रश्मि प्रभा
| ||||||||||||||||||||||||||||||
|
रश्मि प्रभा (अंग्रेज़ी: Rashmi Prabha, जन्म: 13 फ़रवरी, 1958) समकालीन कवयित्री हैं और स्वर्गीय महाकवि सुमित्रा नंदन पंत की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की सुपुत्री हैं।
जीवन परिचय
सीतामढ़ी (डुमरा) में 13 फ़रवरी, 1958 में रश्मि प्रभा का जन्म हुआ। इनके पिता स्वर्गीय रामचंद्र प्रसाद हाई स्कूल के प्राचार्य थे। इनके लिए संस्कारों का एक स्तम्भ, माँ श्रीमती सरस्वती प्रसाद इनकी शिक्षा और भावनाओं का सबल स्रोत बनीं।
पन्त की रश्मि
1964 में रश्मि प्रभा का परिवार कवि सुमित्रानंदन पन्त के घर गया था, तब पंत जी ने इनकी माँ को उन्होंने अपनी बेटी माना था। इनका नाम बस 'मिन्नी' था। पंत जी ने अचानक कहा- 'कहिये रश्मि प्रभा, क्या हाल है? 'माँ-पिता के चेहरे पर मुस्कान उभरी, अहोभाग्य सा भाव उमड़ा, पर इन्होंने मुंह बिचकाया 'ऊँह... अच्छा नाम नहीं है।' पन्त जी ने कहा- 'दूसरा नाम रख देता हूँ'। पिता ने कहा- 'नहीं, इसे क्या पता इसने क्या पाया है!' इन्होंने तब नहीं जाना था कि इन्हें क्या मिला है, पर यह नाम इनका मान बन गया। एक दिन इनके पिता ने कहा था - 'बेटी, तुम रश्मि ही बनना' और कहते हुए उनकी आँखें भर आई थीं।
मैं रश्मि प्रभा
मेरी कलम ने परिचय का आदान -प्रदान किया तो भीड़ से एक आवाज़ आई जानी पहचानी - 'मुझे आपके बारे में भी जानना है ....' मेरे बारे में ? फिर कैनवस पर औरों को उकेरते हुए मैंने बार बार पलट कर खुद को देखा, कोई खासियत मिले तो कोई रंग दूँ .... जब भी देखा, उसकी आँखों में मुझे उड़ते बादल नज़र आए। कल रात मैंने कुछ बादल चुरा लिए, शायद उसके भीतर से परिचय का कोई सूत्र मिल जाए !
प्रसाद कुटी की सबसे छोटी बेटी ! हाँ अब तो वही है सबसे छोटी जबसे वह नहीं रहा। उसका छोटा भाई संजू, 6 भाई बहनों की दुनिया थी, संस्कारों की, उचित व्यवहार की सुबह होती थी। सुबह होते पापा के कमरे में सब इकट्ठे होते, कभी भजन, कभी कोई खेल, तथाकथित अच्छी सीख- 'कुछ भी करो तो सोचो, ऐसा सामने वाला करेगा तो कैसा लगेगा!' सामने वाले का ख्याल करते करते बीच से संजू चला गया, अच्छाई की बलिवेदी पर वह गुम हो गया। ओह, मैं रश्मि प्रभा के नाम से जानी जाने वाली इस लड़की की शुद्ध पहचान इसके घर के नाम से है- 'मिन्नी', वो भी 'काबुलीवाले की मिन्नी '। रश्मि नाम कवि सुमित्रानंदन पन्त ने दिया और इस रश्मि नाम से इसने पढ़ाई की और अब लिखने लगी है। सच तो ये है कि जब रश्मि नाम से पुकारा जाता है तो वह भी इधर उधर देखती है, फिर याद करती है कि ये तो मैं हूँ ! है न अजीब सी बात ? जी हाँ अजीब बातों वाली यह लड़की अजीब सी ही है बचपन से।
छोटा-सा घर पर्ण कुटी सा फूलों से भरा रहा। छोटा सा दायरा - बस पापा, अम्मा, तीन बड़ी बहनें, खुद से बड़े भईया और वह, संजू तो बचपन में ही चला गया। पढ़ाई, साहित्य और स्नेह का वातावरण रहा घर में, पराये की कोई परिभाषा ही नहीं दी गई। पड़ोसी सगा, दोस्त सगा, मामा, चाचा, मौसी, भईया, दीदी संबोधन के साथ सब अपने थे। सीख तो निःसंदेह बड़ी अच्छी थी, सुनने, सुनाने में बहुत अच्छा लगता है, पर यह ख्याल तिल तिलकर मरने के लिए काफ़ी था। पापा ने हमें 'अपनों' की विस्तृत परिभाषा दी, और उन सारे अपनों का अपना अपने संबंधों से रहा। पापा से प्रश्न उठाऊं, तर्क करूँ - उस वक़्त न इतनी हिम्मत थी, न सुलझे ढंग से बात रखना आता था। बहुत छोटी उम्र से यह मंथन चलता रहा और इसी मंथन ने मुझे खुद से बाहर निकलकर खुद को देखना सिखाया। ना सीखती तो सर सहलाकर खुद को राहत कैसे देती !
