गढ़वाल रेजीमेंट

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गढ़वाल रेजीमेंट सेंटर

गढ़वाल रेजीमेंट भारतीय सेना का एक सैन्य-दल है। गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना 1887 में हुई। प्राचीन ग्रंथों में तपोभूमि हिमवन्त बदरीकाश्रम, उत्तराखंड केदारखण्ड आदि नाम से प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश का उत्तर पश्चिमी भू-भाग का नाम गढ़वाल सन् 1950 ई. के आसपास पड़ा। ख्याति प्राप्त इतिहासकारों का यह मत है कि उस वक्त इस प्रदेश में बावन या चौंसठ छोटे-छोटे सामन्तशाही ठाकुरगढ़ थे। ऋग्वेद में इन गढ़ों की संख्या 100 है। इसलिए अनेक गढ़ वाले देश अर्थात् गढ़वाला या गढ़वाल आजकल के छह जिले अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषा और ऐतिहासिक समानता के कारण गढ़वाल नाम से जाने जाते हैं। भू-आकारिकी दृष्टि से सारा गढ़वाल क्षेत्र ऊंची-ऊंची पहाड़ियों, नदी, नालों, घने जंगल, पठार और सीढ़ीनुमा खेत वाला आने-जाने की सुविधा से रहित बड़ा ही कठिन क्षेत्र है। कठोर और कठिन स्थितियों में जीवन यापन करने की वजह से यहां का निवासी परिश्रमी और स्वाभाविक रूप से संघर्षपूर्ण जीवन बिताने का आदी होता है।

गढ़वाल रेजीमेंट का इतिहास

भारत का इतिहास उत्तराखंड के वीरों के अनुपम शौर्य एवं गौरवशाली सैनिक परम्पराओं तथा बलिदान की गाथाओं से भरा पड़ा है। विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करने की शक्ति गढ़वालियों की विशेषता रही है। गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना के पीछे बलभद्र सिंह नेगी का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने सन् 1879 में कंधार के युद्ध में अफ़ग़ानों के विरुद्ध अपनी अद्भुत हिम्मत, वीरता और लड़ाकू क्षमता के फलस्वरूप ‘आर्डर ऑफ मैरिट’, ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, ‘सरदार बहादुर’ आदि कई सम्मान पदक प्राप्त करे। उस समय दूरदृष्टि रखने वाले पारखी अंग्रेज़ शासक गढ़वालियों की वीरता और युद्ध कौशल का रुझान देख चुके थे। तब तक बलभद्र सिंह नेगी प्रगति करते हुए जंगी लाट का अंगरक्षक बन गए थे। माना जाता है कि बलभद्र सिंह नेगी ने ही जंगी लाट से अलग गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश की। लम्बी बातचीत के उपरान्त लार्ड राबर्ट्सन ने 4 नवम्बर 1887 को गढ़वाल ‘कालौडांडा’ में गढ़वाल पल्टन का शुभारम्भ किया। कुछ वर्षों पश्चात् कालौडांडा का नाम उस वक्त के वाइसराय लैन्सडाउन के नाम पर ‘लैन्सडाउन’ पड़ा, जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर है।
गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं गोरखा कम्पनी में थोड़ा बहुत हेर-फेर करने के पश्चात् एक शुद्ध रूप से गढ़वाली पलटन बनाई गई, जिसका नाम 39वीं गढ़वाली रेजीमेंट इनफैन्ट्री रखा गया। इस रेजीमेंट की एक टुकड़ी को 1889 ई. में 17000 फीट की ऊंचाई पर नीति घाटी में भेजा गया, जहां इन्होंने बहुत दिलेरी एवं कर्तव्यनिष्ठता से अपना कार्य किया, जिसके लिए इनको तत्कालीन जंगी लाट ने प्रशंसा पत्र दिए। उसके बाद 5 नवम्बर 1890 ई. में इस रेजीमेंट की 6 कम्पनियों को चिनहिल्स (बर्मा) में सीमा सुरक्षा हेतु भेजा गया। विपरीत परिस्थितियों में असाधारण शौर्य एवं साहस दिखाने के वास्ते प्रत्येक सिपाही को ‘बर्मा मेडल’ एवं ‘चिनहिल्स मेडल’ दिये गये। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली ‘चिनहिल्स मेडल’ दिए गए। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली सिपाही शहीद हुए। इस सफलता के फलस्वरूप 1892 ई. में रेजीमेन्ट को सम्मानजनक ‘राइफल’ की उपाधि प्रदान की गई। धनसिंह बिष्ट तथा जगत् सिंह रावत की वीरता विशेष उल्लेखनीय रही जिसके वास्ते उन्हें विशेष पदवी से अभिनंदित किया गया।

