पाल साम्राज्य
हर्ष के समय के बाद से उत्तरी भारत के प्रभुत्व का प्रतीक कन्नौज माना जाता था। बाद में यह स्थान दिल्ली ने प्राप्त कर लिया। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में 'गोपाल' नामक राजा ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफ़ी सहायता मिली।
पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट 'गोपाल' का पुत्र 'धर्मपाल' था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। कन्नौज के प्रभुत्व के लिए संघर्ष इसी के शासनकाल में आरम्भ हुआ। इस समय के शासकों की यह मान्यता थी कि जो कन्नौज का शासक होगा, उसे सम्पूर्ण उत्तरी भारत के सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। कन्नौज पर नियंत्रण का अर्थ यह भी थी कि उस शासक का, ऊपरी गंगा घाटी और उसके विशाल प्राकृतिक साधनों पर भी नियंत्रण हो जाएगा। पहले प्रतिहार शासक 'वत्सराज' ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। काफ़ी तैयारियों के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झाँसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया। ऐसा लगता है कि कन्नौज पर अधिकार प्राप्त करने की इसकी कोई विशेष इच्छा नहीं थी और ये केवल गुजरात और मालवा को अपने अधीन करने के लिए प्रतिहारों की शक्ति को समाप्त कर देना चाहता था। वह अपने दोनों लक्ष्यों में सफल रहा। उधर प्रतिहारों के कमज़ोर पड़ने से धर्मपाल को भी लाभ पहुँचा। वह अपनी हार से शीघ्र उठ खड़ा हुआ और उसने अपने एक व्यक्ति को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया। यहाँ उसने एक विशाल दरबार का आयोजन किया। जिसमें आस-पड़ोस के क्षेत्रों के कई छोटै राजाओं ने भाग लिया। इनमें गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा काबुल घाटी), मद्र (मध्य पंजाब), पूर्वी राजस्थान तथा मालवा के राजा शामिल थे। इस प्रकार धर्मपाल को सच्चे अर्थों में उत्तरपथस्वामिन कहा जा सकता है। प्रतिहार साम्राज्य को इससे बड़ा धक्का लगा और राष्ट्रकूटों द्वारा पराजित होने के बाद वत्सराज का नाम भी नहीं सुना जाता।
इन तीनों साम्राज्यों के बीच क़रीब 200 साल तक आपसी संघर्ष चला। एक बार फिर कन्नौज के प्रभुत्व के लिए धर्मपाल को प्रतिहार सम्राट 'नागभट्ट' द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। ग्वालियर के निकट एक अभिलेख मिला है, जो नागभट्ट की मृत्यु के 50 वर्षों बाद लिखा गया और जिसमें उसकी विजय की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि नागभट्ट द्वितीय ने मालवा तथा मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा 'तुरुष्क तथा सैन्धव' को पराजित किया जो शायद सिंध में अरब शासक और उनके तुर्की सिपाही थे। उसने बंग सम्राट को, जो शायद धर्मपाल था, को भी पराजित किया और उसे मुंगेर तक खदेड़ दिया। लेकिन एक बार फिर राष्ट्रकूट बीच में आ गए। राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत में अपने पैर रखे और नागभट्ट द्वितीय को पीछे हटना पड़ा। बुंदेलखण्ड के निकट एक युद्ध में गोविन्द तृतीय ने उसे पराजित कर दिया। लेकिन एक बार पुनः राष्ट्रकूट सम्राट मालवा और गुजरात पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वापस दक्षिण लौट आया। ये घटनाएँ लगभग 806 से 870 ई. के बीच हुई। जब पाल शासक कन्नौज तथा ऊपरी गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में असफल हुए, तो उन्होंने अन्य क्षेत्रों की तरफ अपना ध्यान दिया। धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने, जो 810 ई. में सिंहासन पर बैठा और 40 वर्षों तक राज्य किया, प्रागज्योतिषपुर (असम) तथा उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम कर लिया। नेपाल का कुछ हिस्सा भी शायद पाल सम्राटों के अधीन था। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल साम्राज्य का विघटन हो गया। पर दसवीं शताब्दी के अंत में यह फिर से उठ खड़ा हुआ और तेरहवीं शताब्दी तक इसका प्रभाव क़ायम रहा।
अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार
पाल वंश के आरम्भ के शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात् क़रीब 200 वर्षों तक उत्तरी भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखा। दसवीं शताब्दी के मध्य में भारत आने वाले एक अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की चर्चा की है। उसने पाल राज्य को 'रूहमा' कहकर पुकारा है (यह शायद धर्मपाल के छोटे रूप 'धर्म' पर आधारित है) और कहा है कि पाल शासक और उसके पड़ोसी राज्यों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों में लड़ाई चलती रहती थी, लेकिन पाल शासन की सेना उसके दोनों शत्रुओं की सेनाओं से बड़ी थी। सुलेमान ने बताया है कि पाल शासक 50 हज़ार हाथियों के साथ युद्ध में जाता था और 10 से 15 हज़ार व्यक्ति केवल उसके सैनिकों के कपड़ों को धोने के लिए नियुक्त थे। इससे उसकी सेना का अनुमान लगाया जा सकता है।
तिब्बती ग्रंथों से
पाल वंश के बारे में हमें तिब्बती ग्रंथों से भी पता चलता है, यद्यपि यह सतरहवीं शताब्दी में लिखे गए। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध धर्म तथा ज्ञान को संरक्षण और बढ़ावा देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को, जो सारे पूर्वी क्षेत्र में विख्यात है, धर्मपाल ने पुनः जीवित किया और उसके खर्चे के लिए 200 गाँवों का दान दिया। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना की। जिसकी ख्याति केवल नालन्दा के बाद है। यह मगध में गंगा के निकट एक पहाड़ी चोटी पर स्थित था। पाल शासकों ने कई बार विहारों का भी निर्माण किया जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध रहते थे।
पाल शासक और तिब्बत
पाल शासकों के तिब्बत के साथ भी बड़े निकट के सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। उन्होंने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् सन्तरक्षित तथा दीपकर (जो अतिसा के नाम से भी जाने जाते हैं) को तिब्बत आने का निमंत्रण दिया और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया। नालन्दा तथा विक्रमशील विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में तिब्बती विद्वान् बौद्ध अध्ययन के लिए आते थे।
पाल शासकों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध थे। दक्षिण पूर्व एशिया के साथ उनका व्यापार उनके लिए बड़ा लाभदायक था और इससे पाल साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी। मलाया, जावा, सुमात्रा तथा पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करने वाले शैलेन्द्र वंश के बौद्ध शासकों ने पाल-दरबार में अपने राजदूतों को भेजा और नालन्दा में एक मठ की स्थापना की अनुमति माँगी। उन्होंने पाल शासक देवपाल से इस मठ के खर्च के लिए पाँच ग्रामों का अनुदान माँगा। देवपाल ने उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। इससे हमें इन दोनों के निकट सम्बन्धों के बारे में पता चलता है।
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