जन्म सीतामढ़ी (डुमरा), प्रारंभिक शिक्षा सीतामढ़ी (डुमरा) में हुई, पापा प्राचार्य थे, अम्मा के साथ कहानी, कविताओं से पहचान हुई। 1970 में हम तेनुघाट आ गए, स्कूल की शिक्षा वहीँ पूरी हुई, फिर रांची महिला महाविद्यालय से स्नातक, हिस्ट्री ऑनर्स के साथ। जीवन के उतार-चढ़ाव की बात करूँ तो बेतरतीब लकीरें खींचती चली जाएँगी। बस इतना बताऊँ कि हर आड़ी तिरछी लकीरों के मध्य से निकल मैंने सोचा -
'मरण देख तुझको स्वयं आज भागे
उड़ा पाल माझी बढा नाव आगे ...'
और मेरी पतवार को सार्थक बनाया मेरे तीन बच्चों ने- (मृगांक, खुशबू, अपराजिता)। इतनी मजबूती से पतवार को थामा कि बिना पाल खोले भी हम आगे बढ़ गए। 2007 में खुशबू ने मेरे लिए ब्लॉग बनाया, जिसमें मदद मिली हिंदी ब्लौगिंग के जाने माने चिट्ठाकार संजीव तिवारी से। हिंदी में कैसे शुरुआत हो, कैसे औरों से संपर्क हो यह उन्होंने ही बताया। मैं तो कंप्यूटर देखते ही डर जाती थी, पर खुशबू ने मुझे सब सिखाया और धीरे धीरे मैंने पंख फैलाये। आकाश में कई सशक्त पंछी पहले से थे, अपनी उड़ान के साथ उन सारे पंछियों ने आने वाले हर पंछियों का स्वागत किया। मैं सबकी शुक्रगुजार हूँ। 'कादम्बिनी' में तो बहुत पहले प्रकाशित हुई थी मेरी रचना- 'अकेलापन', (वर्ष तक याद नहीं) उस समय उसके संपादक श्री राजेंद्र अवस्थी जी थे।
'सिंह कभी समूह में नहीं चला
हँस पातों में उड़े
इन पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था
बहुत से हृदय मेरे संग नहीं जुड़े ...
जग को अपने से परे माना
मेरे जीवन की सम्पूर्णता आकाश में समा गई
जब इसे अपनी उपलब्धि मान
मैंने अपनाना चाहा
मेरे अकेलेपन को नींद आ गई'
कलम मेरी शक्ति रही, भावनाएं मेरा आधार, पर इससे परे भी मैंने बहुत कुछ किया। छोटे से स्कूल में पढ़ाया, टयूशन पढ़ाने गई, प्राइवेट बैंक में काम किया, हर्बल उबटन बनाया, लेकिन मेरा सुकून मेरा ब्लॉग बना। अपने होने का एहसास होता है, कोई मुझे पढ़ता है - इसकी ख़ुशी होती है। फिर मैं हिन्दयुग्म से जुड़ी। 'ऑनलाइन कवि सम्मलेन' 'गीतों भरी कहानी' ने मुझे एक अलग पहचान दी। हिन्दयुग्म से ही मेरा काव्य-संग्रह 'शब्दों का रिश्ता' प्रकाशित हुआ और जनवरी 2010 के बुक फेयर में इमरोज़ के द्वारा उसका विमोचन हुआ और लोगों के बीच मेरी पहचान बढ़ने लगी। फिर रवीन्द्र प्रभात जी की परिकल्पना से मैं जुड़ी (2010 में), वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री के सम्मान के साथ मैंने ऑनलाइन वटवृक्ष का संपादन शुरू किया रवीन्द्र प्रभात जी के साथ। फिर 30 अप्रैल 2011 को त्रैमासिक पत्रिका के रूप में इसे हमने लोगों के मध्य रखा। मेरे संपादन में 'अनमोल संचयन' , 'परिक्रमा' का प्रकाशन हुआ, 'अनुगूँज' प्रकाशनाधीन है। ये सारे कार्यकलाप खुद में रहने का उपक्रम है, अन्यथा -'दुनिया चिड़िया का बसेरा है, ना तेरा है ना मेरा है'।[1]
कृतियाँ
|
|
सम्मान और पुरस्कार
- परिकल्पना ब्लॉगोत्सव द्वारा वर्ष 2010 की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री का सम्मान।
- पत्रिका ‘द संडे इंडियन’ द्वारा तैयार हिंदी की 111 लेखिकाओं की सूची में नाम शामिल।
- परिकल्पना ब्लॉगर दशक सम्मान - 2003-2012
- शमशेर जन्मशती काव्य-सम्मान - 2011
- अंतर्राष्ट्रीय हिंदी कविता प्रतियोगिता 2013 भौगोलिक क्षेत्र 5 भारत - प्रथम स्थान प्राप्त
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सपनों वाली वो लड़की यानि मैं रश्मि प्रभा (हिन्दी) शख्स मेरी कलम से। अभिगमन तिथि: 9 जनवरी, 2015।
बाहरी कड़ियाँ
- रश्मि प्रभा के ब्लॉग
- मृखुअपरा की रश्मि प्रभा
- रश्मि प्रभा
- परिचय - रश्मि प्रभा
- इस बार का कवि सम्मेलन रश्मि प्रभा के संग
- रश्मि प्रभा
- आत्म-चिंतन
संबंधित लेख