तिब्बती बौद्ध धर्म
तिब्बती बौद्ध धर्म जो अशुद्ध तरीक़े से 'लामावाद' भी कहलाता है, बौद्ध धर्म का विशिष्ट या विभेदित रूप। यह सातवीं शताब्दी में तिब्बत में विकसित हुआ। यह मुख्यत: माध्यमिक तथा योगाचार दर्शन के कठोर बौद्धिक अनुशासन पर आधारित है और इसमें 'वज्रयान'[1] के प्रतीकात्मक आनुष्ठानिक आचारों का पालन होता है।
विशेषताएँ
तिब्बती बौद्ध धर्म में आरंभिक थेरवादी बौद्ध धर्म के मठवासी अनुशासन तथा स्थानीय तिब्बती धर्म बॉन की जादूगरी जैसी विशेषताएं भी शामिल थीं। तिब्बती बौद्ध धर्म की विशेषता असामान्य रूप से जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का धार्मिक लक्ष्य में संलग्न होना है। 1950 के दशक में चीन के साम्यवादियों द्वारा इस देश पर कब्ज़े से पहले लगभग एक-चौथाई निवासी धार्मिक मतों के सदस्य थे। इसमें 'पुन: अवतार लेने वाले लामाओं' की पद्धति; दलाई लामा के पद तथा व्यक्ति में आध्यात्मिक व सांसारिक सत्ता का परंपरागत विलय; और बड़ी संख्या में देवता[2], जिन्हें धार्मिक कुलीन वर्ग आत्मिक जीवन का प्रस्तुतीकरण मानता है तथा सामान्य जन वास्तविक मानकर स्वीकार करता है, शामिल हैं।[3]
प्रसार
तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रसार मुख्यत: सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच हुआ। आरंभिक उपदेशकों में उल्लेखनीय तांत्रिक गुरु पद्मसंभव और अधिक रूढ़िवादी 'महायान' उपदेशक शांतिरक्षित शामिल हैं। 1042 में भारत से महान् शिक्षक अतिशा के आगमन के साथ ही वहां एक सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत हुई तथा एक शताब्दी के भीतर ही तिब्बती बौद्ध धर्म के प्रमुख संप्रदाय आस्तित्व में आए। 'गेलुग्-पा' या धार्मिक पद्धतियों में से एक, जो सामान्य: 'पीला टोप संप्रदाय' के नाम से जाना जाता है तथा दलाई व पंचेन लामाओं का मत है, 17वीं शताब्दी से लेकर 1959 तक राजनीतिक रूप से प्रमुख तिब्बती संप्रदाय रहा है। इसके बाद चीनी गणराज्य ने दलाई लामा के पदानुक्रमिक प्रशासन को समाप्त कर दिया।
श्रेणियाँ
14वीं शताब्दी तक तिब्बती लोग भारत तथा तिब्बत में उपलब्ध समूचे बौद्ध साहित्य का अनुवाद करने में सफल हो गए थे। अपने मूल देश में लुप्त हो चुके कई संस्कृत ग्रंथों की जानकारी उनके तिब्बती अनुवादों से मिलती है। तिब्बती धर्म विज्ञान दो श्रेणियों में विभाजित है-
- 'काग्युर' या शब्दों का अनुवाद, जिसमें संभवत: धर्मविधानीय पाठ हैं
- 'तन्ग्युर' या प्रसारित शब्द, जिसमें भारतीय गुरुओं की टीकाएं हैं
20वीं शताब्दी के दूसरे उत्तरार्ध में तिब्बती बौद्ध धर्म का पश्चिम में प्रसार हुआ, विशेषकर तिब्बत को चीनी साम्यवादियों द्वारा अधीन कर लिए जाने के कारण कई शरणार्थी अपने गृहक्षेत्र से निकले, जिनमें परमआदरणीय 'पुनर्अवतरित लामा' या तुलुक भी शामिल थे। पश्चिम में तिब्बती धार्मिक समूह में शरणार्थियों के समुदाय तथा तिब्बती परंपरा की ओर आकर्षित पश्चिमी लोग शामिल हैं।[2]
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