गढ़वालियों की युद्ध क्षमता

चन्दन सिंह गढ़वाली 'गढ़वाल रेजीमेंट' के प्रमुख

गढ़वालियों की युद्ध क्षमता की असल परीक्षा प्रथम विश्व युद्ध में हुई जब गढ़वाली ब्रिगेड ने ‘न्यू शैपल’ पर बहुत विपरीत परिस्थितियों में हमला कर जर्मन सैनिकों को खदेड़ दिया था। 10 मार्च 1915 के इस घमासान युद्ध में सिपाही गब्बर सिंह नेगी ने अकेले एक महत्वपूर्ण निर्णायक व सफल भूमिका निभाई। कई जर्मन सैनिकों की खन्दक में सफाया कर खुद भी वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट सैन्य सेवा हेतु उसे उस समय के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ मरणोपरांत प्रदान किया गया। दरबान सिंह नेगी के बेटे कर्नल बी. एस. नेगी के मुताबिक़ इसी युद्ध में फेस्ट्वर्ड की भयंकर लड़ाई हुई, जहां जर्मन सेना ने मित्र राष्ट्र के कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। यहां पहले गढ़वाल बटालियन ने छापामार तरीके से ठिकाने वापस लिए व भारी संख्या में जर्मन सैनिकों को बन्दी बनाया, जिसमें विजय ब्रिटेन को मिली। न मालूम उस वक्त कितने जर्मन मारे गये, 105 जर्मन कैद किये गये। तीन तोपें बहुत सी बन्दूकें और सामग्री भी हाथ लगी। इस संघर्ष में नायक दरबान सिंह नेगी को अद्भुत रणकुशलता और साहस दिखाने के लिए ब्रिटेन के राजा ने युद्ध भूमि में ही सर्वोच्च पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ से अलंकृत करके गढ़वालियों का सम्मान बढ़ाया। उस समय विपक्षी जर्मन व फ्रांसीसी सैनिक भी गढ़वाली सैनिकों का लोहा मानने लगे थे। उनकी शूरवीरता तथा दिलेरी की सब जगह चर्चाएं होती थी। 23 अप्रैल 1930 में गढ़वाली सैन्य इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना घटी जब नायक चन्द्रसिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सिपाहियों ने एक शान्तिप्रिय तरीके से आन्दोलन कर रहे पेशावरी, निहत्थे जनसमूह पर गोली चलाने को मना कर कोई भी दण्ड स्वीकारना श्रेयस्कर समझा। गढ़वालियों का यह आश्चर्यचकित करने वाला साहसिक एवं राष्ट्रवादी प्रदर्शन था जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस घटना से प्रभावित होकर बाद में हजारों सैनिक आजाद हिन्द फौज की तरफ से लड़े। नौसेना में भी विद्रोह की चिंगारी इसी घटना के बाद फूटी। गढ़वाल रेजीमेंट का 125 वर्षो का इतिहास शूरवीरता से भरा पड़ा है।[1]

गढ़वाली सैन्य परंपरा

गढ़वाल क्षेत्र आदिकाल से ही वीरों की भूमि रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और महाभारत में उल्लेखित पुरूरवा शूरवीर गंगा यमुना की उत्तरी घाटियों के निवासी थे। ऋग्वेद के अनुसार इनका निवास स्थान सरस्वती की धरती थी जो बदरीनाथ के ऊपर माणा के पास है। सिकन्दर का आक्रमण रोकने वाले पुरूरवा के वंशज राजा पुरू का गढ़ प्रदेश से अवश्य संबंध रहा। इस प्रकार सिकन्दर के विरुद्ध लड़ने वाले ‘कथासी’ या ‘कथइस’ प्रजाति के लोग गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र के कठैत सूरमा ही थे। यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज के विवरण से यह संकेत भी मिलते हैं कि ग-न-गा-री (गंगा के तट पर बसे गंगाड़ी-गढ़वाल्यू) ने गंगा के किनारे एकत्रित हो सिकन्दर के विजय अभियान पर रोक लगाई थी। गढ़वालियों के युद्ध पराक्रम से विचलित होकर तैमूर लंग ने (सन् 1368 ई.) अपना अत्याचारी अभियान देहरादून के समीप मोहन्ड से वापस कर दिया था। 17वीं शताब्दी में मुग़ल दरबार की यात्रा करने वाले महान् वेनिस यात्री निकोलस और फ्रेंच इतिहासकार बर्नियर के इतिवृत से पता चलता है कि मुग़ल शासकों ने भी कई बार गढ़वाल क्षेत्र पर आक्रमण की योजना बनाई किन्तु छापामार युद्ध प्रणाली में दक्ष गढ़वाली वीरों के आगे उनकी एक न चली। औरंगजेब तो गढ़वाली वीरों के सैन्यबल एवम् युद्ध क्षमता से बहुत प्रभावित था। गढ़वाली बहुत संवेदनशील एवं अपने आत्मसम्मान के प्रति सजग एवं सचेत रहने वाली जाति है। जातीय एवं राष्ट्रीय गौरव उसकी रग-रग में समाया है। उसमें युद्ध के प्रति स्वाभाविक रुचि और आकर्षण होता है। पूरी तरह से अनुशासनशील, वफादार और कर्तव्य के प्रति आत्मोसर्ग तक करने की प्रवृत्ति के कारण गढ़वाली एक आदर्श सैनिक होता है। गढ़वाली लोकगीत एवं लोकगाथाओं में ऐसे कई गढ़वाली वीरों का वर्णन है। कफ्फू चौहान, माधो सिंह भण्डारी, रानी कर्णावती, तीलू रौतेली जैसे अनेक वीर-वीरांगनाओं की शौर्य गाथाओं से इतिहास भरा है। 18वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में आंतरिक कलह, दैवीय प्रकोप, भूकम्प और अकाल आदि ने गढ़वाल की आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति बहुत दयनीय कर दी।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नेगी, मनजीत। पहाड़ की दहाड़: गढ़वाल रेजीमेंट के 125 साल (हिन्दी) Hill Mail। अभिगमन तिथि: 5 फ़रवरी, 2015।
  2. गढ़वाली सैन्य परंपरा (हिन्दी) हिमालय की गोद से। अभिगमन तिथि: 5 फ़रवरी, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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