जसवंत सिंह रावत

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जसवंत सिंह रावत

जसवंत सिंह रावत (अंग्रेज़ी: Jaswant Singh Rawat, जन्म- 19 अगस्त, 1941; शहादत- 17 नवंबर, 1962) भारतीय थल सेना के जांबाज सैनिकों में से एक थे। उत्तराखण्ड की पावन भूमि एक ओर धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान की स्थली रही है, वहीं यह भूमि अन्यानेक वीर एवं वीरांगनाओं की जन्म स्थली भी रही है। इस कड़ी में सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी, 'विक्टोरिया क्रास' विजेता सूबेदार दरबान सिंह, 'विक्टोरिया क्रास' विजेता रायफलमैन गब्बर सिंह नेगी, कर्नल बुद्धीसिंह रावत, मेजर हर्षवर्धन बहुगुणा आदि के नाम अमर हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध में 72 घंटे तक अकेले बॉर्डर पर लड़कर शहीद होने वाले भारतीय सैनिक जसवंत सिंह रावत आज भी अमर हैं। 24 घंटे उनकी सेवा में सेना के पांच जवान लगे रहते हैं। यही नहीं, रोजाना उनके जूतों पर पॉलिश की जाती है और कपड़े प्रेस होते हैं।

परिचय

देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले रायफलमैन जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त, 1941 को ग्राम बाडयू पट्टी खाटली, पौढ़ी (गढ़वाल) में हुआ। इनके पिता गुमान सिंह रावत देहरादून में मिलेट्री डेयरी फार्म के कर्मचारी थे। उनकी माता का नाम लीलावती था। इनके भाई विजय सिंह एवं रणवीर सिंह हैं। नौवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद जसवंत सिंह रावत के मामा प्रताप सिंह नेगी, सेवानिवृत्त मेजर ने उन्हें 16 अगस्त, 1960 को चौथी गढ़वाल रायफल लैन्सडाउन में भर्ती करा दिया। उनकी ट्रेनिंग के समय ही चीन ने भारत के उत्तरी सीमा पर घुसपैठ कर दी थी। धीरे-धीरे उत्तरी-पूर्वी सीमा पर युद्ध शुरू कर दिया। सेना को कूच करने के आदेश दिये गये। चौथी गढ़वाल रायफल नेफा क्षेत्र में चीनी आक्रमण का प्रतिरोध करने को भेजी गई।

जसवंत सिंह रावत के पूर्वज गढ़-काँडा-गुराडगढ़ के अधिपति वीर सेनानी भुपु रौत एवं तीलू रौतली थे, जो गढ़वाल के राजा के दरबारी थे। इन्होंने अपने अदम्य साहस व अनुकरणीय वीरता के कारण गढ़वाल के इतिहास में अपना नाम सम्मान से दर्ज कराया है। तीलू रौतेली को तो 'गढ़वाल की रानी लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है।[1]

चीनी आक्रमण

प्रशिक्षण समाप्त करते ही 17 नवम्बर 1962 को चौथी गढ़वाल रायफल को नेफा, अरुणाचल प्रदेश की टवांग वू नदी पर नूरनांग पुल की सुरक्षा हेतु लगाया गया था, पर चीनी सेना ने हमला बोल दिया। यह स्थान 14,000 फीट की ऊँचाई पर था, चीनी सेना टिड्डियों की तरह भारत पर टूट पड़ी। चीनी सैनिकों की अधिक संख्या एवं बेहतर सामान के कारण सैनिक हताहत हो रहे थे। दुश्मन के पास एक मीडियम मशीनगन थी, जिसे कि वे पुल के निकट लाने में सफल हो गये। इस एल.एम.जी. से पुल व प्लाटून दोनों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई थी।

मोर्चे पर अ‍डिग

यह सब देखकर जसवंत सिंह रावत ने पहल की व मशीनगन को लूटने के उद्देश्य से अपने आपको स्वेच्छा से समर्पित कर दिया। तब उनके साथ लान्सनायक त्रिलोक सिंह व रायफलमैन गोपाल सिंह भी तैयार हो गये। ये तीनों जमीन पर रेंगकर मशीनगन से 10-15 गज की दूरी पर ठहर गये। उन्होंने हथगोलों से चीनी सैनिकों पर हमला कर दिया। उनकी एल.एम.जी. ले आये और गोली बरसाने लगे। जसवंत सिंह रावत ने बहादुरी दिखाते हुए बैरक नं. 1, 2, 3, 4 एवं 5 से निरन्तर, कभी बैरक नं. 1 से तो कभी बैरक न. 2 से गोलियों की वर्षा कर शत्रु को 72 घंटे रोके रखा। वह कभी एक बंकर में जाते, वहाँ से गोली चलाते, फिर दूसरे बंकर में जाते। उन्हें स्थानीय महिला शीला ने बड़ी मदद दी। उन्हें गोला बारूद व खाद्य सामग्री निरन्तर उपलब्ध करवायी। जसवंत सिंह रावत देशभक्ति के दीवाने थे। वह निरन्तर गोलियां चलाते रहे। उन्हें उस समय परमपिता परमात्मा ने असीम शक्ति प्रदान कर दी थी। उनकी पूर्वज वीर बाला तीलू रौतेली उनकी आदर्श थीं। इस रणनीति के कारण दुश्मन यह समझता रहा कि भारतीय सेना बड़ी मात्रा में उन्हें रोक रही है।

