कभी यह घर जो मुझको घर लगा होता
तो शायद फिर ये घर मुझमें बसा होता
क़सम खाकर न रहते जो घरों में हम
ख़दा जाने घरों का हाल क्या होता
तेरी आँखों में दिखती गर मेरी सूरत
निगाहें फेर कर मैं क्यों उठा होता
कोई रिश्ता न होता गर मेरा तुमसे
मुझे भी क्यों तुम्हीं से आसरा होता
खुशी मिलती मुहब्बत से अगर मुझको
तो क्यों कर मैं मुहब्बत से डरा होता
किसी सूरत नहीं हूँ मैं, बुरा इन्साँ
बुरा होता जो मैं सचमुच, बुरा होता