और आँखे काले रंग की होती हैं। वास्तविकता यह है कि थारूओं में मंगोलॉयड और भारतीय जातियाँ दोनों के ही मिश्रित शारीरिक लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। सांस्कृतिक सम्पर्कों के फलस्वरूप थारू जाति के शारीरिक लक्षणों में पर्याप्त परिवर्तन हुए हैं। यद्यपि थारूओं का औसत क़द आज भी छोटा ही होता है।
भोजन
तराई क्षेत्र के थारूओं का मुख्य भोजन चावल होता है, क्योंकि यही यहाँ अधिक पैदा किया जाता है। ये लोग चावल को भूनकर या उबालकर खाते हैं। मक्का की रोटी, मूली, गाजर की सब्जी भी खायी जाती है। मछली, दूध, दही तथा दाल भी खायी जाती है। शुष्क ऋतु में ज्वार, चना, मटर, आदि भी खाये जाते हैं। आलू तथा चावल के बने 'जैंड' को बड़ी रुचि से खाते हैं। चावल की शराब इनका मुख्य पेय है।
धर्म
थारू लोग प्रेतात्माओं की पूजा करते हैं। अब ये हिन्दुओं के देवी देवताओं को भी पूजने लगे हैं। 'कालिका'[2], 'भैरव'[3], 'नारायण'[4] आदि देवताओं के प्रति अधिक श्रद्धा होती है। घरों में इनकी पूजा की जाती है। थारू लोग ईमानदार, सहृदय, शांत प्रकृति वाले होते हैं, किंतु अब मैदानी निवासियों के सम्पर्क से इनमें कटुवा आ गयी हैं- जैसे बाल हत्या, आत्महत्या करना, आदि। होली, दीपावली, जन्माष्टमी पर्वों को ये बड़े आनन्द से मनाते हैं। नाच-गान और शराब पीना तबियत से किया जाता है।
मृतक संस्कार
थारूओं का विश्वास है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा जहाँ से आयी थी, वहीं चली जाती है। इन लोगों के अनुसार मृत्यु दो प्रकार की मानी गयी है: 'प्राकृतिक' जो प्रत्येक व्यक्ति को भुगतनी पड़ती है और 'अप्राकृतिक' जो दुष्ट आत्माओं, देवी-देवताओं के श्राप का प्रकोप और बीमारियों के कारण होती है। मृत्यु होने पर परिवार के सदस्य शव को स्नान कराकर उस पर हल्दी का लेप कर उसे नये कपड़े पहना देते हैं। फिर श्मशान में ले जाकर लाश को आधा जला देते हैं, जबकि पहले इसे गाड़ देते थे। अंत में घर की शुद्धि कर समाज को दावत दी जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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