शहादत

1962 के इस भयंकर युद्ध में 162 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये। 1264 को दुश्मनों ने कैद कर लिया। 256 सैनिक बर्फीली हवाओं में तितर-बितर हो गये। उस समय भारतीय सेना के पास युद्ध के अनुकूल गोला-बारूद्ध, युद्ध का साजो सामान भी नहीं था और न ही उनकी तैयारी थी। वहाँ पर मठ के गद्दार लामा ने चीनी सेना को बताया कि एक आदमी ने आपकी ब्रिगेड को 72 घंटे से रोक रखा है। इस समाचार के बाद उन्होंने चौकी को चारों ओर से घेर लिया और जसवंत सिंह रावत का सर कलम करके अपने सेनानायक के पास ले गये। चीनी सेना के डिब कमाण्डर ने सम्मान के साथ उनका शव सन्दूक में बंदकर एक पत्र के साथ भेजां कि- "भारत सरकार बताये कि इस वीर को क्या सम्मान देंगे, जिसने 3 दिन व 3 रात तक हमारी ब्रिगेड को रोके रखा।" वीर तो वह है, जिसकी वीरता का शत्रु भी सम्मान करे। तेजपुर से तवांग रोड पर 425 कि.मी. पर शिलालेख पर वीरगति प्राप्त शहीदों के नाम अंकित हैं व उनकी स्मृति स्वरूप समाधि मंदिर बनाया गया है।

लैफ्टिनेन्ट जनरल कौल ने अपनी पुस्तक 'दि अनटोल्ड स्टोरी' में लिखा है कि- "जिस तरह से चीन का यह युद्ध गढ़वाल रायफल के सैनिकों ने लड़ा, उसी तरह अन्य बटालियन भी युद्ध लड़ती तो इस युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता। नेफा की जनता जसवंत सिंह रावत को देवता के रूप में पूजती है और उन्हें 'मेजर साहब' कहती है। उनके सम्मान में जसवन्त गढ़ भी बनाया गया है। उनकी आत्मा आज भी देश के लिए सक्रिय है। सीमा चौकी के पहरेदारों में से यदि कोई ड्यूटी पर सोता है तो वह उसे चाटा मारकर चौकन्ना कर देती है।

सम्मान

हीरो ऑफ़ नेफ़ा जसवंत सिंह रावत को मरणोपरान्त 'महावीर चक्र' प्रदान किया गया एवं सेना द्वारा उनकी याद में हर वर्ष 17 नवम्बर को 'नूरानांग दिवस' मनाकर अमर शहीद को याद किया जाता है।

आज भी मुस्तैद

वहां रहने वाले जवानों और स्थानीय लोगों का मानना है कि जसवंत सिंह रावत की आत्मा आज भी भारत की पूर्वी सीमा की रक्षा कर रही है। उनके नाम से नूरानांग में जसवंतगढ़ नाम का बड़ा स्मारक बनाया गया है। यहां शहीद के हर सामान को संभालकर रखा गया है। देश के खातिर शहीद हो चुके जसवंत सिंह रावत के जूतों पर यहां रोजाना पॉलिश की जाती है और पहनने-बिछाने के कपड़े प्रेस किए जाते हैं। इस काम के लिए सिख रेजीमेंट के पांच जवान तैनात किए गए हैं। यही नहीं, रोज सुबह और रात की पहली थाली उनकी प्रतिमा के सामने परोसी जाती है। बताया जाता है कि सुबह-सुबह जब चादर और अन्य कपड़ों को देखा जाए तो उनमें सिलवटें नजर आती हैं। वहीं, पॉलिश के बावजूद जूते बदरंग हो जाते हैं।[2]

मिलते हैं प्रमोशन और छुट्टियां

जसवंत सिंह रावत भारतीय सेना के अकेले सैनिक हैं, जिन्हें शहादत के बाद प्रमोशन मिलना शुरू हुआ। पहले नायक फिर कैप्टन और अब वह मेजर जनरल के पद पर पहुंच चुके हैं। उनके परिवार वालों को पूरा वेतन पहुँचाया जाता है। घर में विवाह या धार्मिक कार्यक्रमों के अवसरों पर परिवार वालों को जब जरूरत होती है, तब उनकी तरफ से छुट्टी की अर्जी दी जाती है और मंजूरी मिलते ही सेना के जवान उनके तस्वीर को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गांव ले जाते हैं। वहीं, छुट्टी समाप्त होते ही उस तस्वीर को ससम्मान वापस उसी स्थान पर ले जाया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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